(“कभी-कभी शादी प्यार से नहीं, वक़्त के डर से हो जाती है…”)
साल गुज़रते गए।
आरती अब पच्चीस की नहीं रही।
ज़िंदगी जैसे धीरे-धीरे उसे सिखा चुकी थी कि सपने सिर्फ़ देखने की चीज़ नहीं — कुछ सपनों को बस अपने अंदर चुपचाप दफना देना पड़ता है।
घर में अब शांति नहीं थी, बस बीमारी और चिंता थी।
माँ की तबियत दिन-ब-दिन गिर रही थी।
दवाइयाँ चलती रहीं, पर उनके चेहरे पर एक ही बात साफ़ थी —
“मैं अपनी बेटी को अकेला छोड़कर नहीं जाना चाहती।”
आरती माँ को समझाती, “माँ, मैं ठीक हूँ… तुम्हें कुछ नहीं होगा।”
पर माँ हर बार वही जवाब देतीं,
“बेटा, मैं अब ठीक नहीं होने वाली। मुझे तेरे सिर पर किसी का हाथ चाहिए।”
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रिश्ते आने लगे।
कुछ लड़के छोटे शहरों के, कुछ उम्र में बड़े, कुछ ने पहली ही नज़र में ‘ना’ कह दी।
आरती को किसी से कोई शिकायत नहीं थी — बस अब उसमें चाहने की ताकत नहीं बची थी।
हर नए रिश्ते के साथ उसे बस एक चेहरा याद आता — विवेक।
और फिर सब फीका लगने लगता।
एक दिन मौसी आईं —
“बहन, सुनो, हमारे जान-पहचान में एक अच्छा रिश्ता है। सरकारी नौकरी वाला लड़का है, घर भी ठीक है। बस… उसकी बीवी गुजर गई थी, एक छोटा बच्चा है।”
माँ चुप रहीं।
आरती ने नज़र झुका ली।
“एक बच्चा?” उसने धीरे से पूछा।
मौसी बोलीं, “हाँ, पर लड़का बहुत सीधा है, जिम्मेदार भी। तेरे जैसी लड़की को संभाल लेगा।”
माँ ने धीरे से कहा, “बेटा, मैं बस इतना चाहती हूँ कि तू अकेली न रह जाए।”
आरती ने माँ की आँखों में देखा — वो आँखें जो अब बुझती जा रही थीं।
वो कुछ कहना चाहती थी, कि “माँ, मैं अब भी किसी का इंतज़ार कर रही हूँ…”
पर शब्द गले में अटक गए।
वक़्त ने फिर फैसला किया — और इस बार आरती ने कुछ नहीं कहा।
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कुछ हफ्तों में सब तय हो गया।
माँ का चेहरा पहली बार थोड़ा सुकून भरा दिखा।
उस रात जब सब सो गए, आरती छत पर अकेली बैठी थी।
पास ही उसका छोटा-सा सूटकेस रखा था — वही जिसमें कभी विवेक के दिए पुराने नोट्स रखे थे।
उसने उन्हें आखिरी बार खोला —
वही पंक्ति अब भी थी,
> “डर लग रहा है? तो वही सवाल दो बार करो, डर खुद भाग जाएगा।”
(“कुछ शादियाँ सात फेरे नहीं, एक चुप्पी में पूरी हो जाती हैं…”)
मंदिर में शाम का वक्त था।
घंटियों की आवाज़ धीमे-धीमे हवा में घुल रही थी।
आसमान हल्का सा धुँधला था — जैसे उसे भी पता हो कि आज कोई मुस्कान मजबूरी में दी जाएगी।
आरती दुल्हन के लिबास में बैठी थी।
लाल जोड़ा, माँ के चुने हुए गहने, माथे पर हल्का सिंदूर — सब कुछ वैसे ही जैसा हर लड़की के लिए ‘सपनों का दिन’ कहलाता है।
पर उसके लिए यह कोई सपना नहीं था।
यह बस एक फैसला था — जो उसने खुद के लिए नहीं, अपनी माँ की आखिरी इच्छा के लिए किया था।
चारों तरफ रिश्तेदारों की हल्की चहल-पहल थी।
मौसी कह रही थीं, “देखो, कितनी सुंदर लग रही है हमारी आरती!”
कोई बोला, “अब तो भगवान ने किस्मत बदल दी इसकी।”
आरती बस सिर झुकाए बैठी रही।
अंदर से उसे लग रहा था जैसे हर शब्द, हर बधाई, उसकी किसी पुरानी याद पर चोट कर रही हो।
पंडित ने आवाज़ लगाई —
“कन्या का हाथ आगे बढ़ाइए।”
उसका दिल एकदम से काँपा।
जैसे किसी ने अंदर से कहा —
“रुक जा… अभी भी वक़्त है।”
पर अगले ही पल माँ की काँपती उँगलियाँ उसके हाथ पर आ गईं।
माँ ने धीरे से फुसफुसाया —
“अब सब ठीक हो जाएगा, बेटी।”
आरती ने सिर उठाया —
माँ की आँखों में अब सुकून था।
और उसी पल उसने तय कर लिया —
“ठीक है… अगर यही उनका सुकून है, तो मैं अपनी खामोशी से सब सह लूँगी।”
जब वरमाला का वक्त आया, तो पंडाल में तालियाँ बजीं।
आरती ने काँपते हाथों से वरमाला उठाई।
सामने खड़ा आदमी उसकी तरफ मुस्कुरा रहा था — सादा चेहरा, आँखों में सच्चाई, लेकिन कोई रिश्ता नहीं था उस मुस्कान से।
बस ज़िम्मेदारी थी।
विवाह-मंडप की अग्नि जल रही थी।
आरती के हर फेरे के साथ कोई पुरानी याद राख में बदलती जा रही थी —
पहला फेरा — जब विवेक ने पहली बार कहा था “आरती, तुम्हें डर लगता है?”
दूसरा — जब वो खिड़की के पास खड़ी होकर उसे किताब पढ़ते देखती थी।
तीसरा — जब वो विदा होने के वक़्त बस दरवाज़े पर रह गई थी।
हर मंत्र के साथ उसके दिल में एक चीख़ उठती, और आँखें नम हो जातीं।
मगर होंठ अब भी बंद थे।
सातवाँ फेरा पूरा हुआ।
पंडित ने कहा — “अब ये दोनों एक-दूसरे के जीवन साथी बने।”
तालियाँ फिर बजीं।
आरती ने हल्की मुस्कान दी — जो मुस्कान नहीं, एक स्वीकार था।
उसकी आँखों में आँसू थे, लेकिन किसी ने ध्यान नहीं दिया।
सब खुश थे — बस वो चुप थी।
उसने एक बार आसमान की ओर देखा।
बादल अब घिरने लगे थे, और हल्की हवा चल रही थी।
उसे लगा जैसे कोई कह रहा हो —
> “तू चली गई, पर मैं अब भी वहीं हूँ…”
वो पलकें झुकाकर बोली,
> “हाँ, मुझे पता है।”
शादी खत्म हुई।
आरती ने माँ के पाँव छुए।
माँ ने उसे गले लगाया — “अब मैं चैन से जी सकती हूँ।”
आरती मुस्कुराई, पर उस मुस्कान के पीछे जो खामोशी थी,
वो किसी ने नहीं सुनी।
रात को जब सब सो गए, आरती कमरे में अकेली बैठी थी।
हाथ में चूड़ियाँ चमक रही थीं, पर मन में सन्नाटा था।
उसने धीरे से तकिए के नीचे से एक पुराना कागज़ निकाला — वही, विवेक की लिखावट वाला।
“डर लग रहा है? तो वही सवाल दो बार करो…”
उसने फुसफुसाकर कहा —
> “विवेक, इस बार सवाल नहीं बचा।”
और धीरे से आँसू उसके गालों पर बह निकले —
जैसे वक़्त खुद रो रहा हो कि उसने दो सच्चे लोगों को मिलाने में देर कर दी।
(“कुछ जुदाइयाँ रोती नहीं… बस हर सांस में गूंजती रहती हैं।”)
शादी को तीन महीने हो चुके थे नया घर, नई ज़िम्मेदारियाँ, नई पहचान — आरती शर्मा, “शरद की पत्नी”, “आर्यन की माँ”।
हर सुबह वो वही करती जो एक अच्छी बहू या पत्नी से उम्मीद की जाती है —
सुबह की चाय, पति की फाइलें रखना, और दिनभर घर का शोर संभालना।
बाहर से सब ठीक था।
पर सच ये था —
आरती की ज़िंदगी अब किरदार बन गई थी।
वो जी नहीं रही थी, बस निभा रही थी।
रात को जब सब सो जाते, तो कमरा अंधेरे में डूब जाता —
बस घड़ी की टिक-टिक, और उसके दिल की धड़कन बाकी रहती।
उसे नींद नहीं आती।
वो छत को देखती रहती, और सोचती —
> “क्या विवेक भी अब सोता होगा इतनी शांति से? या उसके भीतर भी ऐसा ही सन्नाटा है?”
कभी-कभी वो सोचती, अगर उस दिन उसने माँ से ज़रा सा इंकार कर दिया होता,
तो क्या कहानी अलग होती?
क्या वो अब भी किसी नदी किनारे खड़ी होती, विवेक के साथ हँसती हुई?
फिर खुद को समझाती —
> “नहीं, अब ये सोचने का हक़ भी नहीं रहा।”
एक शाम, जब बारिश हुई, तो उसके अंदर कुछ टूट गया।
वो बालकनी में खड़ी थी, आसमान से गिरती बूंदों को देख रही थी।
वो ही बारिश थी — जैसी कभी विवेक के साथ कॉलेज की गलियों में भीगी थी।
उस दिन विवेक ने हँसते हुए कहा था —
“बारिश में लोग भीगते नहीं, अपने हिस्से का वक़्त महसूस करते हैं।”
आरती ने अपनी हथेली खोली — बूंदें गिर रही थीं, पर अब उसमें कोई गर्मी नहीं थी।
बस ठंडा सन्नाटा था।
आँखों से आँसू निकले, पर चेहरा वैसा ही स्थिर रहा।
क्योंकि अब रोना भी एक आदत बन चुका था।
रात को जब पति ने पूछा —
“थकी लग रही हो, सब ठीक है ना?”
आरती ने मुस्कुराकर कहा — “हाँ, बस थोड़ा सिर दर्द है।”
असल में सिर नहीं, दिल दर्द में था।
उसे अपने कमरे की दीवारों से डर लगने लगा था —
हर दीवार पर जैसे किसी की आवाज़ गूंजती थी,
“आरती, तू खुश है ना?”
वो खुद से झूठ बोलती,
> “हाँ, मैं खुश हूँ।”
पर उस झूठ में सच्चाई का नामोनिशान नहीं था।
धीरे-धीरे, आरती खुद से दूर होती जा रही थी।
वो अब दर्पण में खुद को देखती नहीं थी।
क्योंकि उसे डर था —
कहीं वो आँखों में वही सवाल न देख ले जो अब भी अनुत्तरित है:
> “विवेक कहाँ है?”
माँ अब नहीं थी।
उनकी याद बस कमरे की दीवार पर टंगी पुरानी फोटो में रह गई थी —
मुस्कुराती हुई, जैसे कह रही हों, “देखो, मैंने तो अपनी बेटी का घर बसा दिया।”
आरती उस फोटो के सामने बैठती और चुपचाप बोलती,
> “माँ, घर बस गया है… पर दिल अब भी बेघर है।”
वक़्त ने बहुत कुछ बदल दिया था।
मेहनत, संघर्ष और अकेलेपन के बाद विवेक अब एक टीचर बन चुका था।
हाथ में नियुक्ति पत्र था, और दिल में वही एक नाम — आरती।
जब ट्रेन ने शहर का स्टेशन पार किया, तो उसे लगा जैसे कोई अधूरा चक्र फिर से पूरा हो रहा हो।
उसी शहर की हवा, वही रास्ते, वही गली का नाम — पर अब सब कुछ थोड़ा अजनबी लग रहा था।
ऑटो से उतरते हुए उसने अपने नए स्कूल की तरफ देखा —
“यहीं से अब ज़िंदगी फिर शुरू होगी,” उसने सोचा।
पर मन में शांति नहीं थी।
सवाल बहुत थे —
क्या आरती अब भी यहीं है? क्या उसने किसी से शादी कर ली होगी? क्या वो मुझे याद भी करती होगी?
हर कदम के साथ एक डर, एक उम्मीद चल रही थी।
वो खुद से कहता जा रहा था —
“मैं बस नौकरी करने आया हूँ… बस यही।”
पर दिल जानता था — वो लौटा है किसी को देखने,
जिससे उसने कभी कुछ कहा नहीं… पर सब कह दिया था।
सालों बाद उसी शहर में लौटा था, पर अब कुछ भी वैसा नहीं था —
न वो गली की हलचल, न आरती के आँगन से आती आवाज़।
एक अजीब सन्नाटा था, जो उसके कानों तक नहीं, दिल तक जा रहा था।
उसने तय किया — “बस एक बार देख लूँ, कि वो कैसी है… फिर कुछ नहीं।”
शाम को वो पुराने मोहल्ले की तरफ निकल पड़ा।
वो रास्ता जो कभी रोज़ तय करता था — अब जैसे हर मोड़ पर यादों की कीलें गड़ी थीं।
हर कदम पर एक चेहरा उभरता, एक आवाज़ सुनाई देती
> “विवेक, ज़रा ध्यान से पढ़ाना भाई को… उसको गणित समझ नहीं आती।”
उसकी आँखों में नमी सी आ गई।
जब वो आरती के घर पहुँचा — दरवाज़े पर ताला लटका था।
दीवारों पर पपड़ी उतर चुकी थी, आँगन में झाड़ियाँ उग आई थीं।
वो ठहर गया।
थोड़ी देर बस दरवाज़े को देखता रहा — जैसे वो बोल पड़ेगा,
“आरती अंदर है, पुकार लो।”
पर दरवाज़ा खामोश था।
वो कुछ कदम पीछे हटा, फिर बगल के घर के बूढ़े शर्मा जी से पूछा —
> “माफ़ कीजिए, यहाँ जो मिश्रा जी रहते थे… उनकी बेटी आरती?”
शर्मा जी ने चश्मा नीचे किया, और धीमी आवाज़ में बोले —
> “बेटा, मिश्रा जी की तबियत सालों पहले ही बिगड़ गई थी… अब वो नहीं रहे। आरती की माँ भी पिछले साल चल बसीं। लड़की की शादी कर दी थी … बस, तब से ये घर यूँ ही बंद है।”
विवेक के कानों में बस “शादी कर दी थी” अटक गया।
बाकी सब आवाज़ें जैसे मिट्टी में समा गईं।
उसने सिर हिलाया, “अच्छा…” — और वहीं ठहर गया।
बस इतना सुनना था —
दुनिया एकदम रुक गई।
शर्मा जी कुछ और बोलते रहे, पर विवेक के कानों में कुछ नहीं पड़ा।
हर आवाज़ धुँधली हो गई थी।
उसकी सांस भारी होने लगी।
आँखें एक बिंदु पर टिक गईं — उस बंद दरवाज़े पर।
वो वहीं खड़ा रहा,
जैसे कोई समय में जड़ हो गया हो।
उस पल विवेक को लगा, जैसे किसी ने उसके सीने के अंदर से हवा खींच ली हो।
दिल धड़क तो रहा था, पर जैसे हर धड़कन अब दर्द बन चुकी थी।
उसे याद आया —
वो आरती की वो बात,
> “विवेक, अगर मैं कभी किसी और की हो गई… तो क्या तुम मुझसे नफरत करोगे?”
उसने तब हँसकर कहा था,
> “तू किसी की भी हो जाए, मेरे हिस्से की आरती तो तू ही रहेगी।”
और आज वही बात उसकी रूह को काट रही थी।
क्योंकि अब वो सच बन चुकी थी।
वो धीरे-धीरे उस घर से पीछे हटा।
हर कदम भारी था।
हर सांस में टूटने की आवाज़ थी।
उसने पीछे मुड़कर देखा —
वो घर अब सिर्फ ईंटों का ढेर नहीं था,
वो उसकी पूरी दुनिया का मलबा था।
उसने खुद से कहा —
> “वो चली गई… पर मेरी ज़िंदगी वहीं रह गई।”
रात को विवेक कमरे में लौटा।
उसने बैग से पुरानी नोटबुक निकाली — वही जिसमें कभी आरती के भाई को पढ़ाते वक्त उसके हाथों की खुशबू रह जाती थी।
नोटबुक के अंदर एक सूखा पत्ता था —
शायद किसी पुराने दिन की याद।
वो देर तक उस पत्ते को देखता रहा।
धीरे से बुदबुदाया —
> “आरती… तू जहाँ भी है, खुश रहना।”
फिर वही किया जो टूटा हुआ आदमी हमेशा करता है —
सिर झुकाया, और आँसू गिरने दिए।
बिना आवाज़, बिना ग़ुस्से, बस चुपचाप।
और अगले ही पल —
वो ताले से बंद दरवाज़े की तरह गुम हो गई।
विवेक के होंठ काँपे,
उसने बमुश्किल फुसफुसाया —
> “आरती…”
आवाज़ टूटी, फिर चुप्पी छा गई।
और उस चुप्पी में,
एक आदमी हमेशा के लिए अधूरा हो गया।