भारी मन से तृप्ति रिक्शे से उतरी, रेलवे स्टेशन सामने ही था। रिक्शे वाले को पैसे चुकाकर उसने अपना सामान उठाया और स्टेशन की और चल पड़ी। अभी वो दस कदम भी नहीं चल पायी थी की अनायास उसकी निगाहे सड़क की बायीं और एक पान की दुकान पर पड़ी। आसपास की तक़रीबन सारी दुकाने बंद थी बस यही एक पान की दुकान चालू थी। उस ने देखा वहा कुछ मनचले खड़े खड़े उसे ही घूर रहे थे। उनकी और ना देखते हुए तृप्ति ने निगाहे नीची रखकर पहले साड़ी के पल्लू को व्यवस्थित किया फिर तुरंत सामान उठाकर बगैर उनकी और देखे तेज़ कदमो से प्लेटफॉर्म की और बढ़ी। उनके पास से गुजरते वक़्त तृप्ति ने उनकी कुछ खुसुर-पुसुर सुनी, मगर वो आवाज़ इतनी धीमी थी की वो ढंग से सुन नहीं पायी, मगर इतना जरूर वो समझ गई थी की वो मनचले उसी को लेकर बाते कर रहे थे। " नालायक ... लोफर कही के ....जहा कही खूबसूरत लड़की देखी नहीं की लगे घूरने ... हर समय दिमाग पर एक यही खुमारी चढ़ी रहती है ... ये मर्द जात ना .. " धीमी आवाज़ में बड़बड़ाती तृप्ति जल्दी से प्लेटफार्म की सीढ़िया चढ़ने लगी।
इन्क्वॉयरी काउन्टर पर पहुंची तो पता चला की उसकी ट्रेन तीन घण्टे लेट चल रही है। उसने घडी की तरफ देखा तो उसका गुस्सा और बढ़ गया, रात के ग्यारह बज रहे थे। एक तो वो ट्रेन के छूटने के आधे घण्टे पहले पहुंच गई थी और ऊपर से ट्रेन तीन घण्टे देरी से चल रही थी। पहले ही दिल भारी भारी सा हो रहा था उसका, ऊपर से साढ़े तीन घण्टे का और इंतज़ार करना था। दिमाग में एक विचार आया की " काश ... रोहित साथ होता उसके, .... तो वो घर से चलने से पहले ही पता कर लेता की ट्रेन देरी से चल रही है "
अपने ही विचार से खीझ गई तृप्ति ... उसीसे तो लड़कर मायके जाने निकली है वो। पति से झगड़ा हुआ था उसका .. .बात ज्यादा बड़ी तो नहीं थी मगर बहस में झगड़ा इतना बढ़ गया की वो तमतमाते हुए अपना सामान समेट कर पड़ोस में चाबी देकर घर से निकल पड़ी। किसीने उसे रोका नहीं क्योकि रोहित के साथ वो अकेले रहती थी। उसे लगता था की साँस उनकी लाइफ में दखलंदाजी कर रही है, तो उसने रोहित पर प्रेशर डाल कर अलग रहने का जुगाड़ कर लिया था। रोहित अक्सर उसके साथ कहासुनी हो जाने पर या कभी उसका मन भारी होता तो घर से दो किलोमीटर दूर के एक पार्क में चला जाता .. फिर कोई एकाधे घण्टे बाद जब मन थोड़ा शांत हो जाता तो घर लौट आता. आज भी बात बिगड़ती देख कर वो पाव पटकते हुए नाराज़ होकर चला गया था। मगर तृप्ति गुस्से में इतनी तमतमाई हुई थी बगैर उसके लौटने का इंतज़ार किये सामान समेट कर मायके जाने निकल पड़ी।
तृप्ति ने नज़रे घुमाकर प्लेटफॉर्म का निरिक्षण किया तो पाया की स्टेशन पर कुल-जमा आधा दर्जन लोग भी नहीं थे। छोटा सा तो स्टेशन था और फिर लगभग आधी रात का समय होने आया था। उसने दाये-बाये देखा तो थोड़ी दुरी पर एक खाली बैंच नज़र आ गई उसे, हालांकि वहा थोड़ा अँधेरा सा था। चलो थोड़ा एकांत मिलेगा ये सोचकर वो सामान ले कर उस बेन्च पर जा बैठी। तृप्ति अपने मन को रिलेक्स करने की कोशिश करने लगी। अब यहाँ साढ़े तीन घण्टे बैठकर इंतज़ार करना था और कोई दूसरा रास्ता भी तो नहीं था।
सुबह का घटनाक्रम उसके विचारो में तैर गया। छुट्टी का दिन होने की वजह से आज सुबह वो लेट सोकर उठी थी, रोहित उसके उठने के पहले ही तैयार हो कर मॉर्निंग वाक पर चला गया था। घडी को देखकर वो झल्ला उठी कामवाली बाई को आने में ज्यादा समय नहीं बचा था। उसके आने से पहले उसे नहाकर कपडे और बर्तन निकालकर रखना था। कामवाली बड़ी नकचढ़ी थी और उसे टिकाये रखना उसकी मज़बूरी थी। अगर वो वापस चली जाये तो सारा काम उसे ही करना पड़ता। आजकल ढंग की कामवाली मिलती भी कहा है ...
नहाकर मै बस निकली ही थी की डोरबैल बज उठी " आ गई महारानी .. अब थोड़ा रुकेगी भी नहीं, एकदम सर पर सवार रहेगी और हड़बड़ी मचायेगी " मन ही मन में बड़बड़ाती हुई मैंने दरवाज़ा खोला तो देखा सामने रोहित खड़ा था। आज मॉर्निंग वॉक शायद जल्दी ख़त्म कर जल्दी घर आ गए थे। मुझे देखते ही उनकी आँखों में एक शरारती चमक आ गई और उन्होंने मुझे वही थाम लिया। कसमसाकर उनकी पकड़ से छूटते हुए मै उन पर बरस पड़ी .. " क्या करते हो यार .. ना जगह देखते हो ना समय, हर समय बस यही सूझता है क्या .. कभी वक़्त और हालात तो देखा करो .. अभी कामवाली बाई आ जाएगी उसके लिए कपडे - बर्तन तैयार करने है .. हटो .. छोड़ो मुझे .. “ रूखे अंदाज़ में बड़बड़ाते हुए मैंने खुद को छुड़ाया और काम में लग गई ...मेरा रिस्पॉन्स देखकर शायद वो हर्ट हो गए थे। वो कुछ बोले बगैर दूसरे कमरे में चले गए .. मै करती भी तो क्या ... इनकी हर समय चिपकने की आदत मुझे बड़ी खटकती थी। सुबह-शाम, दिन-रात कुछ नहीं देखते बस हर समय यही एक खुमारी दिमाग में रहती उनके। ऐसा नहीं था की मुझे ये सब अच्छा नहीं लगता था, बस शिकायत यही थी की जब मौका मिला तब दबोच लिया ..
" चाय चाहिए मेमसाब ... " एक बच्चे की आवाज़ तृप्ति के कानो में पड़ी तो उसकी विचारश्रृंखला टूटी। उसने देखा एक छोटा बच्चा चाय बेच रहा था ... चाय की जरुरत तो थी उसको ... सोच-सोचकर सर दुखने लगा था। चाय का पहला घुट पी कर जैसे ही उसने आस पास नज़रे घुमाई तो देखा की सामने की तरफ थोड़ी दुरी पर उन्ही तीन लफंगे लड़को में से दो बैठे उसे ही निहार रहे थे, और तीसरा न जाने कहा गायब था। दोनों की आँखों में एक चमक सी थी और होठो पर मक्कारी भरी मुस्कान ... अनायास तृप्ति का हाथ अपने सीने पर पंहुचा और वो आँचल ठीक करने लगी। पहली बार तृप्ति थोड़ी विचलित दिखने लगी थी। आधी रात का समय हुआ पड़ा था और प्लेटफार्म पर भी लगभग सन्नाटा पसरा हुआ था। घडी में समय देखा तो पता चला की अभी तो बारह भी नहीं बजे थे।
शेष अगले अंक मे .........