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"नरक है ये जीवन" नरक ही तो है ये जीवन, पूछोगे क्यों? तो सुनो ज़रा, जहाँ जन्म के साथ ही मासूमियत छीन ली जाती है, और माँ की गोद में भी मौत दिख जाती है। जहाँ खेलने की उम्र में खिलौना छूट जाता है, और किसी बेटी का बचपन पाप की भेंट चढ़ जाता है। जहाँ दहेज के लिए हर रोज़ कोई औरत सताई जाती है, और एक स्त्री अपने ही घर में घुट-घुट कर जीती है। जहाँ नज़र हर वक़्त कपड़ों के पार जाती है, और इज़्ज़त सिर्फ़ शब्दों में सिमट कर रह जाती है। जहाँ न समझा जाता है एक लड़की का सपना, बस बंद कमरों में क़ैद हो जाता है हर अपना। जहाँ कहा जाता है — "ये काम तुम्हारा नहीं", और हर मोड़ पर उसके सपने कुचले जाते हैं वहीं। क्या यही जीवन है? क्या यही इंसानियत है? अगर हाँ — तो सच कहूँ, ये तो बस नरक है।
फिर भी क्यों? है माँ वह, है बहन वह, है बेटी और बहू भी। फिर भी क्यों? करते हो तुम उस स्त्री को परेशान? है पूजते उसे दुर्गा, अंबे, काली के नाम से, फिर भी क्यों? करते हो उसे परेशान? अकेली जो मिल जाए, तो छेड़ते हो, अगर कुछ कह दे, तो उसे ही दोषी ठहराते हो। ना दहेज लाई, ना बेटा हुआ — बस इतना ही कसूर था — जो जान से मारते हो? फिर भी क्यों तुम भूल जाते हो, जिसने तुम्हें जन्म दिया — वह भी एक स्त्री है। फिर भी क्यों? करते हो उसे परेशान? Sorry all women's!🙏🏼😶🌫️
छोटी उम्र पर फिर भी है! खूब समझदार छोटी है उम्र उसकी, पर फिर भी है, खूब समझदार। करता बड़ी-बड़ी बातें, पर फिर भी है, खूब समझदार। उसकी समझ से है सब बाहर, पर फिर भी करता वही काम। आदत उसकी बड़ी निराली — देखो तुम भाई, माँ-बाप का इतना लाडला, फिर भी खाता वही डाँट। पढ़ने में है थोड़ा कच्चा, पर करता रोज़ नये आविष्कार, है छोटी उम्र उसकी, पर फिर भी है — खूब समझदार।
"Kabhi socha hai, agar zindagi bina dare, bina chhupaye jee paayein... toh kaisi hogi?" "Yeh kavita unhi khwabon ke naam..." एक अरज़ू एक अरज़ू है बनने की, इस खुले आसमान में उड़ने की। बिना किसी रोक-टोक के जीने की, अपने सपनों को खुलकर जीने की। माँ-बाप से खुलकर बात करने की, उनसे छुपाकर नहीं, हर काम उन्हें बताकर करने की। अपनी आज़ादी से कपड़े पहनने की, अपने रूप को अपनाने की। सिर्फ़ एक अरज़ू है — खुलकर जीने की। --- "हर दिल में होती है कोई ना कोई अरज़ू... बस ज़रूरत होती है उसे आवाज़ देने की।" "Tumhari क्या अरज़ू है?" ---
यह इंसान इतना खुदगर्ज क्यों? यह इंसान इतना खुदगर्ज क्यों? दिए दो हाथ, दिए दो पैर, ऐसा नहीं कि यह बोल नहीं सकता, ऐसा नहीं कि यह सुन नहीं सकता, फिर भी इतना खुदगर्ज क्यों? हे! देख — पीड़ा में किसी को देखता है तमाशा, लेकिन अगर हो ये खुद पीड़ा में, तो क्यों कोसता भगवान को? यह इंसान इतना खुदगर्ज क्यों? पशुओं को हर वक्त मारता, हंसकर बनाता है तमाशा उन मासूमों से। पर बात आए खुद पर, तो चीख-चीख कर चिल्लाता है। यह इंसान इतना खुदगर्ज क्यों?
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