उसने दस-बाय-दस का एक कमरा ले लिया। एक खिड़की, एक बल्ब, एक गैस। दीवार पर नमोकार मंत्र का फोटो।
पहली रात वह बिस्तर पर लेटी रही। याद आईं सारी बातें—माँ की गोद, पापा की साइकिल, भाई का हाथ, और अविनाश की वो हवाई सैर… जो सिर्फ एक रात की थी।
सुबह चार बजे वह उठी। टूटे आईने में खुद को देखा।गाल पर थप्पड़ के निशान। होंठ सूजे हुए। वह धीरे से बोली—'सब ने मुझे बोझ समझा। यहाँ तक कि जिसने हवाई सैर कराई, उसने भी अगली सुबह उछाल दिया।'
फिर मुस्कुराई— वह मुस्कान जो दर्द से पैदा हुई और दर्द को ही जलाए डाल रही थी। क्योंकि किराया ६५००, बिजली-पानी ८००, एक वक्त का खाना बाहर से या खुद बनाना ३५००।
पहले महीने तो कुछ पुरस्कार से, कुछ जेवर बेच चुका दिए। फिर समझ आई— अब जीना है तो कमाना होगा। सुबह छह बजे उठती। सात बजे से शाम सात बजे तक तीन अलग-अलग घरों में ट्यूशन पढ़ाती। कक्षा ८ से १२ तक के बच्चे। हिंदी, अंग्रेजी, सामाजिक विज्ञान। हर बच्चे से ८००-१००० रुपया। कुल ग्यारह बच्चे। महीने के ९-१० हजार।...खर्च चलने लगा। पैसा किताबों, फोटोकॉपी और बस के किराए के लिए भी बच जाता।
रात ग्यारह बजे तक पढ़ाई, फिर थकी हुई सो जाती। सुबह फिर वही चक्कर। ट्यूशन के बीच में कभी-कभी पैरों में इतना दर्द होता कि घुंघरू वाली एड़ियाँ सूज जातीं। एक बार बारिश में भीगकर बुखार आया, आठ-दस दिन नहीं जा पाई, २००० कम हो गया। और कई दिन सिर्फ दाल-चावल और अचार। पर हारी नहीं।रविवार को कोचिंग सेंटर में बच्चों को निबंध लिखना सिखाने का एक्स्ट्रा बैच ले लिया— १५०० और। धीरे-धीरे बारहवाँ, तेरहवाँ बच्चा जोड़ती गई। कभी-कभी रात को कमरे की खिड़की से बाहर देखती और सोचती—'सफेद हाथी को तो बस चारा चाहिए था। मैंने खुद अपने लिए चारा जुटाना सीख लिया। अब कोई मुझे मेंटेन नहीं करता, मैं खुद को मेंटेन करती हूँ।'
...
एक रात डायरी खोली और लिखा—'पहले लोग मुझे बोझ कहते थे क्योंकि मैं कमाती नहीं थी। अब मैं कमाती हूँ, इसलिए कोई मुझे बोझ नहीं कह सकता। पहले घर था मंदिर था अविनाश का साया था लेकिन पूरा आकाश नहीं। अब मेरे पास सिर्फ दस-बाय-दस का कमरा है, पर यह पूरा आकाश मेरा है। जो मेहनत मैं आज कर रही हूँ, वह कल मुझे अफसर बनाएगी। उस दिन मैं खुद को गले लगाकर कहूँगी— दिव्या तू कभी बोझ नहीं थी। तू तो पूरा आकाश थी। बस लोगों ने तुझे छोटे पिंजड़ों में कैद करने की कोशिश की थी। अब पिंजड़ा टूट चुका है।'
...
डायरी बंद की। कमरे में ट्यूबलाइट की मद्धम रोशनी। और दिव्या की साँसें— गहरी, आजाद, अपराजेय।
दिव्या का कमरा अब सिर्फ दस-बाय-दस नहीं रह गया था। धीरे-धीरे उसने एक कोने में लकड़ी का छोटा-सा रैक बनवाया, जिसमें किताबें सजी रहतीं। दीवार पर नमोकार मंत्र के साथ-साथ अब एक और फ्रेम लगा था— उसका अपना लिखा एक निबंध, जिसे राज्य स्तरीय प्रतियोगिता में द्वितीय पुरस्कार मिला था। पुरस्कार की राशि थी सात हजार। उसने साढ़े छह हजार से एक पुराना लैपटॉप खरीद लिया। बाकी पांच सौ से फोन का बैलेंस। और इस मौके पर माँ की याद आई तो उसे फोन करके कहा था, “मैं ठीक हूँ।” बस।
हर रविवार वह अब भी जिनालय जाती। श्वेत साड़ी, घुंघरू, चँवर। पर अब लोग फुसफुसाते—'वही दिव्या है न, जिसे घर से निकाल दिया था?''हाँ, वही। अब अकेली रहती है। ट्यूशन पढ़ाती है।'
कई माँएँ अपनी बेटियों को उससे दूर रखतीं। कई लड़कियाँ चोरी-चोरी उसकी पीठ पीछे मुस्कुरातीं। एक दिन आरती के बाद मंदिर के बाहर एक सज्जन रुके।साठ के करीब उम्र, सादा कुर्ता-पायजामा, माथे पर चंदन का बड़ा तिलक।
'बेटी, तुम दिव्या हो न?'
'जी।'
'मैं तुम्हारे पिताजी का दोस्त हूँ। वे बहुत रोते हैं। कहते हैं— मेरी बेटी को मैंने मार डाला।'
दिव्या की साँस अटकी। फिर उसने हिम्मत करके कहा, 'कहिए उनसे… मैं मर नहीं गई। जी रही हूँ। और अच्छे से जी रही हूँ।
'सज्जन चले गए। दिव्या ने चँवर नीचे रखा और पहली बार मंदिर में जोर से रोई।
...
फिर एक शाम। ट्यूशन खत्म करके लौट रही थी। बारिश हो रही थी। बस स्टॉप पर एक औरत खड़ी थी— साड़ी भीगी हुई, हाथ में छोटा-सा बच्चा। दिव्या ने छाता आगे बढ़ाया। औरत ने देखा और अचानक बोली, 'दीदी… आप दिव्या दीदी हो न? मेरी बेटी आपके पास आठवीं में पढ़ती है। आपने उसका निबंध जितवाया था।'
दिव्या मुस्कुराई। औरत ने बच्चे को गोद में उठाया और कहा, 'मेरे पति ने मुझे छोड़ दिया। मैं भी किराए का कमरा ढूंढ रही हूँ। आप अकेली कैसे रह लेती हैं?'
दिव्या ने उसका हाथ थामा। फिर कहना शुरू किया, 'शुरू में डर लगता है। फिर आदत पड़ जाती है। डर से बड़ी चीज होती है— सुबह उठने की वजह। मेरी वजह है IAS। आपकी वजह क्या है?'
औरत चुप रही। फिर बोली, 'मेरी बेटी।'
दिव्या ने मुस्कुरा कर कहा, 'बस वही काफी है।'
उस रात दिव्या ने अपने लैपटॉप पर एक नया फोल्डर बनाया— "मेरी लड़कियाँ"। हर उस लड़की की कॉपी की फोटो, जिसका निबंध अच्छा आया। हर उस लड़की का नाम, जिसने पहली बार अपनी माँ से झगड़कर पढ़ने की जिद की।
...
समय बीता। अब उसके पास सत्रह बच्चे थे। महीने के सोलह-सत्रह हजार। लैपटॉप नया हो गया। कमरे में एक छोटा फ्रिज भी आ गया। एक दिन कोचिंग इंस्टिट्यूट के मालिक ने बुलाया, 'दिव्या जी, हमारे यहाँ फुल-टाइम जॉब है। हिंदी और निबंध। बीस हजार महीना।'
दिव्या सोच में पड़ गई। अगर जॉब लेगी तो अपनी पढ़ाई का टाइम नहीं बचेगा। उसने मना कर दिया, 'मैं अभी अपनी पढ़ाई नहीं छोड़ सकती।'
फिर आया वह साल। UPSC प्री। दिव्या ने फॉर्म भरा।परीक्षा का दिन। हॉल में घुसते वक्त उसकी नजर एक सीट पर पड़ी। उस सीट पर लिखा था— Divya Jain.उसने मुस्कुरा कर सिर झुकाया। जैसे किसी ने उसका नाम पहले से लिख रखा हो।
परीक्षा दी। रिजल्ट आया— क्लियर। मेन। तीन महीने दिन-रात एक कर दिए। इंटरव्यू की तैयारी के लिए उसने अपने कमरे में एक दीवार को पूरा खाली कर दिया। उस पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा—“तू कभी बोझ नहीं थी। तू पूरा आकाश थी।”
इंटरव्यू का दिन। पैनल में सात लोग। मुख्य अतिथि— एक महिला अफसर। पहला सवाल—'आप अपने बारे में बताइए।'
दिव्या ने गहरी साँस ली, 'सर, मैं बत्तीस साल की हूँ। जब तीस की थी, मेरे माता-पिता ने मुझे घर से निकाल दिया था क्योंकि मैं कमाती नहीं थी। एक व्यक्ति ने मुझे प्यार और सहारे का झाँसा देकर एक रात अपने बिस्तर पर बुलाया और अगली सुबह ब्लॉक कर दिया। मैंने ट्यूशन पढ़ाकर, किराए देकर, दाल-चावल खाकर खुद को IAS की तैयारी तक पहुँचाया है...। मैं कोई दुखड़ा नहीं सुना रही। मैं सिर्फ बता रही हूँ कि मैंने जो कुछ भी सहा, उससे मैं टूटने के बजाय बन गई। मैं अब भी श्वेत साड़ी पहनती हूँ, घुंघरू बाँधती हूँ और मंदिर में चँवर डुलाती हूँ।क्योंकि मेरी आस्था ने मुझे कभी बोझ नहीं समझा।'
कमरे में सन्नाटा। फिर महिला अफसर ने मुस्कुरा कर कहा, 'Welcome to the service, Ms. Divya Jain.'
रैंक—187। ट्रेनिंग के पहले दिन। अकादमी के गेट पर उसकी माँ खड़ी थीं। सिर पर पल्ला, आँखें सूजी हुईं। दिव्या रुकी। माँ ने हाथ जोड़ लिए, 'बेटी… मुझे माफ कर दे।'
दिव्या ने माँ को गले लगा लिया।
'माँ, आपने मुझे घर से निकाला था। लेकिन आज मैं घर लौट रही हूँ— अपने पैरों पर।' उसके बाद उसने अपने कमरे की चाबी मकान मालिक को लौटा दी।सामान सिर्फ दो सूटकेस। एक में किताबें, दूसरे में श्वेत साड़ियाँ और घुंघरू।
ट्रेनिंग के दौरान उसे एक दिन फोन आया।अविनाश।
'दिव्या… बधाई। मैंने सुना तुम सेलेक्ट हो गई।'
दिव्या शांत स्वर में बोली, 'जी, शुक्रिया।'
'दिव्या… मैंने गलती की थी। अगर तुम…'
दिव्या ने बीच में टोक दिया, 'सर, आपने मुझे सिर्फ एक रात की हवाई सैर दी थी। मैंने खुद को पूरा आकाश बना लिया। अब मेरी उड़ान शुरू हो चुकी है। आपकी जरूरत नहीं।'
फोन काट दिया। नंबर ब्लॉक। इस बार दिव्या ने किया।
...
आखिरी दिन।
अकादमी के दीक्षांत समारोह में दिव्या सबसे आगे खड़ी थी। श्वेत साड़ी, घुंघरू, हाथ में चँवर नहीं— तिरंगा। जब राष्ट्रगान बजा, उसकी आँखें बंद थीं। उसके कानों में सिर्फ एक धुन गूँज रही थी— 'ॐ ह्रीं श्री नमोकार मंत्रायित्राय नमः…' और उसके सीने में एक ठंडी, गहरी साँस। जो कह रही थी— 'अब कोई मुझे बोझ नहीं कह सकता। क्योंकि मैंने खुद को कंधों पर उठा लिया है। और अब मैं चल रही हूँ— ना किसी के सहारे, ना किसी के डर से, बस अपने आकाश की ओर।'
००