Ghost Samrat - 2 in Hindi Horror Stories by OLD KING books and stories PDF | भूत सम्राट - 2

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भूत सम्राट - 2

अध्याय 2 – 700 साल पुरानी हवेली


सुबह के 4:05 AM हो चुके थे।
मुंबई की नमी भरी हवा में अविन की पुरानी, काली Padmini Premier 'Padmini' धीरे से चॉल के बाहर खामोश हो गई। आज की रात बाकी रातों से जुदा थी। छह पैसेंजर... चार इंसान, और बाक़ी दो वो, जो अदृश्य थे— और उन अदृश्यों का एक अविश्वसनीय 'इनाम'। यह सब अब अविन के लिए 'नॉर्मल' हो चुका था, एक भयानक दिनचर्या। उसके रूममेट्स मोहन और सतीश को इसका ज़रा भी अंदाज़ा नहीं था कि उनके दोस्त की रोज़ी-रोटी 'असामान्य' पर टिकी है।
अविन ने गेट खोलकर कमरे में कदम रखा तो एक परिचित आवाज़ ने रात की चुप्पी तोड़ी—
> "अविन्न! तू आ गया? मैं नूडल्स गरम कर दूँ?"
यह मोहन था। गोल-मटोल, ख़ुशमिज़ाज और बिना सोचे-समझे बोलने वाला। मोहन ने एक गंदे तकिए को गले लगाया हुआ था, उसकी आँखें अभी भी नींद से बोझिल थीं।
> "पहले ये बता... फिर देर रात? टैक्सी में कोई सेलेब्रिटी मिला क्या?"
यह सतीश था। दुबला-पतला, चश्मा लगाए, हर बात की टेंशन लेने वाला। वह अपनी पतली रज़ाई के नीचे से झाँक रहा था, जैसे किसी खतरे की उम्मीद कर रहा हो।
दोनों ने उसे देखा— अविन थका हुआ था, उसका गहरा नीला शर्ट पसीने से भीगा था। उसकी डेनिम जैकेट उतरते ही, उसकी टी-शर्ट पर पसीने के धब्बे साफ़ दिख रहे थे।
मोहन ने झट से पंखा फुल-स्पीड पर कर दिया— "भाई, तू इतना पानी-पानी क्यों है? गर्मी लग रही क्या?"
अविन ने लापरवाही से झूठ बोला— "AC ख़राब हो गया था... इसीलिए।"
सतीश ने अपना चश्मा ठीक किया— "AC वाले राइडर अफ़ोर्ड करता है? कौन था? फ़िल्मस्टार?"
अविन हँस दिया, एक सूखी, खाली हँसी— "काश..." उसने कपड़े बदलकर चुपचाप, अपने कोने वाली बेड पर लेटकर, सोने की कोशिश की। दोनों रूममेट्स कुछ समझ नहीं पाए, बस अपने मज़ाक और नींद की फ़िक्र में लगे रहे।
सुबह 11:00 बजे।
ठक ठक ठक! ज़ोर-ज़ोर से दरवाज़ा पीटा गया। यह आवाज़ उस पुरानी चॉल के सन्नाटे में किसी विस्फोट जैसी थी।
मोहन चिल्लाया— "अरे कौन है सुबह-सुबह यार?! अविन अभी सोया है!"
> "शायद किराया माँगने आया होगा... मैं छिप रहा हूँ," सतीश फुसफुसाया, और तुरंत खुद को रज़ाई से ढँक लिया।
अविन नींद को धकेलकर उठा और दरवाज़ा खोला। उसकी आँखें अभी भी लाल थीं।
बाहर एक आदमी खड़ा था— काले कोट में, उसके हाथ में एक पुराना, भूरा रजिस्टर था। उसका चेहरा एकदम गंभीर था, जैसे वह कोई सरकारी अंतिम संस्कार करने आया हो।
> "आप अविन अविनाशी चौहान?"
> "जी..."
> "साइन कीजिए। आपके नाम का एक बहुत ज़रूरी पार्सल है।"
मोहन तुरंत पीछे से चिल्लाया— "फ़्री का है क्या भाई? गिवअवे-वग़ैरह?"
डिलिवरी वाला उसे ऐसे घूरकर चला गया जैसे मोहन ने किसी गोपनीय दस्तावेज़ को फाड़ दिया हो।
अविन अंदर आया। एक लकड़ी का भारी बॉक्स मेज़ पर रखा। बॉक्स पुराना, चिकना और धूल भरा था।
उसने बॉक्स खोला— अंदर पुराने, पीले पड़े दस्तावेज़, एक टूटी हुई लाल मोहर, और कढ़ाई वाली, भारी मखमली फ़ाइल थी।
कवर पर लिखा था—
> "द शेखावाटी एंसेस्ट्रल हवेली (700 साल पुरानी)"
> मालिक: अविन अविनाशी चौहान
> उत्तराधिकार: उनके माता-पिता से
अविन के हाथ काँप गए। हवेली! 700 साल पुरानी!
मोहन की आँखें चमकीं— "भाई... तू राजा निकला? वो भी राजस्थान वाला?!"
सतीश ने सिर खुजाया— "पर तेरे पेरेंट्स तो... मतलब... तूने कभी बताया नहीं..."
अविन चुप था। उसका गला भर आया था। यह किसी साज़िश या अजीब मज़ाक जैसा लग रहा था।
और तभी— उसके कान में धीरे से वही गूँजती हुई फुसफुसाहट आई—
> "अविन... तुम्हारा इनाम पहुँचा दिया गया है।"
अविन जम गया। मोहन और सतीश को कुछ सुनाई नहीं दिया।
मोहन ने मज़ेदार रिएक्शन दिया— "ये मिला कैसे? भाई तूने PUBG में रॉयल पास लिया है क्या?"
सतीश डरते हुए बोला— "मैं बोल रहा हूँ... ये पार्सल सस्पिशियस लग रहा है... हवास का फ़्रॉड है।"
अविन के लिए आवाज़ जारी रही, धीमी, पर स्पष्ट:
> "हवेली तब मिलेगी... जब तुम वहाँ जाकर लॉगिन करोगे। तुम्हें वहां जाकर अकेले एक रात बितानी है।"
अविन ने अपने मन में दोहराया: "लॉगिन??? हवेली का?"
आवाज़ गायब हो चुकी थी। कमरे में केवल तीनों लड़कों की साँसें थीं।
मोहन ने उसके कंधे पर हाथ रखा— "भाई... अगर ये सही निकला न... अपनी ज़िन्दगी बदल जाएगी। हम तीनों यहाँ के कमरे से निकलकर 3BHK ले लेंगे!"
सतीश ने कहा— "मेरे को बस एक बात बोल... हम तेरे साथ चल सकते हैं क्या?"
अविन को अच्छा लगा— कि कम से कम कोई उसका था। उसने हल्की मुस्कान दी— "ऑफ़ कोर्स... तुम दोनों मेरे साथ ही चलोगे।"
तभी उसे वो बात याद आई— "अकेले रात बितानी है।" उसने उस शर्त को अपने मन में दफ़्न कर दिया।

तीनों कॉलेज पहुँचे (जहाँ अविन टैक्सी चलाने के बावजूद अपनी अधूरी पढ़ाई पूरी कर रहा था)। क्लर्क से छुट्टी लेनी थी।
क्लर्क: "छुट्टी क्यों चाहिए?"
इससे पहले अविन बोलता— मोहन चिल्ला दिया: "भाई को एक 700 साल पुरानी—"
अविन ने तुरंत उसका मुँह पकड़ लिया— "पर्सनल काम है, सर। बहुत ज़रूरी।"
क्लर्क ने बिना भाव के, जैसे यह रोज़ की बात हो, छुट्टी दे दी।
बाहर आते ही सतीश बोला— "अगर हवेली बोल देता... तो सर भी साथ आ जाता।"
पैकिंग का समय शुरू हुआ। अविन चुपचाप पुराने बैग में कपड़े रख रहा था। उसने दोनों को उसके साथ आने के लिए 'ना' कहा था, पर उन्होंने तर्क दिया कि वह बिना किसी कारण के उन्हें मना नहीं करेगा। दोनों उसकी फीलिंग समझ गए थे और उसका साथ देने के लिए तैयार थे।
मोहन ने एक्स्ट्रॉ चीज़ें भरनी शुरू कीं— चिप्स, बिस्किट, पानी, डियोड्रेंट (मोहन के अनुसार रेगिस्तान की गर्मी में यह सबसे ज़रूरी था), और एक टॉर्च।
> "भाई, डेजर्ट में गर्मी होती है... डियोड्रेंट ज़रूरी है। ये सब ले जा।"
सतीश ने डरते हुए एक ताबीज डाल दिया— "ये बंगाली बाबा ने दिया था... प्रोटेक्शन के लिए। ये भी रख अपने पास।"
अविन मुस्कुरा पड़ा— "वहाँ भूतों से नहीं, रेत से लड़ना होगा।"
पर उसके मन में चल रहा था: पता नहीं इस बार क्या होगा। मरना होता तो भूत मुझे पहले ही मार देते, इतना कौन टाइम लेता? कहीं ये हवेली कोई जाल तो नहीं? उसने एक गहरी साँस ली। जो होगा देखा जाएगा। मिला तो हवेली, नहीं तो इस ज़िंदगी से तो भूत बना ही अच्छा होगा।
तीनों हँसते रहे। उन्हें नहीं पता था— कि डर अभी शुरू भी नहीं हुआ था।
अगले दिन की सुबह सात बज चुके थे।
तीनों तैयार थे। सतीश और मोहन ने नॉर्मल, हल्के कपड़े पहने थे। वहीं अविन ने एक पुरानी जींस और एक गहरा नीला शर्ट, उसके ऊपर सतीश की भूरी जैकेट (जो थोड़ी बड़ी थी) और अपने पुराने जूते पहनकर वह घर से निकल गया।
तीनों दोस्त अविन की पुरानी टैक्सी में बैठे थे, जो अब ट्रेन स्टेशन की ओर भाग रही थी। पिछली रात अविन ने न डर, न बेचैनी, न ही राजस्थान जाने के उत्साह में टैक्सी चलाई। वह बस चुप रहा। सड़क पर एक अजीब-सी चुप्पी पसरी थी— वह चुप्पी, जिसमें सैकड़ों बातें बिना कहे तैरती रहती हैं।
हमेशा की तरह, इस चुप्पी को तोड़ा मोहन ने—
> "भाई... वहाँ जाकर ऐटिट्यूड मत दिखाना। राजस्थान वाले लोग बड़े प्यारे होते हैं। बंबई वाला वो तेज़ रेहने वाला स्वैग वहाँ मत दिखाना।"
सतीश ने भी सहमति में सिर हिलाया— "और भाई... खाना टाइम पर खा लेना। वहाँ ऑयली खाना मिलता है। तेरा पेट कमज़ोर है।"
अविन को हँसी आ गई। उसने स्टीयरिंग पर हाथ मारते हुए कहा— "तुम दोनों मेरी मम्मी हो क्या?"
मोहन ने एकदम गंभीर टोन में जवाब दिया— "हाँ। तेरी ममीईईई और डैडीईईई दोनों।"
तीनों हँस पड़े। पर इस हँसी में एक कसैला, नमकीनपन घुला था। यह हँसी विदाई की तैयारी कर रही थी।
ट्रेन स्टेशन पर पता चला कि उनकी ट्रेन एक घंटा लेट थी। घोषणा होते ही तीनों ने एक साथ, एक ही भाव से आसमान की तरफ़ घूरा— "ऑफ़ कोर्स।"
मोहन ने तुरंत तंज़ किया— "इंडिया में ट्रेन ऑन-टाइम आ जाए... मतलब किसी ने चीट कोड इस्तेमाल किया है।"
अविन ने बैग कंधे पर टांगा। उसने अपने दोनों दोस्तों को एक लंबी नज़र से देखा। वह उन्हें बताना चाहता था कि वह अकेले ही 'लॉगिन' की शर्त पूरी करेगा। वह नहीं चाहता था कि ये दोनों किसी भी असाधारण चीज़ से टकराएँ।
पर उसकी ज़ुबान पर ताला लग गया। वह केवल इतना ही कह पाया— "तुम दोनों वापस चले जाना। मैं ठीक हूँ। बस दो-चार दिन का काम है।"
सतीश ने माहौल हल्का करने के लिए मज़ाक में कहा— "वापस आ भी जाना... वरना बंबई की बारिश तेरी जगह किसी और को दे देगी।"
मोहन ने आगे बढ़कर उसे गले लगा लिया। उसकी पकड़ थोड़ी लंबी थी, थोड़ी मज़बूत— "फोन करना। अगर कॉल नहीं किया... तो मैं राजस्थान आ जाऊँगा तेरे पीछे।"
अविन की आँखें भर आईं। उसने जल्दी से मुँह दूसरी तरफ़ कर लिया। "करूँगा, पक्का।"
ट्रेन में बैठने से ठीक पहले, अविन ने दोनों को रोका और धीमी, फुसफुसाती आवाज़ में कहा—
> "एक बात सुनो... आज रात में टैक्सी मत चलाना। प्लीज़। कोई ज़रूरी काम हो, तब भी मत। बस..."
वह वाक्य पूरा नहीं कर पाया। वह कह नहीं सकता था कि आज रात बंबई की सड़कों पर उसके हिस्से का जो भी काला साया मंडराएगा, उसे उसे अकेले ही झेलना था।
सतीश ने मज़ाक किया— "कोई भविष्य वाणी मिली है क्या?"
अविन ने सिर झुका दिया, अपनी आवाज़ में पूरा विश्वास भरते हुए कहा— "बस... मुझ पर यक़ीन करना।"
दोनों ने एक साथ कहा— "हमेशा।"
ट्रेन की सीटी बजी। डिब्बे का दरवाज़ा बंद होने लगा। अंदर जा रहा अविन... बाहर खड़े उसके दो दोस्त... तीनों के चेहरे पर एक बनावटी हँसी थी, पर तीनों के दिल में चुपके-चुपके एक गहरा दर्द भी था।
ट्रेन धीरे-धीरे प्लेटफॉर्म से निकल गई। और अविन का सफ़र, अपने सबसे प्यारे दोस्तों से दूर, और उसके सबसे बड़े डर के बिल्कुल क़रीब... शुरू हो गया था।