ढाका, 1965 – उमस, बारिश और धीमी जलती मोहब्बत
भाग 1: उसका दीदार… जैसे हवा भी ठहर जाए
कमलगंज की गली में पहली बार जब रुबैया ने हसन को देखा,
बारिश हल्की थी—
पर उसके दिल की धड़कनें तेज़।
उसने हसन को पेड़ के नीचे बच्चों को पढ़ाते देखा।
कुरता भीगा हुआ, बाल माथे पर चिपके हुए,
और उसके होठों पर वो नरम, धीमी मुस्कान…
रुबैया की उंगलियाँ अनजाने में दुपट्टे को कसने लगीं।
उसे समझ नहीं आया—
बारिश ज़्यादा गर्म थी… या वो।
हर दिन वह दूर खड़ी रहती,
पर उसकी आँखें एक पल के लिए भी हसन से हटती नहीं थीं।
जब हवा तेज़ चलती, उसके दुपट्टे का सिरा उड़कर उसके चेहरे को छू जाता,
और उसे लगता—
जैसे ये स्पर्श हसन का हो।
भाग 2: पहली नज़दीकी… पहली गर्माहट
एक शाम, भीगी मिट्टी की महक हवा में थी।
हसन बच्चों की कॉपी बाँट रहा था,
तभी रुबैया पास आई।
दुपट्टा हल्का सा भीगा हुआ,
बालों से पानी की छोटी बूंदें गिर रहीं थीं।
हसन ने पहली बार उसकी ओर देखा—
धीरे… लंबे वक्त तक…
उसकी नज़रें इतनी गहरी थीं कि
रुबैया की साँसें ही बदल गईं।
“आप इतने बच्चों को पढ़ाते क्यों हैं?”
हसन मुस्कुराया।
उसकी आवाज़ धीमी, रेशमी—
जिसमें अजीब सी गर्मी थी।
“क्यूँकि कुछ चीज़ें… दिल चाहता है कि दुनिया तक पहुँचे।”
रुबैया ने भी पहली बार…
बिना झिझक…
उसकी आँखों में सीधा देखा।
दोनों के बीच सिर्फ एक फुट का फ़ासला था,
पर उसमें इतनी बिजली थी
कि हवा भी कांपती महसूस हो।
भाग 3: नदी किनारे बढ़ती तपिश
रुबैया अब रोज़ नदी किनारे हसन के साथ बैठती।
बहाने पढ़ाई के होते,
पर असल में उन दिनों की हर शाम
दो दिलों के बीच बहती गरम हवा को ही लिखती थी।
कभी उसके हाथ बच्चों की किताब बढ़ाते समय
हसन की उंगलियों से हल्के से छू जाते।
वह छोटा सा स्पर्श…
सीधे दिल तक उतर जाता।
कभी हसन झुककर एक बच्चे को समझाता,
और उसका कंधा इतना पास होता
कि रुबैया को उसकी साँस अपने गाल पर महसूस होती।
उनके बीच कोई शब्द नहीं,
पर एक अधूरी सी प्यास थी
जो हर शाम और गहरी हो रही थी।
भाग 4: उबलती रात, भीगा चाँद और अनकही ख्वाहिश
एक रात ढाका में तेज़ तूफ़ान आया।
बिजली नहीं थी।
गाँव काला पड़ा था।
रुबैया छत पर खड़ी थी—
बारिश उसके चेहरे, गर्दन और जुल्फ़ों पर गिर रही थी।
अचानक उसने नीचे देखा—
हसन भी बारिश में खड़ा उसे देख रहा था।
पहली बार, दोनों ने एक-दूसरे को
अपने सबसे सच्चे रूप में देखा।
हसन धीरे-धीरे सीढ़ियों पर चढ़कर ऊपर आया।
बरसती बारिश के बीच
उसके करीब आकर खड़ा हो गया।
फासला…
अब सिर्फ दो साँसों का रह गया था।
रुबैया ने दुपट्टा कसकर पकड़ा,
पर आँखें झुकी नहीं।
हसन ने धीरे से कहा—
“रुबैया… तुम बारिश में और भी खूबसूरत लगती हो।”
उसकी आवाज़ में ऐसा कुछ था
जिसने रुबैया के पूरे शरीर में
हल्की-सी झुनझुनी दौड़ा दी।
वो रात—
दोनों के लिए हमेशा याद रहने वाली थी।
भीगी, गरम, सिहरती,
पर फिर भी पूरी तरह मासूम।
भाग 5: जुदाई की जलती तड़प
जब हसन को ढाका जाना पड़ा,
रुबैया टूट गई।
वह हर रात उसकी चिट्ठी पढ़ते हुए सोती,
और खुद ही सोचे हुए उसके स्पर्श…
उसकी साँसों…
उसकी गर्म आवाज़ को याद करती।
रातें लम्बी होती गईं।
ख्वाहिशें और भी लम्बी।
हर शाम वह नदी किनारे एक दीया जलाती,
जैसे कह रही हो—
“वापस लौट आओ…”
और दीये की लौ में
वह वही गर्माहट महसूस करती
जो हसन के पास होती थी।
भाग 6: उसकी वापसी… और अधूरी प्यास का भरना
1967 की एक साँझ,
जब सूरज ढल चुका था,
रुबैया ने देखा कि कोई धीमे कदमों से गाँव की गली में आ रहा है।
हसन।
कमज़ोर, थका हुआ,
पर आँखों में वही तपिश थी।
रुबैया उसके सामने आकर रुक गई।
दोनों ने कुछ नहीं कहा।
हसन ने सिर्फ अपना हाथ बढ़ाया—
बहुत धीरे, बहुत पास।
रुबैया ने वो हाथ पकड़ लिया।
दो सालों की दूरी
एक ही स्पर्श में पिघल गई।
धीमी आवाज़ में हसन ने कहा—
“मैं लौट आया… क्योंकि तुमने मुझे बुलाया।”
रुबैया की आँखें चमक उठीं।
उसकी उंगलियाँ हसन की उंगलियों में कस गईं।
और उनके बीच वही परिचित गर्माहट
फिर से जल उठी।
अंत: अनकही मोहब्बत अब अनकही नहीं रही
रुबैया ने कहा—
“हसन… मैंने तुम्हें हर रात महसूस किया है।”
हसन हल्के से मुस्कुराया—
“और मैंने हर रात तुम्हारी याद में जागा हूँ…”
उनकी उंगलियाँ आपस में गुंथी रहीं,
और नदी किनारे हवा गर्म हो उठी—
उसी तरह जैसे दो दिलों में
सालों से एक जलती हुई मोहब्बत बंद थी।
अब वो अनकही नहीं रही।