प्रकाशक की सहमति मिलने के बाद का समय अनन्या के लिए एक सपने जैसा था। 'चंद्रकांता' की पांडुलिपि को छपने के लिए तैयार करने की प्रक्रिया शुरू हुई। हस्तलिखित पन्नों को टाइप करना, संपादन करना, और आवरण डिजाइन करना - हर चरण एक नया रोमांच लेकर आया।
एक दिन, संपादन के दौरान अनन्या को उपन्यास का एक प्रमुख अंश मिला, जहाँ चंद्रकांता कहती है - "मैं वह नहीं बन सकती, जो दुनिया मुझे बनाना चाहती है। मैं वह बनूंगी, जो मैं हूँ। चाहे इसकी कीमत अकेलापन ही क्यों न हो।" इन पंक्तियों को पढ़कर अनन्या की आँखें नम हो गईं। उसे लगा जैसे शिवानी जी ने दशकों पहले ही उसके और आज की हर युवती के मन की बात लिख दी थी।
आखिरकार, वह दिन आ गया जब 'चंद्रकांता' का पहला प्रिंटेड कॉपी उसके हाथों में थी। किताब के आवरण पर एक पुरानी डायरी और एक आधुनिक युवती की झलक थी, जो एक दूसरे से जुड़े हुए थे। अनन्या ने उसे गौर से देखा, अपनी दादी और शिवानी जी को याद किया। यह सिर्फ एक किताब नहीं, बल्कि तीन पीढ़ियों का सपना था।
लेकिन सफलता के साथ ही चुनौतियाँ भी आईं। किताब के प्रकाशित होते ही कुछ रूढ़िवादी समूहों ने इसकी आलोचना शुरू कर दी। एक अखबार में एक लेख छपा - "क्या 'चंद्रकांता' हमारे संस्कारों को भूलने पर मजबूर कर रही है?" सोशल मीडिया पर भी विवाद शुरू हो गया।
अनन्या घबरा गई। क्या शिवानी जी की आशंकाएं सच साबित हो रही थीं? तभी उसे सुभद्रा का फोन आया, "अनन्या, डरो मत। जो सच बोलता है, उसकी आवाज़ पर पत्थर फेंके जाते हैं। तुम्हारे साथ हर वह पाठक है जो सच्चाई पसंद करता है।"
और सचमुच, कुछ ही दिनों में स्थिति बदलने लगी। युवा पाठक, खासकर युवतियों, ने किताब को पसंद किया। उन्होंने सोशल मीडिया पर #मैं_भी_चंद्रकांता हशटैग चलाया। एक युवती ने लिखा - "इस किताब ने मुझे अपने सपनों के लिए लड़ना सिखाया।" एक अन्य ने कहा - "शिवानी जी ने आज के लिए ही तो यह किताब लिखी थी।"
धीरे-धीरे किताब ने लोकप्रियता पकड़नी शुरू की। साहित्यिक समीक्षकों ने इसे "हिंदी साहित्य में एक साहसिक प्रयोग" बताया। अनन्या को इंटरव्यू के लिए बुलाया जाने लगा। हर इंटरव्यू में वह शिवानी जी और अपनी दादी की कहानी बताती, जिसे सुनकर लोग प्रभावित होते।
एक शाम, जब अनन्या थकी हुई घर लौटी, तो उसकी माँ ने एक पत्र दिया। यह एक वृद्धाश्रम से था। एक वृद्ध महिला ने लिखा था - "बेटा, मैंने तुम्हारी किताब पढ़ी। मैं शिवानी जी की समकालीन थी। उन दिनों हम सच नहीं बोल पाते थे। तुमने हमारी आवाज़ बनकर इतिहास को न्याय दिलाया। धन्यवाद।"
अनन्या की आँखों में आँसू आ गए। यह पत्र उसके लिए किसी पुरस्कार से बढ़कर था। उसे एहसास हुआ कि उसने सिर्फ एक किताब प्रकाशित नहीं की, बल्कि एक भावनात्मक क्रांति का सूत्रपात किया था।
कुछ महीनों बाद, 'चंद्रकांता' को एक प्रतिष्ठित साहित्यिक पुरस्कार के लिए नामांकित किया गया। अनन्या ने मंच पर जाकर अपना भाषण दिया - "यह पुरस्कार मेरे लिए नहीं, बल्कि शिवानी जी के साहस के लिए है। उन्होंने हमें सिखाया कि सच्चाई कभी मरती नहीं, वह सिर्फ इंतजार करती है।"
उस रात, अनन्या ने अपनी डायरी में लिखा - "आज मैंने एक सफलता नहीं, बल्कि एक जिम्मेदारी हासिल की है। अब मेरा काम है और ऐसी खोई हुई आवाजों को ढूंढना, जिन्हें इतिहास ने दबा दिया।"
उसने खिड़की से बाहर देखा। चाँदनी रात में उसे लगा जैसे शिवानी जी और दादी मुस्कुरा रही हैं। एक अधूरा सपना पूरा हुआ था, लेकिन एक नई यात्रा का आगाज हो चुका था। अनन्या जानती थी कि यह अंत नहीं, बल्कि एक नई शुरुआत थी।