दादी की डायरी का वह पन्ना अनन्या के मन में एक रहस्यमय नक्शे की तरह उभर रहा था। उस पर लिखा पता—"श्रीमती शिवानी, 'साहित्य सदन', इलाहाबाद"—अब केवल शब्द नहीं, बल्कि एक सोई हुई सच्चाई को उजागर करने की चाबी था।
अगले दिन, अनन्या ने छुट्टियाँ लीं और एक्सप्रेस ट्रेन से इलाहाबाद, अब प्रयागराज, के लिए रवाना हो गई। ट्रेन की खिड़की से बदलता परिदृश्य उसकी उथल-पुथल भरी मन:स्थिति का दर्पण था। क्या 'साहित्य सदन' वाकई कहीं बस्ता होगा? क्या कोई शिवानी जी को याद भी करता होगा? अनिश्चितता और उत्साह का मिश्रण उसके मन को मथ रहा था।
इलाहाबाद उतरते ही गर्म हवा और ऐतिहासिक गंध ने उसे घेर लिया। एक ऑटोरिक्शा चालक से 'साहित्य सदन' पूछने पर उसने सिर खुजलाया। "दीदी, कोई पुराना प्रकाशन होगा, शायद बंद हो गया।" आधुनिक खोज उपकरण भी बेकार साबित हुए। निराशा हावी होने लगी, पर एक बुजुर्ग चायवाले ने एक पुराने मोहल्ले की ओर इशारा किया। "वहाँ जाओ, कोई बुजुर्ग जरूर जानता होगा।"
वहाँ की संकरी गलियाँ और जर्जर औपनिवेशिक इमारतें समय की धूसर परतों में लिपटी थीं। कई दरवाजों पर दस्तक दी, पर कोई जवाब नहीं मिला। तभी उसकी नजर एक छोटी, धूल भरी गली में एक दुकान पर पड़ी—"लाला पुस्तकालय: पुरानी किताबों का स्वर्ग"।
दुकान में किताबों की सौंधी खुशबू इतिहास बयान कर रही थी। काउंटर पर एक उम्रदराज व्यक्ति, शायद सत्तर पार, चश्मा लगाए किताब की मरम्मत कर रहा था। अनन्या ने परिचय देकर 'साहित्य सदन' और शिवानी जी का जिक्र किया।
पंडित जी, जैसा उन्होंने अपना नाम बताया, ने चश्मा साफ किया और गहरी साँस ली। "शिवानी जी? कितना पुराना नाम ले आई, बेटी। 'साहित्य सदन' तो दशकों पहले बंद हो गया। मालिक का बेटा विदेश चला गया।"
अनन्या का दिल बैठ गया। क्या यह यात्रा व्यर्थ थी?
"पर शिवानी जी," पंडित जी ने रुककर कहा, "वह यहाँ अक्सर आती थीं। उनकी एक शिष्या थी—सुभद्रा। तेज-तर्रार। सुना है, वह दिल्ली में एक निजी पुस्तकालय चलाती है।" यह एक नई किरण थी।
पंडित जी ने 'चंद्रकांता' का जिक्र सुना तो उनकी आँखें चमकीं। "हाँ, शिवानी जी उस उपन्यास को अपने दिल से लिख रही थीं। पर प्रकाशकों ने इसे 'विवादास्पद' कहकर ठुकरा दिया। फिर वह गायब हो गया।"
अनन्या ने डायरी दिखाई। आधे घंटे की खोज के बाद, एक जर्जर रजिस्टर में सुभद्रा का नंबर मिला। अनन्या ने तुरंत दूरभाष किया। एक स्त्री की आवाज आई, "हैलो?"
अनन्या ने हड़बड़ाते हुए शिवानी जी और 'चंद्रकांता' का जिक्र किया। दूसरी ओर सन्नाटा छा गया। फिर सुभद्रा ने काँपती आवाज में कहा, "तुम्हें उस उपन्यास का कैसे पता? वह एक अधूरा सपना था।"
सुभद्रा ने बताया कि प्रकाशकों ने 'चंद्रकांता' को 'जोखिम भरा' मानकर अस्वीकार कर दिया था। निराश शिवानी जी ने पांडुलिपि एक डायरी में छिपा दी थी। "शायद तुम्हारी दादी को सौंपी हो," सुभद्रा ने रहस्यमय स्वर में कहा।
अनन्या की साँसें रुक गईं। क्या दादी की डायरी में वह पांडुलिपि थी?
सुभद्रा ने कहा, "अगर वह मिल जाए, तो हम शिवानी जी का सपना पूरा कर सकते हैं।"
दूरभाष कटते ही, अनन्या घर लौटने को बेताब हो उठी। उसकी खोज अब एक साहित्यिक अभियान बन चुकी थी। इलाहाबाद की धूल भरी गलियाँ उसे एक नए रहस्य की ओर खींच रही थीं।