The Love That Was Incomplete - Part 12 in Hindi Horror Stories by Ashish Dalal books and stories PDF | वो इश्क जो अधूरा था - भाग 12

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वो इश्क जो अधूरा था - भाग 12

कोने से एक और छाया उभरी—ये छाया बाकी सब से अलग थी। इसमें गुस्सा नहीं था, दर्द था। उसकी आँखों में पश्चाताप झलक रहा था।
वो छाया धीमी और गहरी आवाज में बोली —
 “मैं रुखसाना हूँ… लेकिन अब सिर्फ मैं नहीं हूँ… अन्वेषा भी मैं ही हूँ…”
अन्वेषा कांपने लगी।
“नहीं… मैं अन्वेषा हूँ… मैं किसी और की नहीं… अपूर्व की हूँ…”
छाया ने कहा—
 “लेकिन अपूर्व, वो नासिर नहीं है… वो… आगाज़ ख़ान है… जिसने मुझे… मुझसे छीन लिया था।”
अपूर्व सन्न।
 “मैं? न … नहीं… ये सच नहीं हो सकता…”
लेकिन तभी अन्वेषा की आँखों में एक पल के लिए रुखसाना की झलक उभरी—उसकी साड़ी, उसकी आँखें, उसकी पीड़ा।
अपूर्व पीछे हट गया।
 “अन्वेषा… क्या तुम… सच में वही हो?”
अन्वेषा चुप रही। उसकी आँखों से दो आँसू टपके।
“मैं नहीं जानती अपूर्व… पर ये हवेली जानती है… और ये तुम्हें माफ़ नहीं करेगी…”
कमरे की दीवार पर फिर से वही चेहरा उभरा—आगाज़ का।
अब उसकी आँखें बंद थीं… पर होंठ फुसफुसा रहे थे—
 “इश्क़ सिर्फ एक बार होता है… लेकिन सज़ा… हर जनम मिलती है ।”
हवेली की सीढ़ियाँ इस रात कुछ ज़्यादा ही पुरानी लग रही थीं। दीवारों से झड़ती पलस्तर की परतें जैसे समय की परतें थीं—हर परत के नीचे दबी एक सच्चाई।
“तुम ठीक हो?”
 अन्वेषा की आवाज़ अपूर्व के कंधे पर आकर ठिठकी।
अपूर्व ने सिर हिलाया, लेकिन उसकी आँखें दूर उस दरवाज़े पर थीं, जिसे उन्होंने कभी खोला नहीं था।
 हवेली का वह पिछला हिस्सा जहाँ न कोई गया, न जाने की इजाज़त थी।
“मुझे लगता है... मेरे सवालों के जवाब वहीं हैं,” अपूर्व बुदबुदाया।
अन्वेषा कुछ कहना चाहती थी, लेकिन फिर वह अपूर्व के चेहरे पर छायी गंभीरता देखकर चुप हो गई।
जब उन्होंने वह जंग लगा ताला खोला, तो एक ज़ोर की सरसराहट हुई—जैसे किसी ने अंदर से साँस छोड़ी हो।
कमरे के अंदर एक अजीब ठंडक थी। दीवारें नीम अंधेरे में ढकी थीं, और बीचोंबीच एक पुरानी मेज़ पर फैला था एक कैनवास... आधी बनी हुई एक पेंटिंग।
पेंटिंग में एक लड़की थी—सफेद दुपट्टा, उदास आँखें, और एक अधूरी मुस्कान।
 पास ही एक पुरुष की परछाईं थी, पर चेहरा धुंधला था... बस उसकी आँखें साफ़ थीं—गहरी, लाल, और खून से सनी।
“ये रुखसाना है...” अन्वेषा ने धीरे से कहा।
“और शायद ये... आगाज़?” अपूर्व की आवाज़ कांप रही थी।
 पर तभी—
कमरे की हवा भारी हो गई।
 एक अजीब प्रकाश फैला और अपूर्व की आँखों के सामने एक और दृश्य उभरा—
रात का सन्नाटा। रुखसाना हवेली के उसी कमरे में खड़ी थी , जहाँ अब वे खड़े हैं। वह कांप रही थी ।
“मैं उसे नहीं चाहती, अम्मी...” रुखसाना बड़बड़ाती है।
जवाब में उसकी अम्मी तौफिका बेगम की आवाज़ गूंज उठी -“अगर आगाज़ को पता चला, तो वह नासिर को मार देगा!” 
तभी दरवाज़ा ज़ोर से खुलता है।
 एक काला कुर्ता पहने युवक अंदर आता है—चेहरे पर ग़ुस्सा, आँखों में जुनून।
“तू सिर्फ मेरी थी रुखसाना ... सिर्फ मेरी!”
 और उसके बाद बस चीख... और सन्नाटा।
अपूर्व की साँस तेज़ चलने लगी।
 “मैंने... ये सब देखा... पर कैसे?”
अन्वेषा ने उसका हाथ पकड़ा।
 “तुम वो सब महसूस कर सकते हो, जो आगाज़ ने किया था। इसका मतलब है, तुम... उससे जुड़े हो।”
अपूर्व कमरे से बाहर निकल आया , पर उसके मन में अब एक ही बात घूम रही थी —
 "क्या मैं वही हूँ... जिसने रुखसाना की जान ली थी?"
सुबह होने थी लेकिन रात का अँधेरा अभी छटा नहीं था । हवेली के बाहर बादल घिरे थे, लेकिन भीतर... एक और तूफ़ान उठ रहा था—अपूर्व और अन्वेषा के भीतर।
“तुम सच जानना चाहते हो?” अन्वेषा ने उसकी बांह कसकर पकड़ ली।
अपूर्व ने गहरी सांस ली। “अब रुकना मुश्किल है। कुछ तो है इस हवेली में, जो मुझे खींच रहा है... जैसे वो रुखसाना की मौत सिर्फ एक हादसा नहीं थी। जैसे... मैं उससे जुड़ा हूं, बहुत गहराई से।”
अन्वेषा की आंखों में चिंता थी, लेकिन विश्वास भी।
 “तो चलो। जो भी सच है... हम साथ में सामना करेंगे।”
कहते हुए अन्वेषा आगे बढ़ी लेकिन जैसे ही अपूर्व भी आगे बढ़ा, अन्वेषा रुकी और धीरे से बोली —"रुको... सुनो, ये क्या है?"
एक धीमा, मधुर संगीत… जैसे कोई वीणा की आवाज कानों में उतर रही हो।
 बिना किसी वाद्ययंत्र के।
और फिर सामने वाले कमरे का दरवाज़ा अपने आप चर्र्ररर… की आवाज़ करता खुल गया।
अंदर घुप्प अंधेरा था, मगर एक कोने में टिमटिमाती सी रोशनी—जैसे किसी पुराने दीपक की लौ।
और वहीं, धूल में लिपटी पड़ी थी—एक बेहद पुरानी वीणा।
अपूर्व ठिठका।
 अन्वेषा ने उसका हाथ और कस लिया।
 “ये वही संगीत है जो मैंने सपने में सुना था…”
वीणा अपने आप बजने लगी। जैसे किसी अदृश्य आत्मा की उंगलियाँ उसमें जान फूंक रही हों।
और तभी—दीवार पर छाया उभरने लगी।
पहले धुंधली... फिर साफ़।
रुखसाना।
 सजी-संवरी, मगर आँखों में दुख और बेचैनी।
 उसके सामने खड़ा था—एक शाही लिबास में कोई पुरुष। चेहरा धुंधला, मगर शरीर की भाषा में क्रोध।
रुखसाना घुटनों पर बैठी, हाथ जोड़ रही थी। वो कह रही थी—
“मैं गुनहगार नहीं हूं... मोहब्बत जुर्म कैसे हो सकता है? आगाज़…”
ये नाम सुनते ही अपूर्व का सिर चकरा गया।
 अन्वेषा ने उसकी तरफ देखा—“तुम ठीक हो?”
“वो... मैं ही था... नहीं... मैं हूँ…” अपूर्व बड़बड़ाने लगा।
 वीणा की आवाज और तेज़ हो गई, दीवारें कांपने लगीं।
तभी कमरे की एक ईंट खिसकी, और दीवार के पीछे छुपा एक और छोटा-सा तहख़ाना खुल गया।
वे दोनों नीचे झुके। वहाँ रखी थी एक पुरानी छोटी सी संदूक , और उसके ऊपर पड़ी थीं—रुखसाना की खून से सनी चूड़ियाँ।
अन्वेषा सिहर गई।
 “इसका मतलब किसी ने उसे मारा था... और छुपा दिया सबकुछ।”
अपूर्व का माथा पसीने से भीग चुका था।
 “मुझे लगता है... उस रात, वो मुझे नहीं... आगाज़ को देख रही थी। और उसकी मौत... शायद…”
“नहीं,” अन्वेषा ने उसका चेहरा पकड़ कर कहा, “तुम वो नहीं हो। तुम अपूर्व हो। लेकिन अगर सच को जानना है, तो हमें आगाज़ को समझना होगा। उसकी सज़ा क्या थी? और क्या वो अब भी हवेली में है?”
वीणा एक अंतिम झंकार के साथ चुप हो गई।
अचानक कमरा ठंडा हो गया। एक फुसफुसाहट हवा में गूंजी—
“सज़ा अभी पूरी नहीं हुई...”