Yaado ki Sahelgaah - 15 in Hindi Biography by Ramesh Desai books and stories PDF | यादो की सहेलगाह - रंजन कुमार देसाई (15)

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यादो की सहेलगाह - रंजन कुमार देसाई (15)

   

                    : : प्रकरण :  15

       हसमुख ज़ब चाहे तब मेरे ससुराल में जा सकता था. लेकिन मैं नहीं जा सकता था. मैं एक दामाद था. यह बात भूल गया था. और सुहानी के प्रति लगाव होने से मैं ज़ब चाहूं तब उन के घर चला जाता था. उस बात पर ललिता पवार ने मुझे ताना मारा था. और मैंने ससुराल जाना बंद किया था. और सुहानी को गुजारिश की थी. 

        " रोज रात को मैं बाहर चाली में बैठूंगा.. तुम आकर मुझ से बात करना. मुझे अच्छा लगेगा. "

        उस ने मेरी बात का अमल भी किया था और वह मुझ से बातें करने आती थी.

        मैं उसे बहन मानता था. इस लिये मैंने उसे गुजारिश की थी

        " तुम मुझे बड़ा भाई कहोगी? "

        " क्यों? " उस ने सवाल किया था.

       " मुझे वोही अच्छा लगता हैं."

         और उस ने मुझे बड़ा भाई कहना शुरू किया था.   

          लेकिन वह केवल औपचारिक बनकर ऱह गया था. ' गुड़ मोर्निंग बड़ा भाई, ' ' गुड़ आफ्टरनून बड़ा भाई ' और ' गुड़ नाइट बड़ा भाई' ' तक सिमित ऱह गया था. उस में कोई फीलिंग्स नहीं थी. वह दिल को छूता नहीं था.

      मैंने उसे राखी बांधने की गुजारिश की थी. उस पर सुहानी ने मुझे कहां था.

       उस की मा उस के लिये मना कर रही हैं. 

       उन्होंने अपनी बेटी को सलाह दी थी. भगवान ने जो रिश्ता बनाया हैं उसे बदलना नहीं चाहिये. यह सुनकर हसमुख ने भी बिना मांगी इस बात में हामी भर दी थी.

      ललिता पवार ने भाई बहन के रिश्ते का अपमान किया था. उन्हें लगता था. हम भी उन्ही के रास्ते चलेंगे. इस लिये उन्होंने मना कर दिया था.

       अगर रिश्ता बदलना गलत था तो उन्होंने ने क्यों अपनी बेटी को अनिश को राखी बांधने का सुझाव दिया था? 

        मेरा बेटा छह महिने का हो गया था. दिवाली का त्यौहार चल रहा था. जोरदार, धमाकेदार फटाखो की आवाज से उस की आँखों को असर हो गया था. वह टेढी हो गई थी.

       उस वक़्त अमरिका जाने मैंने आँखों के काबिल डोक्टर भारत आये थे. उन्होंने ने मुंबई में एक शिबिर आयोजित की थी. उन्होंने ने ओपरेशन की मदद से उस की आंखे सीधी कर दी थी.

      ना जाने ललिता पवार के परिवार पर कोई कुदरती प्रकोप था. अंधेपन की बीमारी पारिवारिक हो गई थी. जो ना जाने कब से चली आ रही थी, जो लड़की के लडके को ही होती थी. 

       मेरे साले को यह बीमारी थी. ना जाने उस के पहले किस को यह बीमारी थी? वह कब से चली आ रही थी?

       यह कैसी बीमारी थी जिस का सारे विश्व में कोई उपचार नहीं था. 

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        एक दिन दोपहर को बड़ी मा ने फोन कर के मुझे अपने घर बुलाया था. सुहानी अनिश के साथ भागने को उतारू हो गई थी. लेकिन वह लोग पकडे गये थे. इस स्थिति में उस की सलामती के लिये उन्होंने ने मुझे कहां था :

       " जमाई बाबू कुछ दिन के लिये तुम्हारी लाडली साली को अपने घर ले जाओ. "

       कुछ भी बात थी. वह मेरे घर आ रही थी. वह मेरे लिये खुशी की बात थी.

       वह मेरे घर नहीं आती थी. उस की वजह याद आते ही मुझे दुःख होता था.

      उस के लिये भी कलमुआ हसमुख ही जिम्मेदार था.

      वह मेरे घर आई थी. उस बात से मेरे मात पिता को भी अचरज हुआ था. वह मेरे घर आई थी. उस बात से हसमुख को तकलीफ हुई थी.

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       सुंदर की आँखों की बीमारी मेरे लिये बड़ी चिंता का विषय बन गया था.

       उस के मैंने जो भी दरवाजा था वह खटखटाया था. लेकिन उस की बीमारी का हल नहीं मिला था.

       उस की आँखों की नसे सुख गई थी.

       उस के लिये मैं आंध्र प्रदेश के पुत्पर्टी गांव में स्थित सत्य श्री साई बाबा की अस्पताल ले गया था.

        वहाँ दुनिया भर के सारे डोकटरो का काफिला मौजूद था. राउंड टेबल कांफ्रेंरेन्स भरी हुई थी. उस में मुझे बताया गया था:

        " इस बीमारी का हाल में तो कोई इलाज नहीं हैं. आगे जाकर हो सके भविष्य में उस का कोई इलाज मिल जाये. "

         हम लोग मायूस होकर लौट आये थे.

         भगवान ने किस भूल की, पाप की सजा सुंदर को सजा दी थी? 

         वह कितना होशियार था, चालाक था. उस की याद शक्ति भी बड़ी तेज थी.

         उस के जन्म के दूसरे महिने मुझे ' प्रेम सन ' में जोब मिला था. 

         उस के पहले मैं एक पेंटिंग कांट्रेक्टर के वहाँ काम करता था. मुझे 175 रूपये मिलते थे लेकिन जोब मेरे लायक नहीं था. उस वक़्त एक बूढ़े बुजुर्ग उस ओफिस में आते थे. उस की सिफारिश से मुझे' प्रेम सन' में 150 रूपये पगार से नौकरी मिली थी.

       मैं शादी सुदा था, मेरे मात पिता मेरे साथ थे. मेरे हालात देखकर कंपनी के जूनियर भागीदार ने मुझे कहां था.

        " तुम्हारा पगार 200 रुपया हैं. "

        उन की बात सुनकर मुझे खुशी हुई थी. फिर बाद में कुछ कहे बिना हर तीसरे महिने मेरे पगार में 25 रुपया का बढ़ावा हो जाता था. इस तरह दो साल में मेरा पगार 350 हो गया था.

        मेरी करियर की मानो यहीं से शुरुआत हुई थी. मुझे यहाँ बहूत कुछ सिखने को मिला था. ओफिस के सारे काम मुझे खुद करने पड़ते थे इस वजह से मुझे बहुत कुछ सिखने को मिला था. सरकारी दफ्तर में आना जाना होता था. इसी लिये वहाँ कैसे काम होता था उस की जानकारी मिलती थी. सरकारी कर्मचारियों की पहचान हुई थी. उस का भी मुझे काफ़ी फायदा हुआ था.

       मैं किसी भी काम में पीछे नहीं पड़ता था.

       मेरे काम से दोनों भाई काफ़ी खुश थे.

       प्रेम सन के दो भागीदार थे : 

       अजय कुमार और विजय कुमार

       अजय कुमार बडे थे जो ज्यादा पढ़े नहीं थे. फिर भी उन में धंधे की पुरी समझ थी. उन्होंने ने अपने पिता से बहुत कुछ सिखा था.

       लेकिन उन में कुछ कमिया थी जिस की वजह से खुद के लिये काफ़ी दिक्क़ते पैदा हुई थी.. वह गुस्सैल और शक्की स्वभाव थे. इस लिये मेरी उन से ज्यादा बनती नहीं थी.

       उन्होंने सुदान में किसी पार्टी को डुबोया था. पार्टी ने उन पर केस किया था और उन्हें कोर्ट ने देश निकाल का आदेश दिया था.

       और वह स्वदेश लौट आये थे. और उन्होंने नीचे से शुरुआत की थी.

                   000000000000  ( क्रमशः)