■ वाह ! बेटा वाह! ■ भाग 02
(एक कलियुगी बेटे की करतूत पिता के प्रति)
( भाग 02)
------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------------सानू के जबाब के प्रतियुत्तर में दीपा केबल कुछ पलों तक मुश्कराती रही थी ,पर वह बोली कुछ नहीं ।मैं सोच रहा था," कि दीपा अब शायद गुस्सा में भर कर कहीं शानू को खरी खोटी न सुना दे "।यही सोच कर मैं दीपा के मुहँ को ताकने लगा।संजना जो रघु की पुत्र वधु थी वह अब सानू के निकट सट कर ऐसे खड़ी हो गई थी, मानों वह कोई विशेष अवार्ड जीत कर आई हो और अब वह अपने बॉडी गार्ड के सुरक्षा घेरे में खङी हो। और इसी के साथ वह दीपा की ओर देखकर मन्द मन्द मुश्करा रही थी ,यह उसका कृत्य आग पर घी डालनें जैसा था।और सानू भी उसे आवश्यक रक्षात्मक कवच के रूप में उसका साथ देरहा था ,मानो वह कोई पुरुष्कार जीती हो ,और सानू का जबाब इस बात का सर्टिफिकेट हो।अकस्मात मुझे रघु की आबाज सुनाई पड़ी।"वाह !बेटा वाह ! " मुझे तुम दोनों से यही उम्मीद थी, वाह ! खूब नाम रौशन किया है तुम दोनों ने मेरा।रघु की आबाज में अब गहरा क्षोभ उभर आया था, उसके चेहरे पर गुस्सा साफ-साफ दिखाई दे रहा था।प्रतिक्रिया में सानू अपने पिता से बोला।हमनें ऐसा क्या किया है डैडी जो आप को लगता है कि हमने आपको नीचा दिखा दिया................।और डैडी .......आप जानते ही हैं ........कि हम कितने बिजी रहने बाले पर्सन है।संजना ने नहले पर दहला जड़ा।हाँ मुझे मालूम है , कि "आप दोनों कितने बिजी रहकर, कितना रुपयों को कारोबार कर के कितना रुपये रोज कमाते हो "।रघु की आवाज़ में वितृष्णा की लपट स्पष्ट दिखाई दे रही थी।इस से आपको क्या लेना देना है ? क्या हर कार्य सिर्फ रुपयों के लिए हीं किया जाता है ....पापा।सानू ने अपने पिता रघु को उत्तर दिया।डैडी, आपने अब तक बस पैसा ही पैदा किया है,अरे जिस समाज में रह रहे हो कम से कम उस समाज के प्रति अब तक कोई सोशल कार्य तो आपनें अभी तक किया नहीं, ....."अरे पैसा तो हर कोई कमा लेता है ", ......हम दोनों पति ...पत्नी ने समाज में सिर्फ़ इज्जत ......कमाई है , केबल इज्जत , .....आज जिधर भी देखों ......लोग हमें ..आदर....सम्मान देते है। संजना ने अपने पति की हाँ में हाँ मिलाते हुए कहा।तो ठीक हैं .....जाओ ,उन्हीं लोगों के साथ रहो ,और फिर देखना की वह तुम्हें कितने दिन अपने घर में बिना कमाई के कितने दिन खाना खिलाते हैं और संग रखते है।रघु ने क्रोधावेष में जो नही कहना चाहता था वह भी, कह दिया।पल भर को वहाँ सन्नाटा सा छा गया, अगर कोई सुईं गिर जाए तो उसकी आबाज़ भी उस समय सुनाई दे जाती ।मैं और दीपा रघु का मुहँ आश्चरिये से ताकने लगे, ।साथ ही संजना और सानू दोनो एक दूसरे की आँखों में आँखें डाल कर विस्मय से भरे हुए कभी रघु को, तो कभी बह हम दोनों, पति पत्नी को विचित्र नजरों से घूर रहे थे।नहीं रघु ......यह उचित........ नहीं है।मैंने रघु को शांत करने की असफ़ल कोशिश की,पर वह क्रोध की अधिकता से काँप रहा था उसका यह विकराल रूप मैंने पहिले कभी नहीं देखा था।रहने दीजिए, ..........अंकल आप दोनों की वजह से ही आज हमारे पापा हमें हमारे ही घर से निकल ने की धमकी दे रहे है।सानू पैरों को पटक कर गुस्से और नफ़रत से मेंरी ओर देखकर बोला। हाँ बेटा सही कह रहे हो,.......क्या तुम ने कभी....... अपने पिता की ..........भावनाओं को .......समझा ? मेरे बोलने से पहले ही रघु पुनः ज़ोर ज़ोर से बोलने लगा।" मुझे लगा कि क्या मैं ही,वास्तव में इस पिता- पुत्र के झगड़े की बास्तविक जड़ हूँ."....... क्या मैँ गलत हूँ ?क्या शानू का आरोप मेरे प्रति उचित है ? आज जो दोष सानू ने मेरे मत्थे मड़ दिया है क्या उसमें मेरा कोई वास्तविक दोष है ?मैं अब अंतर्मुखी हो आत्म चिंतन में लग गया।कुछ पलों को वहाँ गहरी नीरवता का साम्राज्य स्थापित हो गया था, वहाँ गिरने बाली एक छोटी सी सुईं की आवाज भी सुनाई दे जाती।इधर रघु को पता नहीं क्या हुआ था कि वह एक भी बात अपने पुत्र और वधु की सहन नही कर रहा था।मुझे मौन देख कर दीपा रघु को समझाने लगी ।लेकिन मालूम पड़ता था कि रघु तो आज सब्र का बाँध तोड़ चुका था,वह क्रोधावेष में कहता चला गया।जाओ, .......निकल जाओ,.... मेरे घर से ,.....यह घर तुमने नहीं बनाया ......है,.....जब घर बना लो तब मुझे दिखाना की कितनी समाज .......सेवा की और कितना ईमानदारी से धन कमाया,......अरे दूसरे को मूर्ख बना कर पैसा कमाने से बेहतर है मैं भूखा ही सो जाऊ,........आज मैं गर्व से .......कह सकता हूँ कि .........मैंने कभी किसी को..... अपने पद पर रहते हुए ......नहीं ठगा,... कभी किसी की बददुआ नहीं ली, । आज मैं रिटायर हो गया हूँ........ पर मेरा आत्मसम्मान अभी भी है, .......लेकिन तुम दोनों ने मुझे अपना नौकर समझ लिया,...... मेरे ही पेंशन से तुम दोनों का पेट भरता है, और मुझें ही तुम लोगों ने अपना नौकर बना लिया, ..और यहाँ तक अपनी माँ को मेरे होते हुए उसे एक नौकरानी जैसा जीते जी बना दिया.....मैंने यह भी स्वीकार किया,.......किन्तु मैं अपने मित्र कुमार का अपमान मेरे अपने ही घर में हो यह मैं अब और मित्र का अपमान कभी भी नहीं सह सकता हूँ ,.......जाओ दूर हो जाओ,....... मेरी नजरों से।भाई साहब, .........भाई साहब........यह सब .....ठीक नहीं........,यह आपके बच्चे है......,प्लीज इन्हें माफ कर दो,........गलती इंसान से ........ही होती है।दीपा ने रघु को समझाया।बेटा, सानू तुम्हें अपनी गलती की माफ़ी मांगने में कोई एतराज तो नहीं होना चाहिए,.....अरे यह तुम्हारे पिता है।मैने सानू को प्यार से समझाया।अंकल ,......मैं अपनी गलती की क्षमा आप से..... आँटी और अपने ......पापाजी से....... माँगता हूँ। कहता हुआ सानू मेरे और दीपा के पैरों में झुक गया।,मैंने उसे तुरन्त उठा कर अपने सीने से लगा लिया ।आओ बेटा , .... अगर सुवह का भटका ......साँझ को घर लौट आये.... तो वह रास्ता भूला नहीं कहलाता।जी अंकल मैं , बास्तब में भटक गया था।सानू के आँखों से पश्चाताप के आँसू निकल कर उसके गालों पर होते हुए जमीन पर गिर चुके थे।संजना बेटा , तुम भी .......रघु का ध्यान रखो,......तुम दोनों के अलाबा अब इसका कौन है।.....,अरे तुम अपने पिता को छोड़ कर अपने पति के घर आई हो , तो यह रघु ही तो तुम्हारा अब धर्म पिता बैसे ही है जैसे तुम्हारे अपने पिता जी हैं।जी आँटी,....मुझे आजअपने आप पर आत्मग्लानि हो रही है, आपने हमें अच्छी सीख सिखाई है ,काश यह सब मुझे मेरे माँ और डैडी जी ने यह सब सिखाया होता तो हम से यह गलती कभी भी नहीं होती, .......हम दोनों पति पत्नी अपनी परम्पराओं को भूल कर अपने क्षणिक स्वार्थ की...... खातिर भटक गए थे।संजना की आवाज भारी हो चुकी थी, उसकी आँखों से पश्चाताप के मोती नीचे जमीन पर विखरने लगे थे, उसने हम तीनों से अपनी भूल की क्षमा मांग ली,उस समय उस स्थान का वातावरण बिलकुल शाँत था।दीपा ने उस वातावरण को अपनी मधुर आवाज से और हल्का कर दिया।बेटी संजना चलो हम दोनों मिलकर किचिन में कुछ बनाते है।जी आँटी,।कहती हुई संजना किचिन की ओर दीपा के साथ चल दी।,इस तरह वह घर की कलह अब शांत हो चुकी थी।हम दोनो पति पत्नी दूसरे दिन अलीगढ़ आने को तैयार होने लगे तो दीपा का बैग छीन कर अचानक संजना, ने कहा।नहीं आँटी, आप अभी नहीं जाएंगी...... अब आप कुछ दिन और हमारे साथ रुक जाये प्लीज आण्टी , कम से कम हमे कुछ आप से सीखने को ही मिलेगा।भावी प्लीज रुक जाइये,.......आज वर्षों वाद मैं ......यह खुशी अपने इस ........छोटे से घर में महशूस...... कर रहा हूँ।रघु दीपा से गिड़गिड़ाते बोला।दीपा मेरी ओर कनखियों से देखने लगी।अब यार , जब रघु और संजना इतना कह रहे है तो कुछ दिन और यहाँ बिताओ,........आज हम रुड़की की खूवसूरती को देखने चलेंगे। और फिर इस तरह उस छोटे से परिवार में खुशियाँ पुनः वापिस आगई ।इस तरह हम दोनो रघु के घर पर दो हफ्ते रहें, हमें पता ही नहीं चला कि यह दो हफ्ते कैसे गुजर गए, घर से आये हमें अधिक समय बीत चुका था, दर असल मुझें भी अपने पौत्र पौत्री आइशा और निहाल की याद आने लगी थी, अतः हम अगले दिन संजना सानू और रघु से विदा होकर चल पड़े, उस छोटे परिवार के तीनों सदस्य हमें बस में बैठाने रोडवेज स्टेंड तक आये ।संजना जब बस चलने को हुई तो वह दीपा से लिपट कर रोने लगी, वह दीपा से वहुत प्रभावित थी ,अतः अगली बार आने का जल्दी बायदा लेकर ही मानी,।रघु भी वेहद उदास था,मैंने उसे सांत्वना दी।यार रघु तू क्यों मुहँ लटका कर खड़ा है।अरे भाई साहब अब की बार आपको और संजना सानू के साथ हमारे यहाँ जरूर जरूर आना है। दीपा ने अति शीघ्र उनको अलीगढ़ आने का निमंत्रण दे दिया।बस चलने लगी थी अतः हम दोनों ने हाथ हिला कर उस छोटे परिवार को वाय वाय बोला ।इस तरह जून की छुट्टियों का हम लोंगों ने भरपूर आनन्द लिया,।जुलाई माह के आने पर विद्यालय पुनः प्रारम्भ हो चुके थे हमारी और दीपा की बही पुरानी दिनचर्या शुरू हो चुकी थी इस तरह समय चक्र चलता गया ,और जब अगले बार जून की छुट्टियां हुई तो अगली बार रघु और उसकी पुत्र वधु,और सानू हमारे यहां अलीगढ़ घूमने आये हमारे सयुक्त परिबार को देख कर संजना और सानू वहुत खुश हुए,वह परिवार के सदस्यों के साथ घुल मिल चुके थे एक दिन हम सब परिवार के सदस्य खाना खाने डायनिंग टेबिल के पास एकित्रत हुए मेरी माँ जी से रघु वहुत प्रभावित हुआ।,वह बोला ।कुमार तुम्हारे यहाँ आकर मुझे लगा कि मैं पुनः अपनी माँ के पास आगया हूँ, ........तुम कितने बड़े सौभाग्य शाली हो जो तुम्हें माँ की सानिध्यता....... मिली है।मेरी माँ जी ने रघु को मेरे ही समान प्यार दिया ,रघु का जब भी मन होता वह माँ के कमरे में जाकर उनके पैर दबाने लगता,माँ के मना करने पर भी वह नहीं मानता, और कहता।माँ ....आज मुझे मेरी खोई हुई माँ ......मिली है, .....तो मैं यह ....अवसर व्यर्थ नहीं .......जाने दूंगा।मेरी माँ जी भी रघु को वहुत चाहती थी, संजना जब भी मेरी माँ के निकट आती तो चुप चाप बैठी रहती उसकी सारी वाचालता दूर हो चुकी थी वह हमारी पुत्रवधुओं के साथ रह कर उनका व्यबहार समझने का प्रयास करती ,सानू भी मेरे पुत्रों के साथ रह कर उन सब के अनुसार चलने की कोशिश करता इस तरह पूरे जून के माह की कब छुट्टी बीती हमें पता ही नहीं चला।संजना चूँकि रुड़की में वकालत की प्रैक्टिस करती थी अतः कोर्ट कि छुट्टियाँ बीत चुकी थी अतः उन लोगों को वापिस जाना भी था अतः मैंने उनको रुड़की जाने के लिए मसूदावाद बस स्टेण्ड पर उस ओर जाने बाली वस में बैठाया और रघु को एवं उसके परिवार को भारी मन से विदा किया,।रघु जाते जाते बहुत भाबुक हो रहा था,मैंने उसे समझाया।,यार जब भी तुम्हारा मन चाहें तब आ जाया करो।बस चल चुकी थी वह वार वार हाथ हिला रहा था, ।मुझे लग रहा था कि मेरा कुछ रघु के साथ साथ चला गया है इस तरह समय बीतता चला गया और हम अपने विद्यालय के कार्य में संलग्न हो चुके थे।समय का खामोश चक्र वेआवाज गुजर ता गया पता नहीं कितने दिन और गुजर चुके थे ।कि फिर एक रात............ अचानक मैंने रघु को रात स्वप्न में वहुत दुखी देखा ।उस रात में मै पुन: सो ना सका ,सुवह होते ही मैंने माँ को रात्रि के स्वप्न की बात कही।मेरी माँ जी ने मुझे सजेशन दिया ।तुम अकेले एक दो दिन को रघु के घर हो आओ,....... हो सकता है उसे कोई .......परेशानी हो।अता मैं अगले दिन अकेला ही रघु से मिलने रुडकी चल दिया,।जब मैं उसके घर पर पहुँचा तो दंग रह गया घर पर ताला लगा हुआ था और एक बोर्ड पर लिखा था" मकान बिकाऊ है"।मैंने सोचा शायद रघु और उसके बच्चे कहीं घूमने गए होंगे, अतः मैं उस पार्क में बैठ कर कुछ समय के लिए प्रतीक्षा करने लगा , किन्तु सुवह का आया आया मुझे अब साँझ के छह बज चुके थे,किन्तु न हीं वहाँ रघु आया और न हीं सानू संजना वहाँ आते मुझें दिखाई दिए ।अब मेरा धैर्य मुझें जबाब दे चुका था,....जरूर कोई कारण है... दिल मे अनेक भाव ....जागृत हो चुके थे।अतः मन की शंका को निर्मूल ....सावित करने हेतु... मैंने रघु के पड़ोसी से पूँछना उचित समझा।इसलिये मैने उसके पड़ोसियों के पास जाकर पूंछा तो ज्ञात हुआ, ।रघु ने यह मकान अब छोड़ दिया था, उसके बहू बेटे ने उसे घर से निकाल कर ओल्डएज होम में जबरदस्ती संजना के माँ और डैडी के कहने पर उसे भर्ती करा दिया था।वहाँ उसका स्वास्थ्य और भी खराब हो गया , और रघु उस सदमें को वह बर्दास्त नहीं कर सका वह विक्षिप्त स्तिथि में चला गया है, अब उसका पुत्र और पुत्र-वधू इस कोठी को बेचना चाहते है, अब तक कई ग्राहक इस कोठी को देखने आ चुके है।मुझे सुन कर बड़ा दुख हुआ।,जिस बेटे को रघु ने बड़े अरमानों से पाला था आज वही बेटे ने उसे ओल्ड एज होम में छोड़ने में उसे बिल्कुल भी लज्जा नहीं आई।" वाह ! बेटा वाह ! " क्या सिला दिया है तूने अपने पिता को।सोचते सोचते मेरे नेत्रों में बेबसी के ऑंसू उमड़ आये, मन में क्रोध की ज्वाला धधक उठी अतः मैंने उसी पड़ोसी से पूंछा इस समय रघु कहा है।जी वह आगरा मेंटलहॉस्पीटल में भर्ती है जहाँ पर उन्हें बिजली के शाक दिए जाते है।मेरे दिल मे एक दर्द की लकीर खिंचती चली गई, मन वितृष्णा से भर उठा।अब मेरा लक्ष्य केबल आगरा जाना ही था ,अतः विना बिलम्ब के मैं आगरा के लिए रबाना हो चुका था ।और अगले कुछ घण्टों में मैं अपनी मंजिल पर पहुँच कर मेंटल हॉस्पीटल के मुख्य चिकित्साधिकारी से मिल कर मैं एक डॉक्टर के साथ रघु की उस बेरिक नुमा कमरे के सामने अन्य लोगों की भीड़ में उसे तलाश ने लगा था।लगभग दस मिनट बीत चुके थे मुझे किन्तु रघु मुझे वहाँ कहीं नहीं दिखा ।मैं निराश होकर डॉक्टर से अन्य स्थान पर ढूंढने की कहने ही बाला था कि, मेरी नजर एक कोने में गई जहाँ सिमट सिकुड़कर बैठे एक कोने में रघु की तरह दिखने बाले एक वृद्ध ब्यक्ति पर पड़ी, पल भर को मेरे पैरों तले की ज़मीन मुझे खिसकती सी नजर आई ।है भगवान ! तो यह है रघु।मैं अपनी जिज्ञासा शांत करने के लिए,बैरिक नुमा कमरे की दूसरी तऱफ से उस ओर रघु के पास पहुँचा।और हाँ ,वह रघु ही था जो चुप चाप शून्य में मुझे देखकर आश्चरिये से भरा मुझे लगातार घूर रहा था।मैंने अपने बैग से केला निकाल कर डॉक्टर की अनुमति से उसकी ओर वडाया। लो भाई ।वह मुझे अविश्वास भरी दृष्टि से आँखें फाड़ कर देख रहा था।लो मेरे दोस्त ,मैं आगया हूँ , अब तुम्हें कोई तक़लीफ़ नहीं होगी।मैंने उसकी ओर केले बढ़ाये, किन्तु रघु पूर्व की तरह डरा सहमा हुआ मुझे निरन्तर टकटकी बाँधें देखता रहा था।डॉक्टर साहब , यह बोलता क्यों नहीं ? क्या हो गया है इसे? ।मैने एक स्वास में ढेर सारे प्रश्न साथ आये डाक्टर से कर डाले थे।देखिए भाईसाहब यह मिस्टर रघु ,केबल दिमागी आघात से इनकी स्तिथि इस समय ऐसी है,इन्हें इलाज की नहीं बल्कि अपनो की सहानुभूति की अति आवश्यकता है।जी डॉक्टर साहब, प्लीज बताइए क्या इन्हें मै अपने साथ ले जा सकता हूँ।देखिये मिस्टर ,अगर रघु आपको पहिचान ले तो हमे कोई एतराज नही,... किन्तु अगर वह आपको नहीं पहिचान पाये तो हम मजबूर है।थेँक्यु सर।कहता हुआ मैं रघु की ओर बड़ा।रघु मेरे यार यह सब कैसे हो गया।मेरी आबाज लरज रही थी, और आँखों से स्वतः ही आंसू वह निकले रघु दूर कहीं दूर खो सा गया था वह लगातार मुझे टकटकी बाँधे देख रहा था किंतु कुछ बोल नही रहा था।हाँ रघु अपने मित्र को पहिचानने की कोशिश करो।अचानक डॉक्टर ने उसका हौशला बढ़ाया।रघु, ऐसा लग रहा था मानों वह अपने चेतना को इकट्ठा करने की कोशिश कर रहा हो।लो यह केले मैं तुम्हारे लिए लाया हूँ, दोस्त।मैंने रघु को केले देने का प्रयास किया।इस बार रघु ने मेरे हाथ से केले ले लिए, वह कुछ अस्पस्ट भाषा में बुदबुदाया,मैं उन शब्दों का अर्थ नहीं समझ सका। वह मेरी ओर अब लगातार देख रहा था।रघु क्या देख रहे हो।मैंने उसका हाथ पकड़ कर कहा।आ .. प ...आ...प ।वह अस्फुट शब्दों में बोला।रघु मैं तुम्हारा दोस्त कुमार हुँ।मैं...ने आ...प... को... कहीं ....देखा ....है।रघु मस्तिष्क पर जोर डालता बोला।वेरी गुड़, रघु तुम पहचान ने की कोशिश करो।डॉक्टर बोला।रघु कुछ देर देखता रहा और फिर कुछ सोच कर धीमे स्वर में बोला।आ...प... कु ...मा.....र ।वह कहते कहते जोर जोर से हांफने लगा।मैंने डॉक्टर से पूंछा।डॉक्टर साहब यह हाँफ क्यों रहा है क्या हो गया है इसे।डोन्ट बरी, मिस्टर कुमार,वह अपने दिमांग को जाग्रत करना चाहता है,यह उसका प्रयास अद्वतीय है।जी सर धन्यवाद आपको। डॉक्टर की बात सुन मुझे बेहद प्रसन्नता हुई।मैं भगवान से मन ही मन प्रार्थना करने लगा कि हे प्रभु मेरा मित्र रघु अतिशीघ्र स्वास्थ हो जाये। मैं मन के विचारों में घिरा पता नहीं कब तक विचारों में खोया रहता कि मझें रघु ने झिझोड़ कर कहा,कुमार मुझे आशा नहीं थी कि अब तुम मुझे पुनः मिल पाओगे।आ..........आआआआआ।मैं चौंक कर रघु को देखने लगा,वह मुझसे लिपट कर रो रहा था ।, उसकी आँखों से निकल ने बाले आंसुओं ने मुझे भी मोम वना दिया उसकी दर्दभरी कहानी और एसी दशा देख,सुनकर मैं अपने आँसुओं को बहने से रोक न सका।चल कुमार मुझे, अब यहाँ से ले चल ,वरना मैं जरूर पागल हो जाऊँगा। मैंने डॉक्टर साहब से अनुरोध किया और कुछ कागजी कार्यवाही पूरी कर रघु के कहने पर उसे मेरे साथ सुपुर्द कर दिया गया,।और हम दोंनों अति शीघ्र आगरा से अलीगढ़ उसी रात घर वापिस आ गए, ।मेरे घर के सदस्यों के बीच आकर कुछ ही दिनों में वह नॉर्मल होकर सभी के साथ हंसी खुशी से रहने लगा, मैंने उसके पुत्र और पुत्रवधू के कुकर्मो की बात घर के किसी भी सदस्य को नहीं कही थी, ।एक दिन रघु सुवह से बिना कुछ कहे गायब हो गया, जब मैं विद्यालय से घर आया तो मैंने माँ जी से रघु के बारे में पूछा।माँ रघु नहीं दिख रहा है।माँ जी ने उसके बारे में अनभिज्ञता जाहिर की, उस दिन घर के सभी लोग चिंतित हो कर रघु के बारे में बैठे सोचते रहे थे,।मेरी समझ मैं भी कुछ नही आ रहा था,की कैसे ढूंढू मैं अपने दोस्त को , इसी उधेड़ बुन में लगा था कि रघु घर में वापिस रात्रि के नौ बजे लौट आया,।घर में पुनःएक बार खुशी लौट आई थी, मुझे रघु के बिना बताए चले जाने पर वेहद गुस्सा आ रहा था, पर मैं चुप चाप डायनिंग टेबिल पर खाने पर शामिल हुआ, माँजी, रघु ,मेरे सभी बेटे खाना खा रहे थे,अतः मैं उनका साथ दे रहा था,तभी मां ने मुझे टोका ।कुमार बेटा खाना खाओ तुम ने सुवह से कुछ नहीं खाया है।रघु बोला।क्या बात है कुमार भाई।कुछ नहीं ।तो खाना खाओ। अच्छा नहीं लग रहा।क्यो वजह क्या है।कुछ नही।मैने संक्षिप्त उत्तर दिया।भाई साहब ,आपकी वजह से आपके मित्र वहुत दुखी थे वह आपको लेकर वहुत चिंतित थे।दीपा एक सांस में बोलती गई।ओह सो सॉरी कुमार ,मुझे माफ़ कर दे...,यार तेरे अलाबा मेरा इस दुनियां में अब कोई नहीं है।रघु अपने कान पकड़ कर बोला।रघु के इस तरह कहने पर मुझें थोड़ी शान्ति हुई।इस तरह इस घटना को बीते दो माह बीत चुके थे।समय धीरे धीरेगुजर ने लगा था कि अचानक एक रविबार बाले दिन मेरे घर के सामने एक पुलिस की जीप आकर अकस्मात रुकी, और अगले पल उसमे से एक इंस्पेक्टर दो कॉन्स्टेबिल धड़धड़ाते हुए उतरे।क्या आप ही मिस्टर कुमार हैं।आते ही उन्होंने मुझ से प्रश्न किया।उस समय मैं और रघु हम दोनों बैडमिंटन खेल रहे थे।मैंने इंस्पेक्टर पर सरसरी दृष्टि डाली।जी साहब कहिये ।हमें आपके खिलाप एक कम्प्लेंट मिली है।जी सर , क्या मैं जान सकता हूँ कि मेरे खिलाफ़ क्या कम्प्लेंट है, और किसने की है।जी हां, आप के खिलाफ रघु के पुत्र और पुत्रवधु ने कम्प्लेंट लिखबाई है कि आप ने उनके पागल पिता को अपने साथ जबरदस्ती रख लिया है और उसकी सारी चल अचल संपत्ति को बहला फुसला कर अपने नाम वशीयत करा ली है।मैं अपने खिलाफ लगे आरोप से सन्न रह गया जिसका मुझे स्वप्न में भी कोई जानकारी नहीं थी।इंस्पेक्टर साहब क्या मैं पागल दिखता हूँ। जी नहीं पर आप है कौन ?।मैं, वही दुर्भाग्यशाली पिता हूँ जिस की सन्तान ने मेरे देवता जैसे मित्र पर अपनी गन्दी सोच का कीचड़ उछाला है।ओह सॉरी, आप मिस्टर रघु है , प्लीज आप अपना बयान हमे दर्ज कराइये।आइए सर। मैने इंस्पेक्टर से ड्राइंगरूम की ओर संकेत करते हुए कहा।विस्तृत जान कारी लेने के बाद उन्होंने उस ब्यान पर रघु और मेरे हस्ताक्षर कराए और वह अपने दलबल के साथ बापिस चल पड़े,।इस तरह मुझे रघु के एकाएक गायब होने का राज मालूम होचुका था,।मैने रघु को समझाने की वहुत कौशिश की किन्तु वह अपनी जिद पर अड़ा रहा ,वह बार बार कहता।"मेरा कोई नही है "ना कोई वहू और न कोई बेटा है, मैं उन दोनों को मर चुका हूँ और वह मेरे लिये।लेकिन भाई मुझे तो तू यार बख्श दे।मैने उसे वहुत समझाते हुए कहा पर वह बार बार कहता।जो बिपत्तियों में साथ देता है वही मेरा अपना, अपना है।ठीक है पर तुम मेरी एक बात मान लो।क्या? ।वह मेरी ओर देख कर बोला।यही कि तुम अपनी चल अचल संपत्ति को मेरे नाम से ट्रांसफर कर उसे अपने बेटे के नाम करदो।नहीं कुमार ,मैं यह कभी भी नहीं भूल पाऊँगा कि मेरे अपने खूँन ने मुझे ओल्ड एज होम में भेजने और पागल करार देकर पागलखाने में भेजने के साथ ही मेरी सारी सम्पत्ति को बेचने का षड्यंत्र रचना यह किसकी दिमांग की उपज है?...तुम्हें नहीं पता।वह क्रोधावेश में उच्च स्वर में चिल्लाते हुए बोला।" ठीक है यार पर मैं और मेरा जमीर तेरे इस कृत्य, को स्वीकार नहीं कर रहा है,और न हीं मै इस संपत्ति का आकांक्षी हूँ ।"मैने उसे निर्लिप्त भाव से देखा।अगर तू इसे स्वीकार नहीं करेगा तो भी मै उन दोनों को कभी भी उस समपत्ती को उन को नहीं दूंगा, मैं ऐसे औलाद को सबक सिखाने हेतु अपने जीते जी उसे सरकारी संपत्ति घोषित करा दूँगा।मैं जानता था रघु जिद्दी था, उस पर मेरी किसी बात को मानने का कोई असर नहीं हुआ ।और अगली अदालती कार्यवाही पर उसने अपनी सारी चल अचल संपत्ति को स्वेच्छा से सरकारी खजाने में जमा करने की अर्जी देदी।अंत मे सानू संजना को मुहँ की खानी पड़ी, रघु को पागल करार देकर उसकी सम्पत्ति को जबरदस्ती बेचने को लेकर कोर्ट ने दोनों को सजा के साथ जुर्माना भरने की सजा दी।सब कुछ खत्म होगया,सब शाँत हो गया था। मानो सब कुछ बक्त के साथ ठहर गया हो।मैं और मेरा मन अक्सर तन्हाइयों में एक दूसरे से सबाल करते।क्या रघु का यह कदम उचित था?नहीं ,इतनी वड़ी सजा उसे नहीं देनी चाहिए थी, अपने बच्चो को? तो मन मुझ से सबाल करता।क्या उन दोनों वहू बेटों ने उसके साथ जो किया वह उचित था?क्या हो गया है हमारी अपनी संतान को, जिनमें अपने माता पिता के प्रति इतनी सिम्पैथी भी नहीं ?, क्या यही है मनी माइंड होने का दुष्परिणाम ? क्या हमारी सँस्कृति को छोड़ कर विदेशी सभ्यता को अपनाने का परिणाम यही है ? ओल्ड एज होंम।क्या अब आगे भी यही होगा ?माता पिता द्वारा अपने नैतिक गुणों,को अपनी परम्परा को अपनी संतान में न देने का परिणाम ?ढ़ेर सारे ऐसे अनुत्तरित प्रश्न मेरे सन्मुख मुँहू बाए खड़े थे।,और मैं उनका समाधान ढूंढ रहा था।★★★★★★★★★ समाप्त★★★★★★★★★
(Written by H.K.Bharadawaj)