Ankahee Mohabbat - 5 in Hindi Horror Stories by Kabir books and stories PDF | अनकही मोहब्बत - 5

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अनकही मोहब्बत - 5

कभी-कभी दीवारें सिर्फ़ ईंटों की नहीं होतीं,
वो लोग बनाते हैं — मज़हब, जात और डर से।”
राघव और आयरा की मुलाकातें अब रोज़ की बात बन चुकी थीं।
कभी वो इमामबाड़े की मरम्मत के बहाने आता,
तो कभी आयरा खुद ही कोई छोटा काम निकाल देती,
बस ताकि वो कुछ पल उसके पास रह सके।
धीरे-धीरे दोनों की बातें किताबों के पन्नों में छुपी शायरी बन गईं।
राघव अब सिर्फ़ मजदूर नहीं रहा था, वो आयरा की खामोश दुआ बन गया था।
आयरा को उसकी बातों में वो सच्चाई मिलती जो उसने कभी अपने अमीर घर में नहीं देखी थी।
एक दिन आयरा ने पूछा —
“राघव, तुम्हें डर नहीं लगता? अगर किसी ने देख लिया तो?”
राघव हँस पड़ा, बोला —
“बीबी साहिबा, जो लोग पहले से नीच माने जाते हैं, उन्हें और कितना गिराया जा सकता है?”
आयरा चुप रह गई। उसकी आँखों में पानी उतर आया।
राघव ने आगे कहा —
“मैं जानता हूँ, ये रास्ता कहीं नहीं जाएगा,
पर जब तू सामने होती है न... तो जिन्दगी थोड़ी सी अपनी लगती है।”
वो लम्हा दोनों के लिए अनकहा था, मगर गहरा।
वो जान चुके थे कि यह इश्क़ नामुमकिन है —
मगर नामुमकिन चीज़ें ही तो सबसे सच्ची लगती हैं।
कई हफ़्ते गुज़र गए।
अब इमामबाड़े का काम ख़त्म हो चुका था।
राघव को दूसरे गाँव जाना था।
आयरा बेचैन थी — उसने पहली बार महसूस किया कि वो किसी को खोने से डर रही है।
उसने कहा — “कल चले जाओगे?”
राघव ने कहा — “हाँ, काम तो पूरा हो गया।”
थोड़ा रुककर बोला —
“अगर कहो, तो दीवार दोबारा तोड़ दूँ।”
आयरा हँस पड़ी, लेकिन आँखें भर आईं।
उसी रात उसने राघव को एक किताब दी — “दीवान-ए-मीर”
अंदर एक पन्ने पर लिखा था —
“कभी लौट आना… अगर इस मिट्टी में अब भी मोहब्बत बाकी हो।”
राघव ने वह किताब अपने सीने से लगा ली।
उस रात उसने अपनी डायरी में लिखा —
“आज पहली बार किसी ने मुझे जाने से रोका है…
शायद मैं भी किसी की दुनिया में जगह बना चुका हूँ।”
मगर मोहब्बत जितनी खूबसूरत होती है, उतनी ही डरावनी भी।
अगले ही दिन इमामबाड़े के मुंतज़िम — यानी आयरा के अब्बू — ने राघव को देखा।
आयरा खिड़की से बात कर रही थी।
उनकी आँखों में ग़ुस्सा था — “एक मेहतर हमारे घर के पास खड़ा है?”
उन्होंने वहीं लोगों को बुला लिया, और राघव को अपमानित किया।
“तेरी औकात क्या है? तू हमारी बेटी से बात करेगा?”
राघव बस चुप रहा।
उसने कुछ नहीं कहा।
सिर्फ़ इतना बोला — “साहब, बात तो इंसानियत की थी, जात की नहीं।”
उसी वक़्त उसे वहाँ से निकाल दिया गया।
गाँव में बात फैल गई —
“मेहतर और मौलाना की बेटी…”
लोगों के ताने, समाज की नफरत और मज़हब की दीवारों ने उस इश्क़ को दफ़न कर दिया।
आयरा को कमरे में बंद कर दिया गया।
उसने खाना छोड़ दिया, बोलना छोड़ दिया।
रातों में बस एक ही नाम उसकी जुबान पर आता — “राघव…”
कुछ दिन बाद राघव ने आख़िरी बार उसे देखने की ठानी।
मुहर्रम का दिन था।
इमामबाड़े में मातम चल रहा था —
डमरू की आवाज़, ज़ंजीरों की चोटें, और हर तरफ़ स्याही-सा अँधेरा।
राघव दूर खड़ा था, बारिश में भीगा हुआ।
उसने देखा — आयरा काले लिबास में थी, चेहरा ढका हुआ।
उसकी आँखों में वही दर्द था जो राघव की आँखों में था।
आयरा ने झुककर ज़मीन को छुआ, और जब उठी —
तो उसकी निगाह राघव पर पड़ी।
दोनों की आँखें मिलीं — बस एक पल के लिए।
मगर उस एक पल में पूरा जहाँ थम गया।
वो आख़िरी बार था जब उन्होंने एक-दूसरे को देखा।
उस रात राघव ने आयरा को एक खत भेजा —
“अगर मोहब्बत गुनाह है, तो मैं गुनहगार ही सही।
मगर कसम है उस खुदा की — मैंने तेरे लिए कभी बुरा नहीं सोचा।”
खत कभी पहुँचा नहीं।
अगली सुबह ख़बर आई — राघव अब इस दुनिया में नहीं रहा।
लोगों ने कहा, “शायद दीवार गिर गई थी।”
मगर असल में, समाज की दीवार ने उसे कुचल दिया था।
आयरा उस ख़बर के बाद टूट गई।
उसने अपनी किताबें, अपने गहने सब छोड़ दिए।
बस वही किताब उसके पास रही — “दीवान-ए-मीर” —
जिसमें राघव की उँगलियों के निशान थे।
वो अब हर शाम खिड़की के पास बैठती और बारिश को देखती।
कभी-कभी हवा से कहती —
“राघव, अगर तू मिट्टी बन गया है,
तो हर बार बारिश में मुझसे मिलने आना…”