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Deepak Bundela Arymoulik

Deepak Bundela Arymoulik Matrubharti Verified

@deepakbundela7179
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मोहब्बत धोखा देती हैं

आत्म सम्मान की मौत

सन्नाटा है,
जख्म भीतर हैं।
मन के आईने में
टूटा हुआ चित्र।
हिम्मत छिप गई,
शब्द दब गए।
कदम रुके,
नजरें तिरछी।
सम्मान की रौशनी
धूल में मिल गई।
आवाज़ धीमी,
पर तड़पती।
मृत आत्म सम्मान भी,
शायद कभी लौटे।

आर्यमौलिक

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खतों की राख

वो किसी जले काग़ज़ के टुकड़े नहीं थे,
ख़त थे मेरे—
जिन्हें लिखते वक्त मैंने अपनी साँसें गिरवी रख दी थीं,
हर अल्फ़ाज़ में धड़कनों की आहट थी,
हर स्याही की बूंद में मेरी तड़प की नमी थी।

वो खत उसके लिए थे—
जो मेरी ख़ामोशी को भी सुन लेती थी,
जो कहती थी—"तुम लिखना, मैं पढ़ लूँगी",
पर शायद उसने कभी पढ़ा ही नहीं,
बस छोड़ दिया जैसे कोई अनचाहा बोझ।

आज वो खत जली हुई राख जैसे पड़े हैं,
कुछ अधूरे, कुछ स्याही से सने,
कुछ पर आँसुओं के निशान हैं,
कुछ पर उसके नाम के इर्द-गिर्द
हजार बार खींची हुई उँगलियों की थरथराहट है।

मैंने चाहा था—
वो जब भी इन्हें खोलेगी,
तो मेरी रूह तक पहुँच जाएगी,
पर उसने उन्हें मुट्ठी भर धूल समझकर
हवा में उड़ा दिया।

हर रात मैं उन टुकड़ों को सीने से लगाता हूँ,
जली हुई लकीरों में उसकी परछाईं ढूँढता हूँ,
और सोचता हूँ—
क्या ये सब सिर्फ मेरे लिए था?
या उसके लिए कभी कोई मायने नहीं रखता था?

अब ये खत मेरे पास नहीं,
ये राख मेरे भीतर है—
एक जलता हुआ सच,
जो कहता है—
मोहब्बत अगर अधूरी रह जाए
तो खत भी मंदिर की वेदी बन जाते हैं,
जहाँ हर रात इंसान अपनी आत्मा चढ़ाता है।

और मैं...
मैं हर रात उन्हीं खतों पर सिर रखकर सोता हूँ,
मानो वो मेरी आख़िरी पनाह हों,
मेरी तन्हाई का अकेला साथी हों।

वो किसी जले कागज़ के टुकड़े नहीं थे,
ख़त थे मेरे—
और अब वो ही मेरे जीवन की
सबसे लम्बी और दर्दनाक कविता बन चुके हैं।

आर्यमौलिक

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मोहब्बत

सरेआम इश्क़ करने को मोहब्बत नहीं कहते,
ये तो बस भीड़ में अपनी नुमाइश करते हैं।

गली-चौराहों पर हाथों में हाथ दिखाना,
दिल का नहीं, सिर्फ़ दिखावे का अफ़साना।

मोहब्बत तो वो है जो दिल के अंदर धड़कती है,
नज़रें चुप रहतीं पर रूह चुपके से सजती है।

जो इश्क़ हो जाए भीड़ की तालियों पर,
वो सच्चाई नहीं, बस हसरतों का शोर है।

सच्चा प्यार पर्दों में दुआ बनकर खिलता है,
बाज़ारों में नहीं, तन्हाइयों में मिलता है।

आज मोहब्बत भी सोशल मीडिया की पोस्ट बन गई,
तस्वीरों की लाइक में दास्तां खो गई।

याद रखना—
सरेआम इश्क़ करना आसान है, निभाना मुश्किल,
क्योंकि असली मोहब्बत दिखती नहीं, जी जाती है।

आर्यमौलिक

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शब्द बदलाव लाते हैं,
ये केवल ध्वनि नहीं, विचारों के दीप जलाते हैं।
कभी शांति के सरोवर बन जाते,
कभी क्रांति की मशाल उठा जाते।

शब्दों से टूटे मन को सहारा मिलता है,
रेगिस्तान में नख़लिस्तान सा किनारा मिलता है।
एक कोमल स्पर्श बनकर घाव भरते हैं,
तो कभी युद्ध की आग में लपटें भी धरते हैं।

शब्द समय से भी आगे निकल जाते हैं,
किसी पुस्तक, किसी स्मृति में अमर हो जाते हैं।
इनसे संस्कृतियाँ गढ़ी जाती हैं,
और कभी साम्राज्य ध्वस्त हो जाते हैं।

सच है—
शब्दों में संसार बदलने की शक्ति है,
एक बीज हैं ये, जिनसे इतिहास पल्लवित होता है।
इसलिए सोच-समझकर इन्हें बोना चाहिए,
क्योंकि शब्द ही वह कलम हैं,
जिससे भविष्य का भाग्य लिखा जाता है।

आर्यमौलिक

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मौन का कारण घमंड नहीं होता

मौन की भी एक भाषा होती है,
हर चुप्पी में हजारों आवाज़ें सोती हैं।
जो नहीं कहते, वो भी बहुत कहते हैं,
बस उनकी धड़कनों को सुनना आना चाहिए।

मौन, तूफ़ान से पहले की शांति है,
यह किसी का अहंकार नहीं,
बल्कि आत्मा की गहराई का प्रमाण है।
जहाँ शब्द छोटे पड़ जाएँ,
वहाँ मौन अपना विस्तार पाता है।

कभी यह घावों की दवा होता है,
कभी यह विचारों की तपस्या।
यह दूरी नहीं, समझ का इम्तिहान है,
यह ठुकराना नहीं, अपनाने का विधान है।

मौन का कारण घमंड नहीं होता,
यह विनम्रता का सबसे पवित्र रूप है।
जिसे समझने की दृष्टि मिल जाए,
वही मौन में छिपी अमृत ध्वनि सुन पाए।

आर्यमौलिक

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दुनिया बदल दूँ

कभी-कभी सोचता हूँ, दुनिया बदल दूँ
पर दुनिया बदलना
जैसे हाथों से हवा पकड़ना है।
मैं जितना कसकर थामता हूँ,
उतनी ही फिसल जाती है।

सोचता हूँ —
गरीब की आँखों से आँसू मिटा दूँ,
अनाथ के माथे पर माँ का साया रख दूँ,
मज़दूर के पसीने में इज़्ज़त भर दूँ,
बेटियों के सपनों में उजाला कर दूँ।

सोचता हूँ —
लाचार बूढ़ों के काँपते हाथों में
फिर से हिम्मत भर दूँ,
नौजवानों के खोए चेहरों पर
नई सुबह लिख दूँ।

पर सच यह है—
मेरे पास सपनों की कलम तो है,
पर कागज़ बहुत छोटा है,
मेरे पास शब्द तो हैं,
पर सन्नाटा उनसे भी बड़ा है।

फिर भी,
हर रात जब थककर गिरता हूँ,
तो अंदर से एक आवाज़ कहती है—
“दुनिया बदलना कठिन है,
पर किसी एक की मुस्कान बदल देना
भी कम नहीं।”

शायद
बदलाव का मतलब यही है—
समुद्र को नहीं,
एक-एक बूँद को सँवारना।

आर्यमौलिक

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डिजिटल रावण दहन

देवियो, सज्जनों, असुरों और असुरणीयों,
आज दशहरा है—
जहाँ रावण जलाने से पहले
लोग सबसे पहले सेल्फी जलाएँगे।

कौन राम है कौन रावण?
ये अब DNA रिपोर्ट से नहीं,
ट्रेंडिंग हैशटैग से तय होगा।
राम वही होगा
जिसके पास फॉलोअर्स की सेना होगी,
और रावण वही—
जो आपकी पोस्ट पर डिसलाइक ठोक देगा।

आज सब मिलकर बुराई को मारेंगे—
फोटोशूट करके,
रील बनाकर,
"जय श्रीराम" कैप्शन डालकर,
और शाम तक
बुराई को "आर्काइव" कर देंगे।

पर सच कहूँ तो,
कल सुबह वही राम
किसी ठेके, किसी चुनावी वादे,
या किसी इन्बॉक्स चैट में
रावण की तरह प्रकट होंगे।

राम बने लोग
भीड़ के सामने रावण को जलाएँगे,
फिर भीड़ के पीछे
रावण की दस-दस सिरों वाली
भ्रष्ट डील, झूठ और लालसा
खुद अपने हाथों से सींचेंगे।

यहाँ हर कोई नायक है,
बस मंच बदलता रहता है—
फेसबुक पर राम,
ऑफिस में रावण,
और घर की चारदीवारी में
शायद मेघनाद तक।

आख़िरकार—
रावण अब पुतले में नहीं बसता,
वह हमारे भीतर
बायोडाटा बनाकर बैठा है,
और हम हर साल
उसे जला-जला कर
और मज़बूत करते रहते हैं।

आर्यमौलिक

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टूटकर भी आदमी जी लेता है

टूटकर भी आदमी जी लेता है,
जैसे आधी रात के सन्नाटे में
टूटा हुआ चाँद
फिर भी उजाला बाँट देता है,
जैसे सूखे वृक्ष पर
कहीं दूर टहनी में
एक हरा पत्ता
अब भी सांस लेता है।

वह टूटता है भीतर ही भीतर,
उसके सपने बिखरते हैं
कांच की तरह ज़मीन पर,
पर बाहर से वह मुस्कुराता है—
क्योंकि घर की चौखट पर
रोते हुए चेहरे का कोई मूल्य नहीं होता।

आदमी टूटा तो बहुत बार है,
बेवफ़ा रिश्तों की चोट से,
समाज की कटु निगाहों से,
रोज़ी-रोटी की भागदौड़ में
कुचले हुए अरमानों से।
फिर भी हर सुबह
वह आँखें खोलता है,
अपने बच्चों की हँसी के लिए,
अपने माँ-बाप की दवा के लिए,
अपने जीवन की जिम्मेदारियों के लिए।

टूटकर भी आदमी जी लेता है—
क्योंकि उसे जीना पड़ता है।
उसके आँसू किसी को दिखाई नहीं देते,
वह उन्हें तकिए के नीचे दबा देता है,
रातें करवटों में काट देता है,
और सुबह वही चेहरा पहन लेता है
जो दुनिया देखना चाहती है।

उसकी आत्मा जब-जब चूर होती है,
तब-तब वह भीतर से
और कठोर बनता जाता है,
जैसे आग में तपकर
लोहे की धार और तेज़ हो जाए।

आदमी टूटकर भी जी लेता है,
क्योंकि उसके भीतर कहीं
उम्मीद की एक छोटी लौ
अब भी झिलमिलाती रहती है,
क्योंकि वह जानता है—
अंधेरा चाहे कितना भी घना हो,
भोर का उजाला
कभी बुझता नहीं।

आर्यमौलिक

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