जयकिशन
लेखक राज फुलवरे
प्रस्तावना
एक शांत और सुंदर गाँव था—निरभ्रपुर। गाँव छोटा था, लेकिन यहाँ के लोगों के दिल बहुत बड़े थे। इसी गाँव में दो मित्र रहते थे—जय और किशन।
दोनों का परिवार, दोनों की संपत्ति, और दोनों की सामाजिक स्थिति लगभग एक जैसी थी…
लेकिन इनके स्वभाव में आसमान–जमीन का फर्क था।
किशन था दयालु, विनम्र, प्रेम से भरा हुआ।
और जय था कठोर, लोभी, क्रूर और गुस्सैल।
फिर भी दोनों बचपन से जिगरी दोस्त थे।
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भाग 1 — दो मित्र, दो रास्ते
गाँव वाले जब भी किशन को देखते, चेहरे पर अपने आप मुस्कान आ जाती।
किसान रामदास पास आकर बोले—
“किशन बाबा, आपसे जो मदद माँगते हैं, आप बिना सोचे दे देते हैं। आपका दिल बहुत बड़ा है।”
किशन हल्के से मुस्कुराते हुए—
“रामदास काका, दूसरों की मदद करना हमारा फर्ज है। इंसान इंसान के काम आए, यही असली पूजा है।”
किशन गाँव वालों को बिना ब्याज के कर्ज देता,
किसानों को बीज भी देता,
और कभी किसी से कुछ वापस पाने की उम्मीद नहीं रखता।
इसके उलट…
जय का घर गाँव के प्रवेश द्वार पर था, और वहाँ पहुँचते ही लोग काँप उठते थे।
जय ऊँची आवाज़ में चिल्लाता—
“अरे! तुम कर्ज लेकर बैठे हो और लौटाते नहीं!
आज आख़िरी दिन है, समझे?
अगर पैसे नहीं दिए तो मैं तुम्हारा घर खाली करवा दूँगा!”
लोग डर जाते, बच्चे छिप जाते, और औरतें दहलीज़ पर खड़ी काँपने लगतीं।
जय अपना लोभ, अपना रौब, और अपना दबदबा दिखाता था।
किशन अपना प्रेम, अपनी विनम्रता और अपनी इंसानियत दिखाता था।
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भाग 2 — गाँव वालों का रुख बदलता है
समय बीता और गाँव वालों की नज़रें अब बदलने लगीं।
जो लोग पहले जय के आगे-पीछे फिरते थे,
अब उसके घर से दूर रहने लगे।
गाँव की बुज़ुर्ग अम्मा एक दिन किशन से बोलीं—
“बेटा, पहले हम जय के पास जाते थे…
पर अब डर लगता है।
उसकी आँखों में गुस्सा है और तुम्हारी आँखों में अपनापन.”
किशन शांत स्वर में बोले—
“जय बुरा नहीं है, अम्मा… बस उसकी राह गलत है। वो बदलेगा।”
अब गाँव में जहाँ भी मदद चाहिए होती—
सब सीधा किशन के दरवाजे पहुँच जाते।
जय की दहलीज़ खाली रहने लगी।
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भाग 3 — जय के मन में सवाल
एक दिन जय अपने आँगन में अकेला बैठा था।
उसने देखा कि उसके घर के सामने से गाँव वाले गुजर तो रहे हैं…
पर रुककर नहीं देख रहे।
जय के दिल में दर्द उठने लगा।
वह झटके से उठा और सीधे किशन के घर जाकर बोला—
जय (गुस्से में):
“किशन, मुझे एक बात समझ में नहीं आती…
हम दोनों बराबर हैं—
बराबर की जमीन, बराबर का पद,
बराबर की ताकत…
फिर भी लोग तुम्हें इतना प्यार करते हैं
और मुझसे दूर भागते हैं!
ऐसा क्यों?”
किशन ने शांत होकर उसकी ओर देखा।
किशन:
“जय, लोग आँखों से नहीं, दिल से पहचानते हैं कि कौन अपना है।”
जय भड़क उठा—
“मतलब?
क्या मैं अपना नहीं हूँ?
क्या मैं दुश्मन बन गया हूँ गाँव का?”
किशन धीरे से बोला—
“दुश्मन नहीं… पर कठोर हो गए हो।
तेरी बातों में प्यार नहीं, रौब है।”
जय:
“तो मैं गलत हूँ?”
किशन ने उसकी आँखों में देखते हुए कहा—
“गलती हर इंसान से होती है, जय…
लेकिन गलती सुधारने वाला ही महान बनता है।”
जय कुछ पल चुप रहा।
उसके चेहरे पर उलझन और कठोरता का मिश्रण था।
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भाग 4 — किशन का उपदेश
किशन ने जय को आँगन में बैठाया।
धीरे से बोला—
किशन:
“जय, गाँव वालों के साथ जैसा तुम व्यवहार करते हो…
वैसे तुम मेरे साथ कभी नहीं करते।
मेरे लिए तुम हमेशा सबसे अच्छे मित्र रहे हो।
लेकिन लोगों के लिए तुम डर का नाम बन गए हो।”
जय की भौहें सिकुड़ीं—
“मैं डर पैदा करता हूँ?”
किशन:
“हाँ, क्योंकि तुम मदद देते भी हो तो बदले में कुछ उम्मीद रखते हो—
ब्याज, संपत्ति, धमकी, जबरदस्ती…”
किशन ने आगे कहा—
“जब इंसान अपना फायदा पहले देखे और दूसरों का दर्द बाद में…
तो उसका दिल लोगों से दूर हो जाता है।”
जय की साँस भारी हो गई।
वह धीरे से बोला—
“तो इसका मतलब… लोग मुझे सिर्फ दिखावे में अपना कहते थे?”
किशन धीरज से बोला—
“हाँ, जय…
क्योंकि तुमने उन्हें डर दिया था, भरोसा नहीं।”
यह वाक्य जय के दिल में तीर की तरह लगा।
उसने सिर झुका लिया।
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भाग 5 — रात का आत्ममंथन
उस रात जय नींद नहीं ले पाया।
वह छत पर बैठा आसमान देखता रहा।
उसने खुद से पूछा—
“क्या मैं सच में लोगों को डराता हूँ?
क्या मेरी वजह से किसी माँ ने रोया होगा?
क्या किसी बच्चे ने मेरे नाम से डरकर छुपा होगा?”
इन सवालों ने उसे भीतर से हिला दिया।
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भाग 6 — जय का पहला कदम
अगले दिन सुबह, जय धीरे-धीरे गाँव की गलियों से गुज़रा।
लोग उसे देखते ही सावधान हो गए।
एक गरीब किसान अपने घर के बाहर बैठा आँसू पोंछ रहा था।
जय उसके पास गया।
किसान डरकर खड़ा हुआ—
“मालिक… मैं पैसे लाऊँगा… बस दो दिन—”
जय ने पहली बार उसे रोककर कहा—
“मैं तुमसे पैसे लेने नहीं आया।
क्या हुआ? क्यों रो रहे हो?”
किसान हैरान था।
सालों में पहली बार जय ने नरम आवाज़ में बात की थी।
किसान बोला—
“खेत के लिए बीज नहीं है, मालिक…
और पैसे भी नहीं।”
जय कुछ पल चुप रहा।
फिर उसने उसके कंधे पर हाथ रखा।
जय:
“आज से तुम चिंता मत करो।
मैं तुम्हें बीज दूँगा।
वो भी बिना ब्याज, बिना डर…
जैसा किशन करता है।”
किसान की आँखें भर आईं—
“मालिक… आप बदल गए हैं!”
जय ने कहा—
“नहीं… मैं सिर्फ सही रास्ते पर आ गया हूँ।”
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भाग 7 — गहरे बदलाव की शुरुआत
अब जय रोज़ गाँव में निकलता,
लोगों से नम्रता से बात करता,
किसी जरूरतमंद की मदद करता,
और बार-बार कहता—
“मैं अब किसी से डर नहीं, भरोसा चाहता हूँ।”
किशन दूर से यह सब देखकर मुस्कुराता।
उसे पता था कि जय का दिल हमेशा अच्छा था,
बस रास्ता गलत था।
एक दिन गाँव की महिलाओं ने जय के घर दीप रखे और कहा—
“अब आपका दरवाज़ा डर का नहीं—
लोगों के सहारे का स्थान है।”
जय की आँखें भर आईं।
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भाग 8 — अंत में दो हीरो
संध्या समय दोनों मित्र पुराने पीपल के पेड़ के नीचे बैठे थे।
जय:
“किशन, अगर उस दिन तुम मुझे समझाते नहीं…
तो मैं जिंदगी भर अंधेरे में रहता।”
किशन:
“दोस्त का काम होता है—
अगर मित्र गलत राह पर चला जाए,
तो उसे रोकना।”
जय ने उसका हाथ पकड़ा—
“अब मैं वही करूँगा जो तुम करते हो—
प्रेम, दया और इंसानियत का रास्ता।”
किशन मुस्कुराया—
“तुम हमेशा से अच्छे थे, जय…
बस तुम्हें अपने दिल का आईना दिखाने वाला कोई चाहिए था।”
गाँव वालों ने दोनों को साथ खड़ा देखा—
और पहली बार दोनों को एक समान सम्मान मिला।
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⭐ शिक्षा
इंसान को बड़ा उसकी दौलत नहीं,
उसका व्यवहार बनाता है।
डर से नहीं—
प्यार से ही दिल जीते जाते हैं।