Dil ka Kirayedar - Part 4 in Hindi Love Stories by Sagar Joshi books and stories PDF | Dil ka Kirayedar - Part 4

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Dil ka Kirayedar - Part 4


(“कुछ मुलाकातें किस्मत नहीं करवाती — अधूरी मोहब्बत करवाती है।”)

विवेक अब स्कूल में पढ़ाने लगा था।
बच्चे उसे पसंद करते थे — उसकी क्लास में एक अलग सा सुकून था।
वो समझाता नहीं था, महसूस करवाता था।
शायद इसलिए कि खुद ज़िंदगी से इतना कुछ सीख चुका था कि अब किताबों से परे देखना जानता था।

पर अंदर अब भी वही खालीपन था।
हर दिन की शुरुआत किसी उम्मीद से नहीं, किसी याद से होती थी।
वो अब मुस्कुराता था, पर आँखें अब भी वैसी ही थकी हुई थीं।


एक दिन प्रिंसिपल ने कहा,

> “विवेक जी, कल से एक नया छात्र आपकी क्लास में आएगा — थोड़ा कमजोर है पढ़ाई में, ध्यान दीजिएगा। उसके पिता ने खुद आपसे पढ़ाने की रिक्वेस्ट की है।”



विवेक ने सिर हिलाया —
“ठीक है, मैं संभाल लूंगा।”

अगले दिन जब क्लास शुरू हुई, दरवाज़े पर एक छोटा सा लड़का खड़ा था।
पतला, चुप, आँखों में मासूमियत और एक अजीब सी पहचान का अहसास।
“नाम क्या है तुम्हारा?” विवेक ने मुस्कुराकर पूछा।

लड़के ने धीरे से कहा —

> “आर्यन शर्मा।”



विवेक का हाथ हवा में रुक गया।
एक पल को लगा, जैसे किसी ने सीधा दिल के बीचोंबीच कुछ रख दिया हो।

शर्मा...
वही नाम जो उसने उस दिन बुज़ुर्ग से सुना था — “लड़की की शादी कर दी थी... शर्मा परिवार में।”

वो कुछ बोल नहीं पाया।
बस चुपचाप बच्चे को बैठने का इशारा किया।


क्लास खत्म होने के बाद, आर्यन वहीं रुका रहा।
विवेक ने पूछा —
“घर कौन छोड़ने आता है तुम्हें?”

आर्यन बोला —

> “माँ आती हैं… वो गेट के बाहर रुकती हैं।”



विवेक ने खिड़की से बाहर झाँका।
गेट पर एक औरत खड़ी थी — हल्के रंग की साड़ी, माथे पर सिंदूर की पतली सी रेखा, और चेहरे पर थकान…
वो चेहरा जैसे वक्त ने सालों बाद फिर लौटा दिया हो।

वो आरती थी।

विवेक का दिल जैसे रुक गया।
आँखें भर आईं, पर वो वहीं खड़ा रहा — न पुकारा, न पास गया।
बस देखता रहा…
वो औरत, जो अब किसी और की पत्नी थी,
जिसके नाम से उसकी साँसें चलती थीं,
अब उसी के बच्चे की माँ थी — और वही बच्चा अब उसकी क्लास में बैठा था।


उस पल विवेक को लगा —
ज़िंदगी ने जो छीन लिया था, अब उसी रूप में वापस दे दिया है।
लेकिन ये वापसी मरहम नहीं, घाव थी।

उसने खिड़की से नज़र हटाई,
गहरी साँस ली, और बुदबुदाया —

> “आरती… अब भी यहीं हो।”





(“कभी-कभी आँखें बोलती हैं, और दिल जवाब देना भूल जाता है।”)

स्कूल की छुट्टी की घंटी बजी।
बच्चे दौड़ते हुए बाहर निकलने लगे — आवाज़ें, हँसी, शोर सब हवा में घुल गया।
विवेक अपनी सीट पर बैठा था, कॉपियाँ समेटते हुए,
पर मन वहीं अटका था — उस नाम पर, आर्यन शर्मा।

बाहर बारिश की बूँदें हल्के-हल्के गिरने लगीं।
खिड़की पर टप-टप की आवाज़ थी,
और उसके भीतर वही बेचैनी — जैसे कुछ होने वाला है।

आर्यन धीरे से बोला,

> “सर, माँ बाहर इंतज़ार कर रही हैं…”



विवेक ने सिर उठाया।
बस इतना ही कहा — “ठीक है, जाओ।”

लड़का भागा, और विवेक खिड़की के पास चला गया।
वो खिड़की — जहाँ से उसने उसे पहली बार देखा था।
बाहर वही गेट, वही सड़क… और वही औरत।


आरती वहाँ खड़ी थी।
सफेद साड़ी पर हल्का नीला दुपट्टा, बाल बँधे हुए,
चेहरे पर वही नर्मी, वही शांत उदासी जो कभी उसकी हँसी के नीचे छिपी रहती थी।

वो भी शायद उसी बेचैनी में थी —
बारिश से बचने के लिए नहीं, किसी अतीत की हलचल से बचने के लिए।
आर्यन भागते हुए आया और उसके पास खड़ा हो गया,
पर उसकी नज़र किसी और तरफ थी — उस खिड़की की ओर, जहाँ अब विवेक खड़ा था।

उनकी आँखें मिलीं।


पहले तो बस एक पल के लिए —
जैसे किसी ने अचानक वक़्त रोक दिया हो।
फिर वो पल फैलने लगा,
धीरे-धीरे, जैसे कोई पुराना गीत हवा में फिर से बज उठा हो।

वो दोनों बस एक-दूसरे को देख रहे थे —
कोई शब्द नहीं, कोई हरकत नहीं।
बस साँसें थीं — और उन साँसों में सालों की चुप्पी।

आरती की आँखों में एक पल को हल्की सी चमक आई,
फिर बुझ गई — जैसे किसी ने अंदर से कहा हो,
“नहीं, अब नहीं।”

विवेक वहीं खड़ा रहा,
नज़रों में बाढ़ थी, पर चेहरे पर सन्नाटा।
उसने कुछ कहना चाहा — पर शब्द जैसे गले में अटक गए।
उसके हाथों ने टेबल का किनारा पकड़ा,
जैसे अगर छोड़ा, तो गिर जाएगा।



आरती ने एक पल के लिए आर्यन के बालों पर हाथ फेरा,
फिर धीरे से खिड़की की तरफ देखा —
और उस नज़र में सब कुछ था जो कहा नहीं गया था।

माफ़ी भी थी,
प्यार भी,
और वो अधूरापन भी — जो वक्त के किसी कोने में अब तक जिंदा था।

बारिश तेज़ हो चुकी थी।
काँच की खिड़की पर बूंदें गिर रही थीं —
और उन बूंदों के पीछे, दो चेहरे,
जो एक-दूसरे के इतने करीब थे… फिर भी दुनियाओं दूर।



आरती ने धीरे से अपनी नज़र झुका ली।
आर्यन का हाथ थामा, और चल पड़ी।
विवेक ने बस इतना किया —
खिड़की पर हाथ रखा, जैसे कुछ रोकना चाहता हो।
पर वो जा चुकी थी।

उसकी परछाई बारिश में धुंधली होती गई,
और विवेक के सामने बस गीली खिड़की रह गई —
जहाँ अब सिर्फ़ धुंध में लिपटी यादें थीं।

वक़्त फिर चल पड़ा था,
पर विवेक वहीं खड़ा रहा —
जैसे किसी ने उसकी दुनिया यहीं छोड़ दी हो।

“कुछ यादें वक्त नहीं मिटाता… वो बस ज़ख्मों का पता बदल देती हैं।”)

वो दिन बीत गया —
पर विवेक के भीतर कुछ भी नहीं बीता।
उस रात उसने कई बार खिड़की तक जाकर बाहर देखा,
जैसे वो साड़ी फिर से झलकेगी,
जैसे कोई आवाज़ कहेगी — “विवेक…”
पर कुछ नहीं हुआ।

वो बिस्तर पर लेटा, पर नींद नहीं आई।
बस बारिश की आवाज़ थी,
और खिड़की से टपकती बूंदें —
हर एक बूँद जैसे दिल पर गिरती थी।

उसने आँखें बंद कीं —
आरती का चेहरा साफ़ उभर आया।
वो वही चेहरा था,
बस अब उस पर एक शांति थी जो किसी हार मान चुके इंसान में होती है।

> “तू खुश है ना?”
वो सवाल विवेक के अंदर गूँजता रहा,
पर जवाब कभी नहीं मिला।




दूसरी तरफ, आरती अपने कमरे में बैठी थी।
आर्यन सो चुका था।
घर शांत था, पर उसके भीतर तूफ़ान था।

वो बालकनी में बैठी थी — वही जगह जहाँ कभी विवेक को याद करके रोती थी।
सालों बाद आज वही आँसू फिर लौट आए थे,
बस अब उनमें कोई नाम नहीं था,
सिर्फ़ दर्द था।

उसने अपने हाथों की चूड़ियों को देखा —
हर आवाज़ उसे याद दिला रही थी,
कि वो अब किसी और की है।
फिर भी दिल में कोई कोना था
जहाँ अभी भी विवेक की खामोशी बसती थी।


वो रात उसके लिए लंबी थी।
उसने अपने तकिये को भींच लिया,
जैसे वो उसी छाती पर सिर रख रही हो जहाँ कभी सुकून मिला था।
पर अब वहाँ सिर्फ़ कपड़े की नमी थी।

> “क्यों आए तुम, विवेक?”
उसने धीरे से कहा,
“इतने सालों बाद… क्यों मुझे फिर वो सब याद दिला दिया जो मैंने भूलने की कसम खाई थी?”



पर जवाब फिर वही — खामोशी।


अगले दिन स्कूल में विवेक ने पढ़ाना शुरू किया,
पर शब्दों में वजन नहीं था।
आर्यन जब ब्लैकबोर्ड पर कुछ गलत लिखता,
वो मुस्कुराता,
क्योंकि उसे लगता —
आरती भी ऐसे ही मुस्कुराती थी, जब उसका भाई गलती करता था।

हर दिन उस बच्चे में उसे उसकी झलक दिखती थी —
उसकी आँखें, उसकी हँसी,
यहाँ तक कि “सर” कहने का तरीका भी वैसा ही था —
धीमा, डरते-डरते।


धीरे-धीरे, दोनों अपने-अपने संसार में लौटने की कोशिश कर रहे थे।
पर वो एक नज़र,
वो एक पल,
अब उनके बीच एक अदृश्य डोर बन चुका था।

आरती अब हर दिन आर्यन को स्कूल भेजते वक़्त थोड़ा रुकती थी,
बस एक पल के लिए गेट की तरफ देखती —
क्या आज वो खिड़की खुली होगी?

और विवेक हर दिन क्लास में वही कुर्सी देखता,
जहाँ आर्यन बैठता था —
क्योंकि वही अब उसका आरती से जुड़ा आख़िरी सिरा था।


वक़्त चलता गया —
पर दोनों अब फिर उसी जगह लौट आए थे,
जहाँ सब शुरू हुआ था —
फर्क बस इतना था,
अब उनके पास बोलने को कुछ भी नहीं,
और महसूस करने को सब कुछ था।






(“कभी-कभी सबसे मुश्किल बात वो होती है जो हम कह नहीं पाते।”)

वो दिन स्कूल में सामान्य था।
बच्चों की आवाज़ें, घंटी की झंकार, और कॉपी के पन्ने पलटने की आवाज़ —
सब वैसा ही था।
बस विवेक के भीतर कुछ अजीब सा सन्नाटा था।

उसी वक्त, दरवाज़े पर एक धीमी दस्तक हुई।
वो मुड़ा —
और वक्त जैसे वहीं रुक गया।

आरती दरवाज़े पर खड़ी थी।
साड़ी में सादगी थी, चेहरा शांत, पर आँखों में वही पुराना तूफ़ान।
हाथ में टिफिन था — शायद आर्यन का।
पर असल में वो खुद को लाने आई थी… उस जगह पर,
जहाँ उसका अतीत अब भी साँस ले रहा था।

कुछ पल तक कोई कुछ नहीं बोला।
दोनों बस खड़े रहे —
वो नज़रें जो कभी बोलती थीं,
अब चुप थीं, पर आवाज़ आज भी साफ़ थी।

विवेक ने धीरे से कहा —
“अंदर आइए।”

आरती ने सिर झुकाया, और कमरे में कदम रखा।
कमरे की दीवारें, मेज, ब्लैकबोर्ड — सब जैसे इस मुलाक़ात के गवाह बन गए थे।


कुछ सेकंड यूँ ही गुज़रे,
फिर विवेक ने कहा,
“कैसी हो?”
सवाल बहुत आम था,
पर लहजे में बरसों का दर्द था।

आरती मुस्कुराने की कोशिश करती है —
“ठीक हूँ।”
वो दो शब्द जैसे किसी पुराने घाव पर हल्का सा नमक छिड़क गए।

विवेक ने कुछ कहना चाहा,
पर शब्द गले में अटक गए।
“तुम्हारी… तुम्हारी माँ?”
आरती ने निगाह झुका ली —
“नहीं रहीं।”

कमरे में सन्नाटा छा गया।
खिड़की के बाहर हवा चली, पर भीतर सब स्थिर था।


वो दोनों अब एक ही कमरे में थे,
पर उनके बीच सालों का फासला था।
फिर भी, आज वो दोनों उस फासले से थक चुके थे।

आरती ने धीमे से कहा —
“तुम वापस आ गए?”
विवेक ने बस इतना कहा,
“हाँ… पर अब कुछ वैसा नहीं है।”

एक पल को दोनों ने एक-दूसरे की आँखों में देखा।
वो नज़रें वही थीं —
जिन्होंने कभी बिना बोले सब कहा था।

आरती के होंठ काँपे —
“कभी सोचा नहीं था कि ऐसे मिलेंगे…”
विवेक हल्का सा मुस्कुराया,
“मैंने तो कभी सोचा था कि शायद मिलना ही नहीं होगा।”

थोड़ी देर चुप्पी रही।
फिर आरती ने कहा,
“आर्यन तुम्हें बहुत पसंद करता है।”
विवेक ने सिर झुकाया —
“वो अच्छा बच्चा है।”

दोनों को पता था कि बात कुछ और कहनी थी,
पर शब्द वही निकले जो हालात ने तय किए थे।

फिर आरती ने धीरे से पूछा —
“तुम्हें कभी लगा नहीं कि… हम…”
वो रुक गई।
शब्द उसके गले में अटक गए।

विवेक ने आँखें बंद कीं —
“लगा था। हर दिन।”
फिर उसने उसकी ओर देखा —
“पर शायद कुछ कहने में देर हो गई।”

आरती की आँखों से आँसू टपक पड़े।
वो बोली —
“देर नहीं हुई थी, बस ज़िंदगी जल्दी बदल गई।”

वो दोनों वहीं खड़े रहे —
दो लोग, दो अधूरी कहानियाँ,
और एक पल जो किसी जन्म जैसा लंबा था।

फिर आरती ने आँसू पोंछे,
टिफिन टेबल पर रखा, और कहा —
“चलती हूँ।”

विवेक ने कुछ नहीं कहा।
बस देखा —
जैसे वो फिर जा रही हो,
वही तरह, जैसे सालों पहले गई थी।

पर इस बार उसके कदमों की आवाज़
दिल तक उतर गई थी।


(“कुछ बातें लिखने के लिए होती हैं, कहने के लिए नहीं।”)

रात के दस बज चुके थे।
स्कूल खाली था।
दीवारों पर टंगी घड़ी की टिक-टिक के अलावा कोई आवाज़ नहीं थी।

विवेक अपनी डेस्क पर बैठा था —
सामने खुली कॉपी, और पास में पड़ी पेन।
आँखों में वही तस्वीर घूम रही थी —
आरती की।

दिन भर की मुलाक़ात उसके ज़हन में बार-बार लौट रही थी।
वो “कैसी हो” और “ठीक हूँ” जैसे शब्द अब उसके दिल पर बोझ बन गए थे।
कहने को बहुत कुछ था, पर वक्त ने उसकी ज़ुबान बाँध दी थी।

उसने पेन उठाया —
धीरे-धीरे, जैसे हर अक्षर एक याद को छू रहा हो।


> “आरती,

पता नहीं ये खत कभी तुम्हारे हाथों तक पहुँचेगा या नहीं,
पर कुछ बातें दिल में रखकर अब और जी नहीं पा रहा हूँ।

जब तुम गई थीं, उस दिन से मैंने किसी से भी ज़्यादा खुद से लड़ाई की है।
कामयाबी मिली, पर सुकून नहीं।
हर सुबह तुम्हारे बिना अधूरी रही,
हर शाम तुम्हारे नाम पर खत्म हुई।

आज जब तुम्हें देखा —
तो लगा जैसे वक्त ने मुझे वहीं ला खड़ा किया है जहाँ सब छूट गया था।
बस फर्क इतना है कि अब हमारे बीच एक ज़िंदगी है,
जो वापस नहीं आ सकती।

मैं कुछ नहीं चाहता,
बस इतना कि अगर कभी दिल में खाली जगह बचे,
तो समझ लेना —
कोई था जो अब भी तुम्हारे नाम से साँस लेता है।”





विवेक ने खत खत्म किया।
हाथ काँप रहे थे।
आँखें भीग चुकी थीं।

उसने खत को तह किया, और अगले दिन आर्यन की किताब में रख दिया —
एक मासूम बच्चे की किताब में,
जो नहीं जानता था कि उसके बैग में किसी की ज़िंदगी रखी है।

फिर वो कुर्सी पर पीछे झुक गया,
आँखें बंद कीं,
और सोचा —
“कभी-कभी प्यार का सबसे सच्चा रूप वही होता है,
जहाँ कुछ नहीं कहा जाता।”



(“कुछ खत ज़िंदगी नहीं बदलते, लेकिन साँसों की रफ़्तार ज़रूर बदल देते हैं।”)

सुबह का वक्त था।
आरती रसोई में थी —
आर्यन स्कूल जाने की जल्दी में था, वही रोज़ का हंगामा।

“मम्मी जल्दी, आज मैडम होमवर्क चेक करेंगी!”
आरती ने मुस्कुराते हुए बैग बढ़ाया,
“सब रख लिया न?”

“हाँ!”
वो भागते-भागते दरवाज़े तक पहुँचा, फिर बोला,
“अरे हाँ, वो नई किताब! कल सर ने दी थी!”

आरती ने किताब उठाई, खोली —
बीच में कुछ गिरा।
एक मुड़ा हुआ पन्ना।
पुराना, थोड़ा पीला पड़ा हुआ।

वो झुकी, पन्ना उठाया।
धीरे-धीरे खोलने लगी।
पहला शब्द पढ़ा — आरती…

हाथ वहीं ठहर गए।
समय जैसे ठिठक गया।


हर लाइन पढ़ते हुए उसके अंदर कुछ टूट रहा था,
कुछ जाग भी रहा था।

विवेक की लिखावट वही थी —
थोड़ी झुकी हुई, लेकिन साफ़।
हर शब्द में सच्चाई थी, और हर सच्चाई में दर्द।

> “हर सुबह तुम्हारे बिना अधूरी रही…”

“अगर कभी दिल में खाली जगह बचे…”



इतना पढ़ते ही उसकी आँखों में आँसू उतर आए।
वो कुर्सी पर बैठ गई,
और खत को छाती से लगा लिया।

वो कुछ नहीं कह रही थी,
बस साँसें भारी हो रही थीं।


खिड़की के बाहर धूप खिली थी,
पर उसके अंदर जैसे कोई पुरानी बरसात लौट आई थी।

वो याद करने लगी —
वो दोपहरें जब विवेक किताब लिए उसके आँगन में आता था,
वो चाय का प्याला,
वो छोटी-छोटी हँसी जो अब बस याद थी।

आज सालों बाद वो सब लौट आया था —
बस फर्क ये था कि अब कोई “कल” नहीं बचा था।

वो खुद से बुदबुदाई —
“क्यों नहीं कहा तुमने… क्यों नहीं?”

आँसू पन्ने पर गिरे।
स्याही फैल गई।
पर अब वो लफ्ज़ मिट नहीं सकते थे।


शाम को जब आर्यन घर लौटा,
वो बस मुस्कुराई —
“आज सर कैसे थे?”

“अच्छे हैं मम्मी। बोले बहुत दिन बाद मुस्कुराए हूँ।”

आरती ने चुपचाप उसकी कॉपी में वो खत फिर रख दिया —
धीरे से,
जैसे कोई दुआ वापस वहीं रख दी हो जहाँ से निकली थी।

(“कुछ रिश्ते आवाज़ नहीं करते, बस चुपचाप लिखे जाते हैं।”)

रात का वक्त था।
घर में सब सो चुके थे।
आरती खिड़की के पास बैठी थी —
हाथ में वही खत, जो अब तक सैकड़ों बार पढ़ चुकी थी।

हर बार पढ़ने पर लगता था जैसे लफ्ज़ नए हों,
जैसे कोई उसकी साँसों में फुसफुसा रहा हो —
“तुम अब भी वहीं हो।”

उसने धीरे से कागज़ निकाला, और लिखना शुरू किया।
हाथ काँप रहे थे, पर दिल साफ़ था।


> “विवेक,

तुम्हारा खत मिला…
नहीं जानती कैसे, पर मिला।

पढ़ते वक्त ऐसा लगा जैसे सालों की नींद टूट गई हो।

तुमने लिखा — ‘अगर कभी दिल में खाली जगह बचे।’

सच कहूँ तो, वो जगह कभी भरी ही नहीं।
बस समय के परदे डाल दिए थे ताकि कोई देख न सके।

माँ अब नहीं हैं,
घर अब वो नहीं रहा,
पर जब भी अकेली होती हूँ,
लगता है जैसे तुम अब भी यहीं कहीं हो —
उसी सन्नाटे में जहाँ कभी हम बात किया करते थे।

मैं नहीं जानती ये लिखना ठीक है या नहीं,
पर अगर तुम्हारा लिखा एक बार मेरे तक पहुँच सकता है,
तो शायद मेरा लिखा भी किसी हवा के ज़रिए तुम्हारे पास पहुँच जाए।

बस इतना याद रखना —
ज़िंदगी ने बहुत कुछ छीना,
पर जो नाम दिल ने लिखा, वो अब भी मिटा नहीं।”


खत लिखकर उसने उसे तह किया।
अगले दिन, जब आर्यन स्कूल गया,
तो उसने चुपके से वही खत उसकी किताब में रख दिया —
ठीक वैसे ही जैसे विवेक ने किया था।

और फिर…
खतों का वो अनकहा सिलसिला शुरू हो गया।

हर हफ़्ते एक खत।
कभी विवेक की टेबल पर, कभी आर्यन के बैग में।
दोनों एक-दूसरे के लिए लिखते रहे,
बिना बोले, बिना मिले,
बस शब्दों में साँस लेते हुए।

कभी विवेक लिखता —

> “तुम्हारे खत की खुशबू अब भी वैसी है, जैसे पुराने दिनों की बारिश।”



कभी आरती जवाब देती —

> “कुछ यादें धूल नहीं बनतीं, बस दिल के कोनों में ठहर जाती हैं।”



समय बीतता गया।
खतों की संख्या बढ़ती गई,
पर दूरी वही रही।
दोनों जानते थे कि ये खत किसी मंज़िल तक नहीं ले जाएँगे —
बस रास्ता थोड़ा कम अकेला बना देंगे।