वो चुंबन जिसे कार्तिक झेलने को मजबूर था
कुछ बातें ऐसी होती हैं जिन्हें हम चुनते नहीं…
कुछ रास्ते ऐसे होते हैं जिन पर हम ज़िद से नहीं,
बल्कि ज़रूरत से चलते हैं।
और कुछ कदम ऐसे होते हैं
जिन्हें हम हज़ार बार रोकना चाहते हैं…
फिर भी उठाने पड़ते हैं।
कार्तिक की ज़िंदगी इस वक़्त
इन्हीं तीनों का मिला-जुला तूफ़ान थी।
वह आर्यन के साथ खड़ा था —
हाथ साइड में, आँखें स्थिर,
चेहरा उतना ही शांत जितना किसी अभिनय का चेहरा होता है…
पर भीतर?
भीतर एक पूरा तूफ़ान धधक रहा था।
उसे खुद से नफ़रत थी कि उसे
यही सब करना पड़ रहा है —
उस आदमी के साथ खड़ा होना,
जिसकी वजह से अंधेरे में कितनी चीखें जन्मी थीं।
पर आज…
आज उस मजबूरी की इंतिहा थी।
आर्यन अचानक उसकी तरफ झुक आया।
उस पल कार्तिक के कानों में
अंश की हर चीख गूँज उठी।
उसके शरीर में पूरी तरह एक ठंडा डर उतर गया।
उसने पलकों को काँपते हुए नीचे गिरा लिया —
मानो खुद को अंदर से पत्थर बना रहा हो।
और तभी,
आर्यन ने उसे चूम लिया।
वह चुंबन न प्यार था,
न स्नेह…
वह एक घोषणा थी,
एक कब्जा,
एक अहंकार।
और कार्तिक?
उसे लगा जैसे
दिल के भीतर एक साथ
हज़ारों सुइयाँ उतर आई हों।
हर सुई
एक याद,
एक वादा,
एक अपराधबोध,
एक मजबूरी।
उसका दिल चिल्लाया —
“अंश, मुझे माफ़ कर देना…”
पर होंठों पर कोई आवाज़ नहीं आई।
चेहरा ठहरा रहा,
वही शांत अभिनय…
जिसकी कीमत उसकी आत्मा हर सेकंड चुका रही थी।
आर्यन मुस्कुराकर पीछे हटा,
बिल्कुल बेफ़िक्र।
उसे लगा कार्तिक उसके करीब आ रहा है,
उसके जाल में नर्म पड़ रहा है।
उसे जरा भी अंदाज़ा नहीं था कि
कार्तिक की इस एक खामोशी ने
उसके विनाश की पहली ईंट रख दी है।
कार्तिक ने गहरी साँस ली —
आँखें फिर से खोलीं।
उसकी पुतलियों में अब दर्द नहीं था…
सिर्फ़ ठंडा, बहुत ठंडा फैसला था।
"जो भी कीमत पड़े… मैं उसे पूरा करूँगा।
तुम्हें भी… और तुम्हारे किए हर ज़ुल्म को भी।"
दरवाज़ा बंद होने के बाद कार्तिक का टूटना
कमरे का दरवाज़ा बंद होते ही
बाहर की सारी आवाज़ें गायब हो गईं।
जैसे दुनिया अचानक रुक गई हो
और सिर्फ़ उसकी साँसों का कंपन रह गया हो।
कार्तिक धीरे-धीरे दीवार की तरफ़ गया।
उसके कदम लड़खड़ा रहे थे—
इतने धीमे कि ऐसा लगता था
जैसे हर कदम उसके शरीर से कुछ निकाल ले रहा हो।
दीवार तक पहुँचकर
वह खुद को रोक नहीं पाया।
उसने पीठ दीवार से टिका दी
और धीरे-धीरे नीचे बैठ गया…
कपकपाते हाथ
ठंडे फ़र्श पर टिक गए।
उसकी आँखों में
एक पल को सब धुंधला हो गया—
उस चुंबन की याद,
आर्यन का अहंकार,
अपनी मजबूरी,
और अंश का टूटता हुआ चेहरा…
सब एक साथ उसके सामने आ गया।
उसकी साँसें तेज़ हो गईं।
दिल इतनी तेज़ी से धड़क रहा था
जैसे अभी सीने से बाहर निकल जाएगा।
और पहली बार—
कार्तिक का चेहरा खुला।
वह उस अभिनय से बाहर आ गया
जो वह पूरे दिन करता रहा था।
शांत मुस्कान गायब हो गई,
और उसकी जगह आई—
सच्ची, गहरी, घायल टूटन।
उसने अपना चेहरा दोनों हाथों में छिपा लिया।
पहला आँसू गिरा…
न बहुत ज़ोर से,
न बहुत साफ़,
बस बहुत भारी।
फिर दूसरा।
फिर तीसरा।
उसके कंधे काँप रहे थे—
एकदम चुप, मगर दर्द से भरे हुए।
वह फूटकर रोना चाहता था,
पर उसकी आवाज़ गले में फँसी रह गई—
जैसे रोने का हक़ भी उसने खुद से छीन लिया हो।
कुछ देर बाद
उसने आँखें उठाईं।
उन आँखों में दर्द अभी भी था…
लेकिन कुछ और भी था।
एक ठंडा, अडिग संकल्प।
एक ऐसा फ़ैसला
जो किसी भी कीमत पर नहीं टूटेगा।
उसने धीमे-धीमे
अपने आँसू पोंछे।
वह उठ कर खड़ा हुआ—
कदम अभी भी कमज़ोर थे,
पर आँखें अब स्थिर थीं।
उसने आईने में खुद को देखा।
आईने में वही चेहरा था—
जो अभी कुछ देर पहले
किसी की मजबूरी बन रहा था।
पर अब?
उसने धीरे से फुसफुसाया:
“तुमने मेरी आत्मा नहीं ली, आर्यन…
तुमने बस मेरे बदले की आग को भड़काया है।”
उसने अपना कॉलर ठीक किया,
आँखें सूखी,
चेहरा फिर उसी शांति में ढलता हुआ—
जिस शांति में सबसे बड़ा जाल छिप सकता था।
और फिर उसने आख़िरी बार खुद से कहा—
“अंश… मैं वादा करता हूँ।
हर दर्द का हिसाब दूँगा।
मैं टूटा नहीं हूँ…
मैं बस तैयार हुआ हूँ।”
कमरे में अँधेरा था—
पर उसकी आँखों में अब
एक नई रोशनी जन्म ले रही थी।
रात गहराई थी।
यूनिवर्सिटी के हॉस्टल की इमारतें हल्की पीली रोशनी में चमक रही थीं।
और आर्यन अपने कमरे में खड़ा था —
आईने के सामने, होंठों पर वही मुस्कान…
जो किसी शिकारी को पहली बार अपने शिकार की कमजोरी दिखने पर आती है।
चुंबन का पल अब भी उसके होंठों पर तैर रहा था।
उसे याद था कि कार्तिक की पलकें काँपी थीं,
हाथ थोड़े कांपे थे,
और उसकी साँस एक पल को रुक गई थी।
आर्यन ने इसे डर नहीं…
बल्कि समर्पण समझा।
वह धीरे-धीरे आईने के करीब गया—
अपनी ही मुस्कान को देखकर होंठों को छुआ और बोला,
“तो आखिर तुम टूट ही गए, कार्तिक…”
वह हँसा।
वह ऐसे हँसा जैसे उसने कोई बड़ी लड़ाई जीत ली हो।
उसके दिमाग़ में सिर्फ़ एक ही ख़्याल घूम रहा था:
कार्तिक अब सिर्फ़ उसका है।
उसकी दुनिया का हिस्सा।
उसके आदेशों, उसकी नज़रों, उसकी हवा में साँस लेने वाला।
वह अपनी कुर्सी पर जाकर बैठा,
मोबाइल उठाया, और कार्तिक की एक तस्वीर देखी—
जो उसने चुपके से क्लिक की थी।
तस्वीर में कार्तिक का चेहरा शांत था,
पर आर्यन को उसमें एक “मासूमियत” नज़र आई,
जिसे वह अपनी जीत समझ बैठा।
“मेरे जैसा आदमी… और वो मेरे इतना करीब?”
उसके चेहरे पर घमंड की एक परत और मोटी हो गई।
वह अपने गुंडे दोस्तों की याद में हँसा—
“उन्हें क्या पता…
तुम इतने आसानी से नहीं मिलते, कार्तिक…
तुम कोई आम लड़का नहीं।
तुम मेरे बराबर की जीत हो।”
उसने कल्पना की कि कल कार्तिक उससे कैसे बात करेगा—
कैसे धीरे से नज़रें झुकाएगा,
कैसे उसके पास आया करेगा,
कैसे उसे देख कर थोड़ा हिचकेगा…
और यह सब उसके अहंकार को और बड़ा बना रहा था।
आर्यन ने अपनी उँगलियाँ मेज पर टिकाईं,
हल्की थाप दी, और गर्व से फुसफुसाया—
“अब मैं जानता हूँ…
तुम्हें कैसे संभालना है।
तुम मेरे हाथों में हो, कार्तिक।”
वह उठा, खिड़की की ओर गया,
और बाहर के अँधेरे में झाँका।
हवा बह रही थी,
पर उसके अंदर एक तरह की गर्मी दौड़ रही थी—
विजय की गर्मी।
उसे यह नहीं पता था
कि उसी समय,
दूसरी तरफ उसके चुंबन से टूटने वाला कार्तिक
अपना दर्द बदले की आग में पका रहा है।
उसे यह नहीं पता था
कि जिस “करीब आने” को वह जीत समझ रहा है,
वह दरअसल
उसकी हार की सबसे पहली सीढ़ी है।
आर्यन खिड़की के पास खड़ा होकर मुस्कुराया—
एक अजीब, आत्मविश्वासी, बेपरवाह मुस्कान।
“अब खेल शुरू होगा,” उसने सोचा।
“और इस खेल में जीत सिर्फ़ मेरी होगी।”
उसे यह नहीं मालूम था कि
खेल शुरू हो चुका है…
पर मोहरे उसके नहीं —
कार्तिक के थे।
अगली सुबह कैंपस की हवा में हल्की सी ठंडक थी।
पेड़ों पर पड़े पत्तों से धूप छन-छन कर ज़मीन पर गिर रही थी।
आर्यन हमेशा की तरह अपनी बाइक के पास खड़ा था,
दोस्तों के साथ मज़ाक करते हुए—
पर उसकी नज़र बार-बार एक ही दिशा में जा रही थी।
कार्तिक।
वह धीरे-धीरे आती पगडंडी से चलकर आ रहा था—
नीचे झुकी हुई नज़रें,
हल्की-सी संकोचभरी चाल,
और हाथों की उँगलियाँ अपनी ही शर्ट के किनारे से खेलती हुईं…
जैसे किसी ने उसकी दुनिया अचानक बदल दी हो।
आर्यन के चेहरे पर एक मुस्कान फैल गई।
वह फौरन दोस्तों की बातें आधी छोड़कर
सीधा उसकी तरफ बढ़ गया।
“Good morning…”
उसने धीमी, थोड़ा नर्म आवाज़ में कहा।
कार्तिक हल्का चौंका।
वह अचानक पीछे देखता है,
जैसे थोड़ा डर गया हो कि कहीं कोई देख तो नहीं रहा।
“ग… गुड मॉर्निंग…”
उसकी आवाज़ इतनी धीमी थी
कि शायद हवा भी मुश्किल से सुन पा रही थी।
आर्यन उसके करीब आया—
वह दूरी जो कल रात टूटी थी,
आज फिर पिघलती दिख रही थी।
“तुम ठीक हो न?”
आर्यन ने पूछा, आँखें उसकी आँखों में गड़ा कर।
कार्तिक की साँस हल्की सी फँस गई।
उसने होंठ भींचे,
नज़रें झुका लीं
और बस इतना कहा:
“म… मुझे समझ नहीं आ रहा…
मैं कैसे कहूँ…”
उसका गला काँप रहा था।
वह पीछे हटना चाहता था,
पर वही एक पल—
उस रुकने और हिचकिचाने का—
आर्यन को पूरी तरह जंजीरों में बाँध गया।
आर्यन ने हल्की मुस्कान देकर
उसके कंधे पर हाथ रखा।
जब हाथ रखा गया,
कार्तिक थोड़ा पीछे हटा—
जैसे स्पर्श अभी भी उसे असहज कर रहा हो,
जैसे उसे पिछले रात की याद झटका दे रही हो।
आर्यन को लगा:
यह "डर" नहीं…
यह "कमज़ोर पड़ना" है।
“मैं… मैं तुम्हें avoiding नहीं कर रहा…”
कार्तिक ने धीमे-से कहा,
“बस… कल की बात…
मेरे लिए बहुत अचानक थी।”
आर्यन के होंठों पर
विजयी मुस्कान फैली।
“अचानक?”
वह हल्के से हँसा।
“लेकिन तुम्हें… बुरा तो नहीं लगा?”
कार्तिक ने सीधे नज़र उठाने की हिम्मत नहीं की।
उसने सिर हिलाया—
“नहीं… बुरा नहीं।”
उसकी आवाज़ हल्की—
शर्मीली—
और काँपती थी।
वह ऐसे बोल रहा था
जैसे खुद से लड़ रहा हो…
जैसे वह अपने दिल और दिमाग़ के बीच झूल रहा हो।
आर्यन ने हाथ उसकी ठुड्डी के पास ले जाकर
बहुत हल्के से कहा—
“अरे… मुझे लगा था तुम मुझसे दूर भागोगे।”
कार्तिक थोड़ा पीछे हुआ,
दिल पकड़ते हुए,
नज़रें गड़ाते हुए ज़मीन पर—
“मैं… मैं दूर नहीं भाग रहा… बस… थोड़ा डर रहा हूँ।”
इस वाक्य ने आर्यन के दिल में
एक ऐसी खुशी भरी
जो पागलपन की हद छूती थी।
आर्यन ने उसके कान के पास झुककर कहा—
“डरो मत… जब मैं हूँ।”
कार्तिक का गला सूख गया।
उसने हिचकिचाते हुए धीरे से सिर हिलाया—
जैसे किसी ने उसके दिल पर ताला लगा दिया हो।
आर्यन ने हाथ छुड़ाते हुए एक गहरी साँस ली—
उसके चेहरे पर ऐसा भाव था
जैसे उसने कोई खजाना पा लिया हो।
उसने अपने दोस्तों की तरफ़ देखा—
और आँखों ही आँखों में बोले:
"मैं जीत गया। वो अब मेरा है।"
दोस्तों ने मुस्कुराया।
दूर खड़ा कार्तिक—
जो अपने काँपते हाथ छिपाने की कोशिश कर रहा था—
अंदर ही अंदर सोच रहा था:
“हाँ आर्यन…
तुम जीत समझ लो।
क्योंकि तुम्हारी असली हार अब शुरू होगी।”
अगले दिन जब कैंपस की घास पर धूप तिरछी पड़ रही थी,
आर्यन अपने दोस्तों के साथ पुराने ओक के पेड़ के नीचे बैठा था।
सब हँस रहे थे, मज़ाक कर रहे थे।
आर्यन का मूड किसी दरिंदे की जीत जैसा हल्का था।
और तभी
रघु ने आँखें सिकोड़कर कहा—
“सुना है… कल रात तुम और कार्तिक ज़्यादा देर तक साथ थे?”
आर्यन ने उसका चेहरा देखा,
उसकी आँखों में वह चमक थी
जो सिर्फ़ गंदे दिमाग़ वाले लोग लाते हैं।
अमन ने तुरंत कहा—
“हाँ, यार… कुछ तो हुआ होगा।
वरना कार्तिक आज इतना नर्म क्यों चल रहा है?”
सबके चेहरे पर वही उघड़ा हुआ हास्य था,
वही भद्दे ताने,
वही छुपे हुए इशारे।
आर्यन ने पहले मज़ाक में टालना चाहा,
पर उसके सीने में अचानक
एक अपरिचित, तेज़ चुभन हुई।
जलन।
स्वामित्व।
और शक।
रघु ने आगे झुककर धीमे से कहा—
“अगर वो इतना पास आ गया है…
तो फिर…” तुम उससे...
वह वाक्य पूरा नहीं बोला—
पर उसकी मुस्कान
बाकी सब कह गई।
बाकी लड़के हँसे—
वही जहरीली हँसी।
अमन ने फिर कहा—
“चल न, आर्यन!
कल रात तभी तो तू इतना खुश था।
अब दोस्ती में कुछ बाँटना तो बनता है, है न?”
आर्यन का चेहरा बदल गया।
उसकी हँसी गायब।
आँखें सिकुड़ गईं।
क्या , बाँटना?”
उसने कड़ाई से पूछा।
अमन ने होंठों पर घिनौनी मुस्कान लाई—
“अरे… आर्यन भाई…जानते ही हो......
जो तुम्हारा
वो हमारा है, और जो हमारा है ,वो तुम्हारा है।
तुम तो समझते ही हो।
कार्तिक जितना सुंदर है—
हम भी तो…”उसे चखना....
पर उसके वाक्य पूरे होने से पहले
आर्यन ने उसे धक्का दे दिया।
पूरा ग्रुप सन्न।
आर्यन की आँखों में
पहली बार डर नहीं,
हिंसा नहीं,
बल्कि एक बहुत अजीब
और पागलपन के करीब
स्वामित्व दिखा।
उसने दाँत भींचकर कहा—
“कार्तिक कोई चीज़ नहीं है।
वो सिर्फ़…मेरा है.....
मेरी बात समझ रहे हो?”
दोस्तों ने एक-दूसरे को देखा—
अशुभ-सी मुस्कानें एकदम रुक गईं।
उन्हें लगा कि आर्यन अचानक बहुत संवेदनशील हो गया है
उस लड़के के लिए।
अमन धीरे से बोला—
“अरे… सही है यार।
गुस्सा क्यों हो रहा है?
हम तो मज़ाक कर रहे थे…”
पर उनकी आँखों में
जिज्ञासा और दुष्टता
दोनों मौजूद थीं।
---
उसी समय…
थोड़ा दूर खड़ा था कार्तिक।
वह सब नहीं सुन पाया।
पर उसने दो बातें ज़रूर देखीं—
दोस्तों के चेहरे पर वह भूखी, जली हुई हँसी
और आर्यन की आँखों में छिपी वह पागल चमक
उसकी रीढ़ में ठंडक दौड़ गई।
उसे महसूस हुआ—
ये खतरनाक हैं।
बहुत खतरनाक।
और अब…
अब वे उस पर नज़रें गड़ाने लगे हैं।
लेकिन उसके चेहरे पर
फिर भी वही मासूम, हिचकिचाती मुस्कान रही—
जैसे उसे कुछ पता ही न हो।
आर्यन अचानक उठकर उसकी ओर चला।
उसकी चाल तेज़ थी, आँखें तीखी।
कार्तिक के दिल ने
एक झटका खाया—
डर से नहीं,
बल्कि उस अभिनय को निभाने के लिए
जिसकी उसे कीमत चुकानी होगी।
आर्यन उसके पास आया और गर्दन झुकाकर बोला—
“आज मेरे साथ लंच करना।
कहीं मत जाना।
सिर्फ़… मेरे साथ।”
उस आवाज़ में
पज़ेसिवनेस थी।
हक़ था।
और उस हक़ का भार
किसी की साँस रोक सकता था।
कार्तिक ने धीरे से सिर हिलाया।
उसकी पलकों में वही डर और शर्म
जिसे देखकर आर्यन को लगता
कि कार्तिक उसके अधीन आ रहा है।
पर भीतर?
भीतर कार्तिक के मन में चल रहा था—
“तुम जितना मुझे अपना समझोगे,
उतनी ही तबाही होगी, आर्यन।
तुम्हें अंदाज़ा नहीं…
तुमने मेरी तरफ एक कदम बढ़ाया,
और मौत की तरफ दो।”
यूनिवर्सिटी की कैंटीन सुबह की भीड़ से थोड़ी खाली थी।
खाना लेने की कतार टूट-टूटकर चल रही थी,
कुछ छात्र बातों में उलझे थे,
कुछ मोबाइल में खोए।
पर बीच टेबल पर —
आर्यन पहले से बैठा था।
कुर्सी के पास हाथ टिकाए,
ठुड्डी पर तीखी उँगली,
और आँखें लगातार दरवाज़े पर टिकीं।
वह किसी की प्रतीक्षा नहीं कर रहा था—
वह अपने शिकार के आने का इंतजार कर रहा था।
और तभी
कार्तिक अंदर आया।
धीरे-धीरे,
नज़रें झुकी हुईं,
कंधे सिकुड़े हुए—
जैसे भीड़ में भी वह किसी भारी याद के बोझ में दबा हो।
आर्यन की आँखों में
तुरंत एक तीखी चमक आई।
उसने टेबल पर हाथ से एक जगह खाली की—
और आँखों से आदेश दिया,
“यहाँ बैठो।”
कार्तिक ने पलभर को उसकी ओर देखा—
साँस अटकती हुई,
चेहरा मासूम-सा तनाव में,
फिर चुपचाप आकर बैठ गया।
सीट पर बैठते ही
आर्यन थोड़ा झुककर उसके करीब आया।
“आज तुम देर से आए हो।”
आवाज़ धीमी थी,
लेकिन उसमें नाराज़गी का हल्का ज़हर था।
कार्तिक घबरा गया,
हाथ कप से खेलते हुए बोला—
“सोचा… शायद तुम्हें—”
आर्यन ने बात काट दी।
उसके हाथ ने मेज पर रखा कार्तिक का हाथ हल्के दबाव से रोक लिया।
“मेरे बारे में सोचना चाहिए, कार्तिक।”
उसकी आवाज़ धीमी,
पर आदेश से भरी हुई।
कार्तिक पलकें झपकाने लगा—
थोड़ा डर,
थोड़ा संकोच,
और थोड़ा वह अभिनय
जो आर्यन को उसके जाल में गहराई तक खींच रहा था।
आर्यन ने फिर कहा—
“जब मैं तुम्हें बुलाऊँ…
तुम आते हो।
समझे?”
कार्तिक ने सिर झुकाकर
धीमे से “हाँ” कहा।
आर्यन मुस्कुराया—
एक ऐसी मुस्कान
जो खुशी की नहीं,
मालिकाना अधिकार की थी।
वह और करीब आया।
इतना कि उसके शब्द
कार्तिक के कान को छूकर गुज़रे।
“और हाँ…”
उसने फुसफुसाया,
“आज कोई और तुम्हारे साथ नहीं बैठेगा।
ना रघु,
ना अमन,
ना कोई और।
तुम सिर्फ़… मेरे साथ।
समझे या समझाऊँ?”
कार्तिक हल्का सा काँप गया।
वह दिखा भी—
जैसे डर उसकी त्वचा से निकलकर हवा में फैल रहा हो।
पर उसकी आँखों में
एक छोटा-सा “बाँध” भी था—
जिसे सिर्फ़ वह खुद समझता था।
बदले का बाँध।
“मैं… कोशिश करूँगा…”
उसने धीरे से कहा।
आर्यन ने उसका हाथ जरा ज़ोर से दबाया—
इस बार बहुत स्पष्ट अधिकार के साथ।
“कोशिश नहीं,
आदत बनाओ।”
कार्तिक का गला सूख गया।
उसने पलकें नीचे गिराईं।
और आर्यन?
आर्यन ने उस पलक झुकाने को
अपनी सबसे बड़ी जीत समझ लिया।
---
उसी वक्त
कैंटीन के एक कोने से
कुछ दोस्त यह सब देख रहे थे।
उनके चेहरों पर आश्चर्य था—
पहली बार उन्होंने देखा
कि आर्यन किसी पर इतना पागलों जैसा हक़ दिखा रहा है।
अमन बोला—
“यार…
यह तो सचमुच फँस गया है कार्तिक में।”
रघु ने धीरे कहा—
“और जब आर्यन किसी चीज़ को अपना मान ले…
तो फिर कोई उसे छुड़ा भी नहीं सकता।”
उन्हें यह नहीं पता था—
कि कार्तिक न आर्यन का है
और न होगा।
वह बस
आर्यन को उसकी खुद की बनाई आग में
जलने के लिए तैयार कर रहा था।
“ये अब प्यार नहीं… पागलपन है”
दोपहर का समय था।
लॉन में स्टूडेंट इधर-उधर बैठे थे।
धूप हल्की थी, हवा ठंडी।
आर्यन एक पेड़ के पास खड़ा था—
हाथ छाती पर बाँधे,
आँखें दूर कहीं टिकी थीं।
दूर से
कार्तिक अपने दोस्तों के साथ क्लास से निकल रहा था।
हँस नहीं रहा था,
पर उसके चलने में एक शांत दूरी थी—
वही दूरी जो आर्यन को सहन नहीं हो पाती।
जैसे ही उसने कार्तिक को दूसरे लड़कों के साथ देखा,
उसका जबड़ा कस गया।
मुट्ठी हल्की-सी बंध गई।
आँखों में एक अजीब-सी सख्ती उतर आई।
रघु ने उसके चेहरे को देखते ही भांप लिया।
“भाई… आराम कर।
वो बस क्लास से निकल रहा है।”
आर्यन कुछ नहीं बोला।
सिर्फ़ कार्तिक को देखता रहा—
जैसे उसकी हर साँस गिनी जा रही हो।
अमन ने मज़ाक के मूड में हल्का धक्का दिया—
“क्या यार, हर वक्त उस पर नज़र रखनी ज़रूरी है क्या?”
आर्यन ने अपनी धीमी, ठंडी आवाज़ में कहा—
“ज़रूरी नहीं…
लाज़मी है।”
दोनों दोस्त चुप हो गए।
उन्हें अंदाजा नहीं था
कि ये बात आर्यन इतनी गंभीरता से बोलेगा।
आर्यन अचानक आगे बढ़ा—
सीधा कार्तिक की दिशा में।
रघु और अमन उसके पीछे-पीछे।
कार्तिक ने अभी आर्यन को आते नहीं देखा था।
वह अपनी किताब बैग में रख रहा था।
जैसे ही उसने सर उठाया,
आर्यन उसके बिल्कुल सामने खड़ा था।
बहुत पास।
“कहाँ जा रहे थे?”
आर्यन की आवाज़ में
एक शांत, लेकिन खतरनाक वजन था।
कार्तिक थोड़ा सकपकाया—
“मैं… बस हॉस्टल जा रहा था—”
“किसके साथ?”
आर्यन ने तुरंत पूछा।
उसके दोस्त पीछे खड़े होकर एक-दूसरे को देखने लगे।
ये पूछने का तरीका
बिल्कुल सामान्य नहीं था।
कार्तिक ने धीरे से कहा—
“बस… क्लासमेट्स थे।”
आर्यन और करीब झुका—
इतना कि कार्तिक को पीछे हटना पड़ा।
“मुझे पसंद नहीं
कि तुम किसी और के साथ ज्यादा घूमो।”
पल भर को
सन्नाटा छा गया।
रघु फुसफुसाया—
“भाई… ज़रा शांत—”
पर आर्यन ने उसे हाथ से चुप करा दिया।
आँखें अभी भी कार्तिक पर टिकी थीं।
अमन ने एक कदम पीछे हटते हुए रघु से कहा—
“यार… यह ठीक नहीं लग रहा।
ये अब उस पर नज़र रखने से बढ़कर कुछ और है।”
रघु ने धीरे उत्तर दिया—
“मुझे डर लग रहा है…
ये आर्यन पहले वाला नहीं रहा।”
आर्यन की आवाज़ अचानक नरम हुई—
खतरनाक नरमी।
“तुम मेरी बात समझते हो,
है न कार्तिक?”
कार्तिक ने अपना अभिनय बखूबी निभाते हुए
थोड़ा झेंपकर सिर झुका लिया।
“हाँ… समझता हूँ…”
आर्यन मुस्कुराया—
धीमी, पज़ेसिव मुस्कान।
उसका हाथ आगे बढ़ा और उसने
कार्तिक के कंधे को मजबूती से पकड़ लिया।
“अच्छा है।
क्योंकि मैं तुम्हें खोना नहीं चाहता।”
कार्तिक का चेहरा सहमी मासूमियत से भरा था।
पर अंदर…
वही बदले की आग धधक रही थी।
---
लेकिन वहीं दूसरी तरफ…
आर्यन के दोस्त अब निश्चित हो चुके थे:
**“ये प्रेम नहीं…
ये पागलपन है।”**
उन्होंने एक-दूसरे को देखते हुए तय किया—
आर्यन के बदलते व्यवहार को
अनदेखा करना आसान नहीं होगा
रात लगभग 10 बज चुकी थी।
हॉस्टल की इमारतों में धीरे-धीरे रोशनी कम हो रही थी,
लड़कियाँ और लड़के अपने-अपने कमरों में जा रहे थे,
कई खिड़कियाँ बंद हो चुकी थीं।
पर हॉस्टल के गेट के पास—
हल्की पीली स्ट्रीट लाइट के नीचे,
एक साया बिल्कुल स्थिर खड़ा था।
आर्यन।
उसके हाथ जेब में,
चेहरा तना हुआ,
और आँखें एक ही दिशा में टिकी हुईं—
कार्तिक के कमरे की बालकनी पर।
हवा ठंडी थी,
पर आर्यन के माथे पर हल्की पसीने की परत थी—
यह ठंड का नहीं,
अंदर की बेचैनी का पसीना था।
कई छात्र उसके पास से गुज़रे—
कुछ ने उसे देखा,
कुछ ने नज़रें चुरा लीं।
एक लड़के ने धीमे से कहा—
“यार, ये कब से खड़ा है यहाँ?”
दूसरे ने फुसफुसाया—
“करीब एक घंटे से।
कह रहा था कार्तिक को देखना है।”
उन दोनों ने कंपकपी भरी हँसी में कहा—
“भाई… ये अब डरावना होता जा रहा है।”
पर आर्यन यह सब नहीं सुन रहा था।
उसका दिमाग सिर्फ़ एक बात में अटका था—
कार्तिक कमरे में है?
सो रहा है?
किससे बात कर रहा है?
किसके साथ?
वह यह सब जानना चाहता था—
ज़रूरी नहीं…
बल्कि मजबूरी की हद तक।
हर थोड़ी देर में
वह अपनी घड़ी देखता,
फिर बालकनी की ओर।
वह कदम आगे-पीछे करता—
एक जानवर की तरह
जो अपने शिकार के बाहर पहरा दे रहा हो।
अचानक हॉस्टल का दरवाज़ा खुला।
कार्तिक बाहर निकला—
हाथ में पानी की बोतल लिए।
थोड़ा थका-थका,
नींद से भारी आँखें।
जैसे ही उसने देखा कि आर्यन गेट पर खड़ा है,
उसका दिल एक धड़कन के लिए रुक गया।
होठ हल्का सूख गए।
“आ… तुम यहाँ?”
कार्तिक ने पूछा,
शर्माए हुए, धीमे स्वर में।
आर्यन एकदम उसके पास आया।
एकदम नज़दीक।
इतना नज़दीक
कि कार्तिक को पीछे हटना पड़ा।
उसकी आवाज़ पागलपन की कगार पर थी—
धीमी, लेकिन चुभती हुई:
“तुमने दरवाज़ा बंद कर दिया था।
तो… मुझे लगा तुम नींद में हो।
या…”
उसने वाक्य अधूरा छोड़ा,
पर आँखें खुद ही कह गईं:
या किसी और के साथ?
कार्तिक ने धीरे से सिर हिलाया—
“नहीं… मैं बस सोने ही जा रहा था।”
आर्यन ने उसकी कलाई पकड़ी—
बहुत हल्का,
पर इतना कि डर महसूस हो जाए।
“मुझे तुम्हें देखना था…
बस यह जानना था कि तुम यहाँ हो।”
यह “देखना”
किसी प्रिय की चिंता नहीं थी।
यह कब्ज़ा था।
पागलपन था।
एक ऐसे आदमी का दावा
जो डरता है कि उसका “हक़” उससे छिन जाएगा।
कार्तिक ने अपनी साँस रोकते हुए कहा—
“मैं… मैं यहीं हूँ।
कहीं नहीं गया।”
आर्यन के चेहरे की कठोरता
थोड़ी ढीली हुई।
उसने गहरी साँस ली—
जैसे कोई बहुत बड़ा डर कुछ पल के लिए हट गया हो।
“अच्छा,”
उसने धीमे से कहा।
“बस… तुम अचानक गायब मत होना।
मुझे अच्छा नहीं लगता।”
कार्तिक ने हिचकिचाते हुए
थोड़ा शर्माया हुआ अभिनय किया—
“हूँ… ठीक है।”
आर्यन ने आख़िरी बार
उसके चेहरे को एक टेढ़ी, पज़ेसिव मुस्कान से देखा।
“Goodnight, Kartik.
और याद रखना…
मैं हमेशा पास ही हूँ।”
वह मुड़ा
और धीरे-धीरे रात के सन्नाटे में चला गया।
लेकिन उसकी परछाईं में
एक पागलपन की परत थी
जो किसी भी वक़्त फट सकती थी।
कार्तिक ने दरवाज़े पर हाथ टिकाकर
गहरी साँस ली—
और खुद से धीमे से कहा:
“हाँ, आर्यन…
तुम पास हो।
बहुत पास।
इसलिए…
तुम्हारी मौत भी अब दूर नहीं है।”
कार्तिक अगले दिन आर्यन से और ज़्यादा डरा-सहमा दिखता है—ताकि आर्यन पूरी तरह जाल में आ जाए।