रात का राजा भाग 2
लेखक: राज फुलवरे
अध्याय तीन — अमृतधारा का रहस्य
रात घनी हो चली थी.
बादलों के बीच से निकलती बिजली की रेखाएँ जंगल को क्षणभर के लिए रोशन कर जातीं,
और फिर सब कुछ पुनः अंधकार में डूब जाता.
मगर उस अंधेरे में एक मशाल टिमटिमा रही थी —
वह था आरव, जो जंगल की गहराइयों में,
राजा वीरेंद्र सिंह की आँखों का उजाला ढूँढने निकला था.
अमृतधारा की खोज
साधु के बताए दिशा में चलते हुए आरव की सांसें भारी हो चली थीं.
रास्ता पथरीला था, काई से ढका हुआ, और चारों ओर जंगली आवाजें गूंज रही थीं.
कभी पेडों की शाखाओं पर उल्लू चिल्लाता,
तो कभी दूर से किसी जानवर की दहाड सुनाई देती.
पर उसके दिल में डर नहीं, सिर्फ विश्वास था.
>“ अगर राजा ने मुझ पर भरोसा किया है,
तो मैं इस रात को हारने नहीं दूँगा।
घंटों चलने के बाद उसने एक अजीब सी गंध महसूस की —
कहीं पास ही पानी बहने की आवाज थी.
वह तेजी से उस दिशा में बढा.
जंगल के बीचोंबीच एक संकरी घाटी में एक नीला झरना गिर रहा था.
उसके जल पर चाँदनी पड रही थी और पूरा पानी हल्की नीली रोशनी से चमक रहा था.
आरव रुक गया —
>“ तो यही है अमृतधारा.
उसने घुटनों के बल बैठकर पानी को छुआ.
पानी ठंडा नहीं था — बल्कि उसमें हल्की गर्मी थी,
जैसे उसमें जीवन बह रहा हो.
दुर्लभ जडी की तलाश
साधु ने कहा था — तुलसी और नागकेसर की जड चाहिए.
आरव ने आसपास मशाल की रोशनी में मिट्टी खोदनी शुरू की.
कई पौधे देखने के बाद उसकी नजर एक ऐसे पौधे पर पडी जिसकी पत्तियाँ चमक रही थीं.
उसने ध्यान से जड निकाली — हल्की सुनहरी आभा लिए.
>“ नागकेसर. मिल गया!
फिर उसने झरने के किनारे बढते छोटे हरे पौधे देखे,
उनमें से एक के पत्तों पर पानी की बूंदें मोती की तरह जमी थीं.
>“ और यह पवित्र तुलसी।
उसने दोनों जडों को सावधानी से एक पीतल के पात्र में रखा और झरने के पास बैठ गया.
दवा का निर्माण
आरव ने पत्थरों से छोटा- सा चूल्हा बनाया.
बारिश थम चुकी थी, हवा में गीली मिट्टी की महक थी.
वह मंत्र बुदबुदाने लगा —
>“ धरा की औषधि, जल का वरदान,
इस रोग से मिटे राजा का अभिशाप महान।
धीरे- धीरे उसने तुलसी और नागकेसर को अमृतधारा के जल में उबाला.
धुआँ हल्का नीला उठने लगा,
जैसे दवा में कोई अदृश्य शक्ति घुल रही हो.
अचानक, हवा का एक तेज झोंका आया —
मशाल बुझ गई.
पर फिर भी झरने की नीली रोशनी फैल गई,
और उसके पात्र से प्रकाश निकलने लगा.
आरव ने चौककर देखा —
पानी में किसी स्त्री की परछाई दिखी, जैसे कोई जलदेवी हो.
जलदेवी का दर्शन
एक कोमल आवाज आई —
>“ बालक, तू कौन है जो रात के समय मेरे जल को छू रहा है?
आरव ने विनम्रता से सिर झुकाया,
>“ मैं अमृतगढ राज्य का सेवक हूँ,
अपने राजा के लिए दवा बना रहा हूँ।
>“ राजा. वीरेंद्र सिंह?
>“ हाँ, देवी. उनके नेत्रों से दिन का उजाला चला गया है।
जलदेवी की आँखों में दया उतर आई.
>“ मैं जानती हूँ, उनके वंश पर शाप है.
पर तेरी नीयत सच्ची है.
इसलिए ये जल तुझे आशीर्वाद देता है — पर याद रख,
इस दवा को सूर्योदय से पहले राजा की आँखों में डालना,
वरना इसका असर सदा के लिए नष्ट हो जाएगा।
आरव ने श्रद्धा से हाथ जोड दिए,
>“ आपका आशीर्वाद मेरे साथ है।
और जैसे ही उसने झपककर देखा — देवी अदृश्य हो चुकी थीं.
झरने का जल अब शांत था,
पर उस नीले प्रकाश में उसके पात्र की दवा झिलमिला रही थी.
वापसी की यात्रा
आरव ने झोले में दवा रखी और महल की ओर चल पडा.
रास्ता अब पहले से भी कठिन था.
बारिश के कारण रास्ता फिसलन भरा था,
और जंगल की गहराई में हर ओर अजीब आवाजें.
कभी- कभी झाडियों में से दो चमकती आँखें दिखतीं,
कभी कोई साया उसके पीछे से गुजरता.
पर उसने सीटी नहीं बजाई —
उसे साधु के शब्द याद थे,
>“ जिसे रात का भरोसा है, उसे दिन का डर नहीं होना चाहिए।
घंटों बाद उसे पहाडी का अंत दिखा —
दूर कहीं महल के ऊँचे बुर्जों पर जलते दीपकों की झिलमिलाहट नजर आई.
उसके चेहरे पर राहत की मुस्कान आई,
>“ बस अब थोडा और.
महल में व्याकुलता
इधर महल में, राजमाता प्रार्थना कर रही थीं.
राजवैद्य चिंतित होकर बोले,
>“ माताश्री, अब आधी रात बीत चुकी है. अगर वह लडका सुबह तक नहीं लौटा,
तो उस औषधि का कोई अर्थ नहीं रहेगा।
राजा वीरेंद्र सिंह ने कहा,
>“ मुझे लगता है वो लौटेगा.
हर रात एक सूरज छिपा होता है —
शायद आज मेरी आँखों के पीछे भी वही सूरज लौट आए।
उन्होंने अपने कमरे के सभी दीपक बुझा दिए और खिडकी से बाहर देखा.
दूर कहीं एक हल्की सी रोशनी हिलती हुई दिखाई दी —
वह आरव की मशाल थी.
समय के विरुद्ध दौड
आरव दौडते हुए महल पहुँचा.
सैनिकों ने फाटक खोले,
रणजीत ने उसे देखा तो बोले —
>“ तू सच में लौट आया! जल्दी चल, महाराज प्रतीक्षा कर रहे हैं।
राजा दरबार के बीच में खडे थे,
उनकी आँखें अंधकार से भरी थीं,
पर चेहरे पर उम्मीद की चमक.
आरव ने झोला खोला,
उस पात्र को उठाया जिसमें नीली दवा चमक रही थी.
>“ महाराज, यह अमृतधारा का जल है —
तुलसी और नागकेसर की जड से बनी औषधि.
देवी ने कहा था, सूर्योदय से पहले इसे लगाना होगा।
राजा ने सिर हिलाया —
>“ तो विलंब मत करो।
चमत्कार की शुरुआत
आरव ने सावधानी से दवा की कुछ बूंदें राजा की आँखों में डालीं.
जैसे ही दवा का स्पर्श हुआ,
राजा ने एक तेज चीख मारी —
>“ आँखें. जल रही हैं. आग जैसी!
दरबार में हडकंप मच गया.
राजवैद्य चिल्लाए,
>“ रुको! कहीं ये जहर तो नहीं?
पर आरव शांत रहा.
>“ विश्वास रखिए, यह दवा नहीं — ये शाप की जंजीर तोड रही है।
राजा का चेहरा पसीने से भीग गया.
उनकी साँसें तेज हो रही थीं.
फिर धीरे- धीरे वह शांत हुए.
उन्होंने आँखें खोलीं. और कुछ क्षण तक सन्नाटा छा गया.
नया दृष्टि- प्रकाश
राजा ने अपनी हथेली सामने की.
उनकी आँखों में नीली रोशनी की चमक थी.
फिर धीरे- धीरे वह सामान्य हो गई.
उन्होंने काँपते हुए कहा —
>“ मैं. देख सकता हूँ.
दरबार गूंज उठा,
राजमाता रो पडीं,
राजवैद्य ने सिर झुका दिया.
राजा ने आरव की ओर देखा,
>“ बालक, तूने वो कर दिखाया जो किसी ने सोचा भी नहीं था.
तूने न सिर्फ मेरी आँखों को, बल्कि मेरे राज्य की उम्मीद को भी लौटा दिया।
आरव झुककर बोला,
>“ महाराज, मैंने सिर्फ अपना कर्तव्य निभाया है।
राजा ने कहा,
>“ नहीं आरव, आज से तू इस राज्य का मंत्री होगा.
क्योंकि जिसने अंधकार को हराया है, वही सबसे अच्छा सलाहकार हो सकता है।
और जब पहली किरण महल की दीवारों पर पडी,
राजा की आँखें अब भी चमक रही थीं.
अमृतगढ के इतिहास में वह दिन दर्ज हो गया —
जब एक साधारण युवक ने अंधेरे में रोशनी खोज निकाली.
अध्याय चार — आरव का आगमन
राजमहल का दरबार उस रात असामान्य रूप से शांत था.
चारों ओर दीये टिमटिमा रहे थे, हवा में चंदन और कपूर की मिली- जुली सुगंध तैर रही थी.
बाहर हल्की ठंडक थी — और अंदर राजा वीरेंद्र सिंह अपनी सुनहरी सिंहासन पर बैठे हुए थे.
उनकी आँखों में आज थोडी चमक थी, पर चेहरा अब भी गंभीर.
राजवैद्य चतुर्भुज ने फिर एक बार अपनी मोटी ग्रंथ खोल रखी थी, पन्नों पर मंत्र और औषधियों के नाम लिखे थे, मगर कोई समाधान अब तक नहीं मिला था.
दरबार के सभी मंत्री एक कोने में झुके खडे थे.
जनता के चेहरे पर निराशा थी, और सैनिकों की आँखों में थकावट.
तभी दरबार के द्वार से एक हल्की आवाज आई —
मुझे अंदर आने दीजिए।
पहरेदार चौंक गए.
रात के तीसरे प्रहर में किसी अनजान का आना असामान्य बात थी.
>“ कौन है तू?
पहरेदार ने मशाल ऊँची करते हुए पूछा.
मेरा नाम आरव है, आवाज आई.
मैं राजा वीरेंद्र सिंह से मिलने आया हूँ।
पहरेदार हँस पडा —
>“ अरे बच्चे! ये दरबार कोई खेल का मैदान नहीं. राजा की बीमारी पर बडे- बडे वैद्य हार गए. तू कौन है जो मिलने चला आया?
आरव की आँखों में एक अजीब आत्मविश्वास था.
उसने शांत स्वर में कहा —
>“ मैं कोई वैद्य नहीं, लेकिन मुझे प्रकृति पर विश्वास है.
जंगल सिखाता है, अगर हम सुनना जानें।
पहरेदारों ने उसकी जिद देखकर बात राजा तक पहुँचा दी.
राजा ने सुनते ही आदेश दिया —
>“ उसे अंदर आने दो. आज जो भी आशा लेकर आए, मैं उसका स्वागत करूँगा।
दरबार का द्वार खुला.
आरव ने भीतर कदम रखा.
उसके कपडे साधारण थे, पैरों में धूल लगी थी, लेकिन उसकी आँखों में साहस था.
वह झुककर बोला —
>“ जय हो रात के राजा की।
राजा मुस्कराए, शायद बहुत दिनों बाद उनके होंठों पर मुस्कान आई थी.
>“ कहो बालक, तुम कौन हो? और इस देर रात मेरे दरबार में क्यों आए हो?
आरव ने सिर झुकाया.
>“ महाराज, मुझे आपके अंधकार की खबर मिली.
लोग कहते हैं कि दिन में आपकी आँखें रोशनी से बंद हो जाती हैं, और रात को फिर खुल जाती हैं.
मैं आपकी बीमारी को समझना चाहता हूँ — और उसका इलाज करना चाहता हूँ।
दरबार में सन्नाटा फैल गया.
मंत्री एक- दूसरे की ओर देखने लगे.
वैद्य चतुर्भुज ने व्यंग्य से कहा —
>“ हा हा! देखिए महाराज, अब बच्चे भी रोगी राजा का इलाज करने चले हैं!
बेटा, तेरा नाम इतिहास में जरूर लिखा जाएगा — ‘जिसने जडी- बूटियों की जगह हिम्मत से इलाज किया। ’”
सब हँस पडे.
आरव ने किसी की परवाह न करते हुए शांत स्वर में कहा —
>“ महाराज, मैं आपकी आँखों की रौशनी वापस ला सकता हूँ, लेकिन मुझे आपके साथ कुछ दिन रहना होगा.
आपकी बीमारी सूरज की किरणों से नहीं, किसी अंदरूनी कारण से जुडी है।
राजा ने उसकी ओर गौर से देखा.
उन आँखों में दृढता थी, डर नहीं.
>“ तुम्हारी उम्र कितनी है, आरव?
>“ सत्रह वर्ष, महाराज।
>“ और तुम्हें लगता है कि तुम मेरा इलाज कर पाओगे?
>“ हाँ, महाराज. क्योंकि मैं प्रकृति की भाषा समझता हूँ.
जंगल की हर जडी किसी कहानी की तरह होती है.
कुछ दर्द मिटाती हैं, कुछ सच्चाई उजागर करती हैं।
राजमाता जो अब तक पर्दे के पीछे बैठी थीं, उन्होंने कहा —
>“ बेटा, क्या तुम्हारे गाँव में कोई गुरु है जिसने तुझे यह विद्या दी?
>“ जी हाँ, माताश्री, आरव ने विनम्रता से उत्तर दिया.
मेरे गुरु वनवासी रिषि ‘भैरव नाथ’ हैं. वे कहते हैं — ‘मन की धुंध मिटे तो आँखें खुद दिखने लगती हैं। ’
शायद आपके पुत्र की बीमारी भी ऐसी ही कोई धुंध है।
राजा ने कुछ पल सोचा.
महल के दीये की लौ उनके चेहरे पर हल्की चमक बिखेर रही थी.
>“ ठीक है, आरव, उन्होंने गंभीर स्वर में कहा,
मैं तुम्हें मौका देता हूँ. अगर तुम सफल हुए — तो न केवल मेरा आशीर्वाद मिलेगा, बल्कि तुम्हें मैं अपने राज्य का मंत्री घोषित करूँगा.
लेकिन अगर असफल हुए — तुम्हारी जिम्मेदारी खुद की होगी।
आरव ने झुककर प्रणाम किया.
>“ महाराज, मुझे असफलता का डर नहीं.
मेरा विश्वास आपकी आँखों की तरह है — जो रात में भी जगमगाती हैं।
दरबार में हल्की सराहना की गूँज उठी.
लोगों ने पहली बार उस रात उम्मीद की झलक देखी.
राजा ने आदेश दिया —
>“ सैनिक रणजीत, इस युवक को राजमहल के अतिथि गृह में ठहराया जाए.
कल रात से इसकी सहायता की जाएगी.
और चतुर्भुज वैद्य, अब इसका भी परीक्षण देखिए — शायद यही बालक मेरे जीवन में नया सवेरा लाए।
उस रात आरव जब महल की बालकनी में पहुँचा, तो आकाश तारों से भरा था.
हवा में हरसिंगार की महक थी.
वह आसमान की ओर देखकर बोला —
>“ हे प्रकृति, अब मुझे राह दिखा.
यह राजा केवल अंधा नहीं — इस पूरे राज्य की उम्मीद है।
नीचे आंगन में दीये झिलमिला रहे थे.
महल के ऊँचे गुंबद से आती हल्की ठंडी हवा उसके चेहरे को छू रही थी.
दूर से मंदिर की घंटियों की धीमी आवाज आई — और आरव की आँखें उसी लय में बंद हो गईं.
उसे यकीन था — कल से एक नई यात्रा शुरू होगी.