लोकोपायलट यानी रेलगाड़ी का चालक। बाहर से देखने पर लगता है कि बस इंजन चलाना ही उसका काम है, लेकिन हकीकत में यह सफ़र बहुत कठिनाइयों, ज़िम्मेदारियों और त्याग से भरा होता है।
सुबह से रात और रात से सुबह तक, लोकोपायलट की ड्यूटी तय समय पर नहीं होती। कभी आधी रात को सायरन बजता है कि फलाँ गाड़ी चलानी है, तो कभी भोर में आँख खुलते ही स्टेशन पहुँचना पड़ता है। उनके लिए रविवार या त्योहार का मतलब वही होता है जो आम दिन का होता है—क्योंकि ट्रेनें कभी रुकती नहीं।
लोकोपायलट के सफ़र में सबसे बड़ी चुनौती होती है यात्रियों की जान की ज़िम्मेदारी। एक पल की चूक, एक छोटी सी लापरवाही, सैकड़ों ज़िंदगियों को खतरे में डाल सकती है। भारी इंजन, लंबी पटरियाँ और बदलते सिग्नल—इन सबको देखकर सही फैसले लेना आसान नहीं होता।
उनके जीवन का दूसरा पहलू है—अकेलापन। इंजन की आवाज़, तेज़ सीटी और सामने फैली पटरी ही उनका साथी होती है। परिवार से दूर रहना, बच्चों की मुस्कान और अपनों के साथ समय बिताने का सुख—ये सब अक्सर छूट जाता है।
लेकिन फिर भी, जब ट्रेन गंतव्य पर सुरक्षित पहुँचती है और यात्री अपने घरों तक सकुशल लौटते हैं, तो वही लोकोपायलट की असली जीत होती है। यही संतोष उनके सफ़र को अर्थ देता है।
लोकोपायलट का सफ़र हमें यह सिखाता है कि असली नायक वे होते हैं, जिनकी मेहनत पर हम सबका जीवन रोज़ चलता है, और जिनके त्याग को हम अक्सर अनदेखा कर देते हैं।
संघर्ष से सफलता तक
अरविंद बचपन से ही ट्रेनों का दीवाना था। गाँव के पास का छोटा सा स्टेशन ही उसकी दुनिया थी। जब भी इंजन सीटी बजाकर निकलता, उसका दिल धड़क उठता। यही जुनून उसे रेलवे की परीक्षा तक ले आया।
📖 तैयारी और चयन
दिन-रात पढ़ाई, किताबों से जंग और असफलताओं से दो-दो हाथ करने के बाद, अरविंद ने रेलवे की परीक्षा पास की। चयन पत्र हाथ में आते ही उसकी आँखों में सपनों की चमक थी। लेकिन असली सफ़र अब शुरू होना था—ट्रेनिंग का सफ़र।
🎓 ट्रेनिंग की यारी
ट्रेनिंग सेंटर में देशभर से आए युवाओं का जमावड़ा था। सबके सपने एक जैसे थे—इंजन पर बैठकर सैकड़ों यात्रियों को सुरक्षित मंज़िल तक पहुँचाना।
पहले ही दिन अरविंद की मुलाक़ात राजेश और इमरान से हुई। तीनों जल्दी ही दोस्त बन गए। रात देर तक हॉस्टल में बैठकर वो किताबों के पन्ने पलटते, इंजन की मैकेनिकल डाइग्राम्स समझते और कभी-कभी मज़ाक में कहते—
“यार, जब पहली बार इंजन हाथ में आएगा ना, तो धड़कनें पटरी की तरह लंबी-लंबी हो जाएँगी।”
ट्रेनिंग आसान नहीं थी। सुबह-सुबह क्लासरूम में सिग्नल सिस्टम, ब्रेकिंग तकनीक, ट्रैक मैकेनिक्स पर लेक्चर होते। दोपहर में लोको-सिम्युलेटर पर अभ्यास। रात में लंबी प्रैक्टिस शीट भरना।
थकान बहुत होती, लेकिन अरविंद की आँखों में चमक हमेशा बनी रहती।
एक दिन प्रशिक्षक ने कहा—
“लोकोपायलट होना मतलब है, हर सेकंड चौकस रहना। नींद, भूख, थकान सब पीछे छोड़ना। याद रखना, इंजन सिर्फ मशीन नहीं है, उसमें सैकड़ों जिंदगियाँ बैठी होती हैं।”
ये शब्द अरविंद के दिल पर हमेशा के लिए अंकित हो गए।
🏢 पहली पोस्टिंग
ट्रेनिंग पूरी हुई और अरविंद को पहली पोस्टिंग मिली—झारखंड के एक बड़े जंक्शन पर। स्टेशन पर जब वह रिपोर्टिंग के लिए पहुँचा तो उसकी आँखें चमक उठीं। चारों तरफ गाड़ियों की आवाज़ें, पटरियों की गड़गड़ाहट, और इंजन की सीटी—सब कुछ उसे सपने जैसा लग रहा था।
लेकिन उसके साथ ज़िम्मेदारी भी थी। अब वह सिर्फ़ छात्र नहीं, बल्कि यात्रियों की सुरक्षा का असली रखवाला था।
पहली मालगाड़ी
ट्रेनिंग पूरी होने के बाद अरविंद को पहली पोस्टिंग मिली। उसके दिल में हमेशा यही था कि पहली बार जब वह इंजन पकड़ेगा, तो शायद कोई पैसेंजर ट्रेन होगी जिसमें सैकड़ों यात्री बैठे होंगे। लेकिन जब आदेश मिला तो लिखा था—
“ड्यूटी – मालगाड़ी”
शुरुआत में उसे थोड़ी निराशा हुई। उसने सोचा—“यात्रियों की मुस्कान देखने का मौका कब मिलेगा? मालगाड़ी तो बस कोयला, लोहा और सामान ले जाती है।”
लेकिन तुरंत उसके प्रशिक्षक की आवाज़ कानों में गूँज उठी—
“बेटा, रेल का असली दम मालगाड़ियों में है। देश की अर्थव्यवस्था इन्हीं से चलती है। और याद रखना, जो मालगाड़ी संभाल सकता है, वही पैसेंजर ट्रेन का हकदार होता है।”
🚉 पहली ड्यूटी की तैयारी
शाम का समय था। प्लेटफॉर्म पर लंबी मालगाड़ी खड़ी थी, जिसमें कई डिब्बे कोयले से भरे थे। इंजन विशाल और भारी था।
अरविंद ने पहली बार उस इंजन की सीढ़ी पर चढ़ते हुए मन ही मन भगवान को प्रणाम किया। सहायक लोकोपायलट भी उसके साथ था।
स्टेशन मास्टर ने झंडी हिलाई और सीटी बजी। अरविंद ने धीरे-धीरे कंट्रोल को खींचा। इंजन गरजने लगा, और पूरी ट्रेन झटके के साथ आगे बढ़ी। उसके दिल की धड़कनें ट्रेन की खटखटाहट के साथ ताल मिला रही थीं।
🌌रात का सफ़र
रात गहरी थी, चारों ओर सिर्फ़ अंधेरा और इंजन की आवाज़। पैसेंजर ट्रेन की तरह शोर-गुल नहीं, बस मशीनों का संगीत।
लेकिन मालगाड़ी चलाना आसान नहीं था। डिब्बों का भार बहुत ज़्यादा था। हर मोड़ पर, हर ढलान पर उसे संभालकर गति नियंत्रित करनी पड़ रही थी।
सहायक ने कहा—
“पहली बार है, थोड़ा डरना स्वाभाविक है। लेकिन अगर इस दानव को काबू कर लिया तो समझो तुम असली लोकोपायलट हो।”
अरविंद के हाथ थोड़े काँप रहे थे, लेकिन नज़रें सिग्नल से हट नहीं रही थीं।
🏁 मंज़िल की जीत
कई घंटों बाद जब ट्रेन अपने डेस्टिनेशन यार्ड पर पहुँची तो अरविंद ने गहरी सांस ली।
सहायक ने मुस्कुराकर कहा—
“मुबारक हो, तुम्हारी पहली गाड़ी पूरी हुई। मालगाड़ी संभालना कोई बच्चों का खेल नहीं है।”
उस पल अरविंद के चेहरे पर चमक थी। उसने सोचा—
“आज मैंने अपनी असली परीक्षा पास कर ली है। अगर मालगाड़ी जैसे बोझिल राक्षस को संभाल लिया है, तो आने वाले सफ़र में कोई डर नहीं।”