Family of Shadows in Hindi Detective stories by Sagar Joshi books and stories PDF | Family of Shadows - Part 4

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Family of Shadows - Part 4


थाने के रिकॉर्ड रूम में सिर्फ़ दीमक की खटखटाहट थी और अर्जुन मेहरा की साँसों की आवाज़।
उसने पुरानी अलमारी खोली — अंदर धूल से ढकी फ़ाइलें, जिन पर तारीखें इतनी पुरानी थीं कि उंगलियाँ कांप गईं।

> अर्जुन (धीरे से खुद से): “देवयानी कपूर... असली नाम क्या है तुम्हारा?”



फ़ाइल निकली — “केस नं. 47/2001 — Missing Woman : Devika Sharma.”
उसने फ़ोटो देखी — वही चेहरा, वही आँखें, वही रहस्यमय मुस्कान।
नाम बदला था, पर चेहरा नहीं।

देविका शर्मा ही देवयानी कपूर थी।
या शायद... वो कोई तीसरी औरत थी, जिसने दोनों की ज़िंदगी ले ली थी।


अर्जुन सीधे सत्यनगर मोहल्ले पहुँचा।
शहर के कोने में पड़ी पुरानी हवेली अब सिर्फ़ लोगों की फुसफुसाहटों में जिंदा थी।
कहा जाता था, वहाँ अब भी कोई औरत रातों को गुनगुनाती है — पुराने रेडियो की धुन पर।

अर्जुन ने गेट धकेला — चीईईईक...
जंग लगे दरवाज़े की आवाज़ ने पूरे मोहल्ले का सन्नाटा तोड़ दिया।
अंदर टूटी दीवारें, सड़ी लकड़ी की गंध और हवा में किसी पुराने परफ्यूम की झलक थी।

कमरे के कोने में कुछ लिखा था —
"मैं देवयानी नहीं हूँ..."
उसने दीवार को छुआ — उंगलियों में सूखा हुआ खून लगा।

अर्जुन (सिहरकर): “तो कौन थी तू...?”



दीवार की दरारों से हवा गूंजने लगी — जैसे कोई जवाब देने की कोशिश कर रहा हो।

आसमान में बादल उमड़ रहे थे, और हवेली के आस-पास कुत्ते भौंक रहे थे।
अर्जुन मेहरा ने टॉर्च हाथ में ली और हवेली के भीतर कदम रखा।

फ़र्श पर धूल की मोटी परत थी, लेकिन कुछ ताज़े पैरों के निशान भी — किसी और के आने का सबूत।
हवा में अचानक वही ख़ुशबू — वही परफ्यूम जो उसने पहली बार देवयानी के कमरे में महसूस की थी।

> अर्जुन (धीरे से): “यहाँ कोई है?”



कोई जवाब नहीं।
बस ऊपर की मंज़िल से किसी के चलने की आवाज़ — ठक... ठक... ठक...

वह सीढ़ियाँ चढ़ा।
दीवारों पर पुराने फ़ोटो टँगे थे — सबके चेहरे धुंधले, लेकिन एक फ़ोटो ने उसे रोक लिया।
वो देवयानी की थी... पर उसके पास खड़ा आदमी राजेश कपूर नहीं था।
कोई और था — अंधेरे में आधा चेहरा छिपा हुआ।

 अर्जुन (बुदबुदाते हुए): “तो ये खेल... बहुत पुराना है।”



पीछे से एक ठंडी हवा का झोंका आया।
टॉर्च बुझ गई।
अंधेरे में बस एक धीमी सी आवाज़ गूंजी —
“तुम्हें नहीं आना चाहिए था, अर्जुन...”

वह पलटा — लेकिन वहां कोई नहीं था।
सिर्फ़ कमरे के बीच में रखी एक पुरानी डायरी खुली पड़ी थी, उसके पन्ने खुद-ब-खुद पलट रहे थे।
अर्जुन ने टॉर्च फिर चालू की।
डायरी के पन्ने पर लिखा था —

"मेरी पहचान, मेरी मौत के साथ मर चुकी है... अब सिर्फ़ एक नाम बचा है — देवयानी..."

अचानक ऊपर से फ़ोटो फ़्रेम गिरा — काँच चटक गया।
उसने नीचे देखा — फ़ोटो के पीछे किसी ने एक और नाम उकेरा था —
“दिव्या।”

 अर्जुन (सदमे में): “देवयानी... देविका... और अब दिव्या? आखिर तुम हो कौन?”



बाहर बिजली गरजती है।
हवेली की दीवारें जैसे जवाब में काँप उठती हैं।
अर्जुन धीरे-धीरे पीछे हटता है, पर तभी फ़र्श की दरार से किसी के कदमों की आवाज़ फिर आती है —
कदम... जो उसके पीछे बढ़ रहे थे।


टॉर्च झपकती है।
एक सफेद साया उसके पीछे से गुज़रता है — बाल हवा में लहराते हुए, होंठों पर आधी मुस्कान।
और दूर किसी पुराने ग्रामोफोन से वही आवाज़ गूंजती है —

"जाने कौन थी वो औरत... जो मरकर भी ज़िंदा थी..."


रात गहरी थी, मगर हवेली अब भी जाग रही थी।
हर कमरे की दीवारें जैसे कुछ कहने की कोशिश कर रही थीं —
और अर्जुन मेहरा, अपनी टॉर्च और फाइलों के साथ, सच के एक और दरवाज़े के सामने खड़ा था।

तहख़ाने की सीढ़ियों के पास रखे लोहे के संदूक में उसे एक पुरानी डायरी मिली —
नीली जिल्द, किनारों पर फटी हुई, और ऊपर लिखा था बस एक नाम —
“D”

अर्जुन ने दस्ताने पहने, धीरे से पहला पन्ना खोला।
लिखावट नर्म थी, लेकिन हर शब्द में डर घुला हुआ था।

> “मैंने ये हवेली छोड़ी थी, मगर हवेली ने मुझे नहीं छोड़ा।
रघुनाथ कहते हैं, अतीत को दफन कर दो —
पर कुछ चीज़ें ज़मीन के नीचे भी साँस लेती रहती हैं…”



अर्जुन ने गहरी साँस ली।
“देवयानी…” वह बुदबुदाया।

दूसरे पन्ने पर तारीख़ धुंधली थी — 1995।

> “आज मुझे अपना नाम बदलना पड़ा।
अब मैं ‘देविका शर्मा’ हूँ।
अगर कोई पूछे, तो मैं सत्यनगर में नहीं रहती।
पर क्या सच इतना आसान होता है?”



अर्जुन की आँखों में हलचल सी दौड़ी।
उसने नोटबुक में लिखा —
देवयानी = देविका शर्मा? झूठी पहचान?

उसने सावंत को आवाज़ दी,
“सत्यनगर हवेली की पुरानी एंट्री चेक करो — वहाँ किसी देविका शर्मा का ज़िक्र तो नहीं?”

सावंत बोला, “सर, वही जगह जहाँ रघुनाथ देशमुख के पार्टनर रहते थे…”
“मतलब,” अर्जुन ने बीच में कहा, “देवयानी सिर्फ़ जान-पहचान नहीं थी — वो बिज़नेस की परछाई भी थी।”

उन्होंने तीसरा पन्ना खोला।

> “वो मुझसे कहते हैं कि सब ठीक हो जाएगा…
लेकिन जब भी मैं दर्पण में देखती हूँ,
मुझे अपने पीछे वही तीन निशान दिखाई देते हैं…”



अर्जुन ने तुरंत फाइल से वह पुरानी तस्वीर निकाली —
रघुनाथ के साथ खड़ा वो आदमी… जिसकी गर्दन पर तीन दाग़ थे।

“देवयानी उसी से जुड़ी थी,” अर्जुन ने बुदबुदाया।
“और शायद वही राजेश की मौत की जड़ है।”

डायरी का चौथा पन्ना फटा हुआ था, बस आधा वाक्य पढ़ने लायक बचा था —

> “अगर मेरे साथ कुछ हो जाए, तो उस तस्वीर के पीछे लिखा नाम पढ़ना…”



अर्जुन की नज़र तुरंत राजेश की फटी तस्वीर पर गई —
पीछे वही शब्द लिखे थे:
“पाप का फल हमेशा यहीं मिलता है।”

वो कुर्सी पर पीछे झुका।
कमरे में सन्नाटा था, पर दिमाग़ में सब गूँज रहा था —
देवयानी, देविका, तीन निशान, और रघुनाथ देशमुख।

सावंत धीरे से बोला,
“सर, एक बात और — सत्यनगर हवेली अब भी देशमुख परिवार के नाम पर है।
और अजीब बात ये है… उस हवेली का रजिस्टर 1995 से बंद पड़ा है,
उस तारीख़ के बाद किसी ने वहाँ दस्तख़त नहीं किए।”

अर्जुन ने आँखें संकरी कीं।
“1995… वही साल जब देवयानी का नाम बदला गया था।”

वो धीरे से बोला — “सत्यनगर हवेली ही असली जवाब रखती है।
और शायद, वो हवेली भी उतनी ही जागती है जितनी ये।”

उसने डायरी बंद की।
अंदर स्याही अब भी नम थी — जैसे किसी ने उसे अभी-अभी लिखा हो।

हवेली के आँगन में चुप्पी थी —
ऐसी चुप्पी जो कानों को चीर दे।
हवा में अब भी धूप और राख की गंध घुली हुई थी।

अर्जुन मेहरा सीढ़ियों पर खड़ा हवेली को देख रहा था।
उसके चेहरे पर गहरी सोच थी —
जैसे सारे टुकड़े जुड़ने लगे हों, लेकिन तस्वीर अब भी अधूरी हो।

सावंत ने फाइल बढ़ाई —
“सर, रिपोर्ट आ गई है। राजेश के कमरे में जो उंगलियों के निशान मिले थे… उनमें से एक सविता मैडम के भी हैं।”

अर्जुन ने बिना पलक झपकाए कहा —
“सिर्फ़ कमरे में होना अपराध नहीं…
पर सवाल ये है कि वो वहाँ थीं कब?”

सावंत ने कहा —
“मौत से लगभग एक घंटा पहले।”

अर्जुन की निगाहें ठंडी हो गईं।
“मतलब जब सब सोच रहे थे कि वो अपने कमरे में थीं… वो दरअसल राजेश के पास थीं।”

वो धीरे से उठा और सविता के कमरे की ओर चला गया।

कमरा पुराना था, हर चीज़ करीने से सजी हुई।
टेबल पर रघुनाथ देशमुख की वही पुरानी तस्वीर रखी थी —
और उसके बगल में एक बंद अलमारी।
अर्जुन ने धीरे से कहा —
“सच्चाई हमेशा सबसे संभाले हुए कोनों में छिपी होती है।”

उसने अलमारी खोली।
अंदर एक लकड़ी का डिब्बा था।
डिब्बा खोला —
अंदर वही देवयानी की डायरी की एक और कॉपी,
और कुछ पुराने पत्र।

पत्रों पर स्याही धुंधली थी, पर एक नाम साफ़ दिख रहा था —
रघुनाथ देशमुख — सविता के नाम।

> “सविता, अगर कभी मेरे बाद कुछ हो, तो इस हवेली की रखवाली तुम करना।
किसी को सच मत बताना, वरना सब खत्म हो जाएगा।
देवयानी को मैंने वही सज़ा दी जो उसे मिलनी चाहिए थी…”



अर्जुन के माथे पर पसीना आ गया।
“मतलब रघुनाथ और देवयानी के बीच जो हुआ, सविता सब जानती थी।”

सविता पीछे से बोलीं —
“वो सज़ा नहीं थी, इंसाफ था।”

अर्जुन मुड़ा —
सविता दरवाज़े पर खड़ी थीं, उनकी आँखों में आँसू नहीं थे, बस एक ठंडापन था।

“आप वहाँ क्यों गईं उस रात?” अर्जुन ने पूछा।
“क्योंकि राजेश सब जान चुका था,” सविता बोलीं।
“वो सबको बताने वाला था कि उसके पिता ने क्या किया था।
मैंने सिर्फ़ उसे रोकने की कोशिश की।”

“और जब उसने नहीं माना?” अर्जुन ने पूछा।
सविता की आवाज़ काँपी —
“मैंने उसे मारा नहीं…
पर हाँ, दरवाज़ा मैंने ही बंद किया था… ताकि कोई अंदर न आए।”

सावंत बोला, “लेकिन सर, दरवाज़ा अंदर से बंद था—”

अर्जुन ने उसे रोका,
“वो दरवाज़ा पुराना था, अंदर से लॉक करने के बाद बाहर से खींचने पर अपने आप बंद हो जाता था।
मतलब, सविता बाहर से निकलीं… पर सबको लगा, राजेश ने खुद बंद किया।”

सविता ने धीरे से कहा —
“वो मेरी आख़िरी गलती थी।”

कमरे में सन्नाटा छा गया।
सिर्फ़ दीवारों की पुरानी घड़ी टिक... टिक... टिक... करती रही।

अर्जुन ने ठंडे स्वर में कहा —
“तो देवयानी का नाम क्यों आया इस कहानी में?”
सविता की आँखों में आँसू उतर आए।
“क्योंकि देवयानी ही थी, जिसने इस घर को शाप दिया था।
रघुनाथ ने जो किया, मैं छुपाती रही…
अब लगता है, उस पाप का वक़्त आ गया है।”

अर्जुन ने धीरे से कहा —
“आपने पाप छुपाया, और अब वही पाप आपके परिवार को खा रहा है।”

सविता ने दीवार की ओर देखा —
जहाँ रघुनाथ की तस्वीर टंगी थी।
उनकी आवाज़ भारी हो गई —
“उसने देवयानी को हवेली की तहख़ाने में ज़िंदा दफना दिया था…”

अर्जुन की सांस रुक गई।
“क्या कहा आपने?”

सविता की आँखें ठंडी थीं, मगर आवाज़ काँप रही थी —
“हाँ… और राजेश को वो जगह मिल गई थी।”

कमरे में गूंज उठी दीवारों की घड़ी —
2:03 AM.

सविता फुसफुसाईं —
“हर रात वही वक़्त लौट आता है…
क्योंकि देवयानी वहीं अब भी साँस ले रही है।”