The Love That Was Incomplete - Part 3 in Hindi Horror Stories by Ashish Dalal books and stories PDF | वो इश्क जो अधूरा था - भाग 3

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वो इश्क जो अधूरा था - भाग 3


रात का सन्नाटा कमरे में छाया हुआ था। अपूर्व प्रेम रस पीने के बाद नींद के आगोश में समाया हुआ था । तभी अचानक कमरे के दरवाजे पर बार-बार खटखटाने की आवाज़ गूँजी।
अपूर्व की नींद टूटी , उसने इधर उधर देखा, अन्वेषा बैड पर नहीं थी उठकर दरवाज़े की ओर बढ़ा । किसी ने फिर दरवाजा खटखटाया । अपूर्व उठा और उसने दरवाजा खोल दिया। बाहर खड़ी थी उसकी छोटी बहन, केशा, जिसके चेहरे पर चिंता साफ़ झलक रही थी।
“भैया, सब ठीक तो है ? आपके कमरे से थोड़ी देर पहले चीखने की आवाजें आ रही थी ? केशा ने सवाल किया, उसकी आवाज़ में बेचैनी थी।
अपूर्व ने हैरानी से उसकी तरफ देखते हुए कहा, “जरुर तूने कोई भयानक सपना देखा होगा। यहाँ कुछ भी तो नहीं है....।” उसने केशा को टालते हुए दरवाजा बंद कर दिया।
केशा ने कुछ और कहना चाहा, लेकिन अपूर्व ने उसका हाथ पकड़कर कमरे से बाहर निकाल दिया। जब केशा चली गई, अपूर्व वापस कमरे में आया। तभी उसे बाथरूम से किसी के धीमे स्वर में गाने की आवाज सुनाई दी । अपूर्व उस तरफ गया तो वो आवाज आना बंद हो गई और तभी अन्वेषा जोर से चीखती हुई बाहर निकली ।
अपूर्व उसकी इस हरकत से पहले तो बुरी तरह घबरा गया लेकिन फिर उसे अन्वेषा का कोई और मजाक समझ उसका हाथ पकड़ उसे कहा, “प्लीज यार ! अब इस वक्त कोई और मजाक मत करो….चलो सो जाओ ….बहुत नींद आ रही है …” लेकिन अन्वेषा ने उसकी बात काटते हुए कहा , 
“अपूर्व... हमें जाना होगा... उस पुराने पीपल के पास...” उसकी आवाज़ में अब कुछ अलग सी ठहराव और आग्रह था। उसका चेहरा अभी भी थका हुआ था, लेकिन उसकी आँखों में एक अजीब सी चमक थी, जो पहले कभी अपूर्व ने नहीं देखी थी।
अपूर्व ने नर्म आवाज़ में समझाने की कोशिश की, “अन्वेषा, अभी रात हो चुकी है। तुम थकी हुई हो। कल सुबह जाकर देखेंगे।”
लेकिन अन्वेषा ने अपने हाथ जोर से पकड़कर कहा, “नहीं, मुझे जाना होगा। वही जगह, वही पेड़... वहां कुछ छिपा है। मुझे जाना ही होगा।”
अपूर्व ने उसे शांत करने की कोशिश की, लेकिन अन्वेषा का व्यवहार अचानक बदल गया। उसकी आवाज और और तीखी हो गई । उसकी आँखों में डरावनी चमक थी, जैसे कोई और उसकी ज़ुबान से बोल रहा हो।
“मुझे मत रोको... मुझे जाना होगा!” उसने जोर से कहा।
अपूर्व को अब समझ में आने लगा था कि यह सामान्य स्थिति नहीं है। अन्वेषा के भीतर कोई अजीब सी शक्ति जाग उठी थी, जो उसकी हिम्मत और इच्छा को दबाने नहीं दे रही थी।
“ठीक है, मैं तुम्हें ले चलूँगा... पर तुम्हें मेरी बात माननी होगी।” अपूर्व ने गंभीरता से कहा।
पर अपूर्व की बात बीच में काटते हुए अन्वेषा ज़ोर से चिल्लाई —
"अभी चलना होगा, अभी! रुखसाना ने सौ साल इंतज़ार किया है, अब एक और रात नहीं रुक सकती!"
उसकी आवाज़ जैसे किसी और ही ज़माने से आ रही थी — भारी, धीमी और डरावनी। अपूर्व की रीढ़ की हड्डी में एक सिहरन सी दौड़ गई। लेकिन उसने खुद को संभालते हुए कहा —
"ठीक है, चलो... मैं तुम्हें वहाँ लेकर चलूँगा, लेकिन पहले तुम थोड़ा पानी पी लो, तुम्हारी तबीयत ठीक नहीं लग रही।"
"मुझे पानी नहीं चाहिए, मुझे नासीर चाहिए!"
अन्वेषा की आँखें जैसे आग बरसा रही थीं, और उसके चेहरे पर अजीब सी सफेदी छाई हुई थी — मानो सारा खून उसके शरीर से खिंचकर कहीं चला गया हो।
अपूर्व ने जल्दी से शॉल उठाया, उसे ओढ़ाया और कार की चाबी लेकर अन्वेषा के साथ बाहर निकल गया ।
चारों ओर सन्नाटा पसरा था, हवा जैसे ठहर सी गई थी। पीपल की शाखाएँ चाँदनी में किसी काली चुड़ैल की तरह झूल रही थीं। कार वहां रुकते ही अन्वेषा बिना रुके बाहर निकल गई।
"नासीर!" उसने आवाज़ लगाई, जो गूंजते हुए रात की छाती चीर गई।
अपूर्व धीरे-धीरे पीछे आया और एक पेड़ की ओट में खड़ा हो गया। उसने देखा — अन्वेषा की चाल अब उसकी सामान्य चाल नहीं थी, जैसे वो तेजी से चलते हुए हवा में तैर रही थी।
तभी अचानक, पीपल की जड़ों के पास की मिट्टी हिलने लगी। वहाँ कुछ था — शायद कोई छिपी हुई क्रब? या कोई दबा हुआ रहस्य?
"नासीर... मैं आ गई..." अन्वेषा के होंठ थरथरा रहे थे।
अचानक, एक साया झाड़ियों के पीछे से लहराया। अपूर्व की साँसें थम गईं। वह ज़मीन पर झुककर देखने लगा — वहाँ कुछ था, जो धीरे-धीरे उसकी तरफ आ रहा था। एक आदमी की आकृति, जिसकी आँखें तेज़ी से चमक रही थीं।
"रुखसाना..." वह फुसफुसाया।
"नासीर!" अन्वेषा दौड़कर उसकी ओर लपकी — लेकिन तभी...
"रुको!" अपूर्व चीखा।
उसकी चीख सुनते ही वह आकृति पल भर में ग़ायब हो गई, जैसे कभी थी ही नहीं। अन्वेषा वहीं जड़ हो गई।
"क्यों रोका मुझे? वो... वो यहीं था... वो मेरा नासीर था!"
"नहीं, अन्वेषा... ये सिर्फ एक छलावा था। किसी ने तुम्हें बहकाया है। तुम रुखसाना नहीं हो... तुम मेरी अन्वेषा हो।"
लेकिन अन्वेषा अब वापस नहीं आ रही थी। उसकी आँखें फिर से बदल चुकी थीं — जैसे उनमें सिर्फ एक ही नाम बस चुका हो — नासीर।
अपूर्व ने अन्वेषा को धीरे से पकड़ रखा था, लेकिन अन्वेषा की आँखें उस पेड़ को घूर रही थीं, मानो कोई पुराना राज़ खोलने को आतुर।
और उसी क्षण, पेड़ की छाया के पीछे से एक आवाज़ गूँज उठी, जो उनकी हिम्मत और विश्वास दोनों को परखने वाली थी।
पेड़ की छाया के पीछे से आई वह सिहरन भर देने वाली आवाज़ हवा में गूंज रही थी — मानो कोई रूह किसी नब्ज़ को छू रही हो।
"रुखसाना..."
नाम जैसे हवा में गूंजा और अन्वेषा की आंखों में एक अजीब सी चमक तैर गई।
अपूर्व के रोंगटे खड़े हो गए। वह तेजी से पलटा और चारों ओर देखा — कोई नहीं था। लेकिन वह जानता था, कुछ था... कुछ जो नजर नहीं आ रहा था, पर मौजूद था।
अन्वेषा अचानक आगे बढ़ गई। उसने पेड़ के पास जाकर एक जगह पर घुटनों के बल बैठते हुए मिट्टी को छूना शुरू कर दिया। उसकी उंगलियाँ ज़मीन को ऐसे कुरेद रही थीं जैसे कोई गुप्त चिन्ह पहचान रही हो।
“अन्वेषा! क्या कर रही हो?” अपूर्व ने घबराकर पूछा।
लेकिन वह सुन नहीं रही थी। उसकी आंखें अब पूरी तरह से बदल चुकी थीं — उनमें न तो वो मासूमियत थी, न ही डर। उसमें एक अजीब सी व्याकुलता थी
“यहां कुछ था... यहीं कहीं... उसने वादा किया था कि लौटेगा... .” अन्वेषा का गला भर्राया हुआ था, जैसे सदियों की पीड़ा उसके भीतर समा गई हो।
अपूर्व धीरे-धीरे उसकी तरफ बढ़ा, और जैसे ही उसने अन्वेषा को छुआ … फिर एक पल के लिए सब शांत हो गया।
अन्वेषा ने उसकी तरफ देखा। उसकी आँखों में अब नफरत नहीं, एक अजीब सी करुणा थी। और वह बोली —
“मैं रुखसाना हूँ... और तुम... तुम आग़ाज़ हो...”
ये नाम... आग़ाज़... अन्वेषा ने फिर से उसे इस नाम से पुकारा तो उसकी साँसे जैसे रुक सी गई ।