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लघुकथा " नीयत " गिरीश साधन-संपन्न होते हुए भी नीयत से नीच था। एक दिन वह नगर के सिविल लाॅ के प्रसिद्ध वकील श्री टंडन के पास गया और उनसे कहा - 'सर, मैं आपसे एक राय लेने आया हूं। क्या मेरी विधवा बहिन की जायदाद मेरी हो सकती है?' वकील - 'तुम्हारी बहिन के बाल-बच्चे?' 'कोई नहीं, वह नि:संतान है। सर, यदि मैं थोड़ा विस्तार से सारा घटनाक्रम आपके सामने रखूं तो आपको कोई एतराज़ तो नहीं?' 'नहीं। बल्कि मेरे लिये राय देना आसान होगा।' 'सर, मेरी बहिन के दूसरे पति का कुछ दिन पहले ही हार्ट अटैक से देहान्त हुआ है। मेरे बहनोई भूपेंद्र जी ने अपनी पत्नी की मृत्यु के पश्चात् दो साल पहले ही मेरी बहिन से इसलिये विवाह किया था कि उन्हें अपने जीवन के सूनेपन को भरने के लिये एक साथी की तलाश थी। मेरी बहिन भी अपना पति रोड एक्सीडेंट में खो चुकी थी। सोशल मीडिया के माध्यम से बातचीत उपरान्त दोनों ने विवाह का निर्णय लिया। विवाह-पूर्व उनके दोनों बेटों ने खूब विरोध किया। भूपेन्द्र जी अचल सम्पत्ति में से बेटों को उनका हिस्सा देकर विरोध शान्त करने में सफल हो गये। जायदाद के बंटवारे के बाद भी भूपेन्द्र जी के पास एक कनाल की कोठी रह गयी। भूपेन्द्र जी के साथ रहते हुए लगभग आठ-दस महीने में ही अपने व्यवहार से मेरी बहिन ने न केवल उनका प्यार पाया, बल्कि उन्हें अपनी वफादारी के प्रति भी आश्वस्त कर दिया। भूपेन्द्र जी ने इसी को ध्यान में रखते हुए अपने हिस्से की जायदाद की वसीयत परिणिता, मेरी बहिन के नाम कर दी।' 'परिणिता की उम्र क्या होगी?' 'अभी वह पचास-एक साल की है।' 'पहले पति से उसके नाम कोई जायदाद!' 'कोई नहीं, सर।' 'देखो मिस्टर गिरीश, तुम्हारी बहिन के जीते-जी तो किसी कानून के तहत उसकी जायदाद तुम्हें नहीं मिल सकती। उसके बाद भी तुम उसकी जायदाद पा सकोगे, मुझे शक है।' गिरीश उन व्यक्तियों में से नहीं था जो एक झटके में ही हार मान लेते हैं। उसने तरह-तरह की बातें करके तथा मोटी फीस का लालच देकर पूछा - 'वकील साहब, आखिर कोई तो रास्ता होगा?' उसकी बेवकूफियों से तंग आकर तथा उससे पीछा छुड़ाने की गर्ज़ से वकील ने कहा - 'हां, एक है।' उसने झट से पूछा - 'वो क्या?' 'यदि तुम सिद्ध कर दो कि तुम परिणिता के पति हो तो जायदाद पर तुम्हारा हक हो सकता है।' यह सुनते ही उसके मुंह से निकला - 'क्या वाकई ही ऐसा हो सकता है?' ***** लाजपत राय गर्ग, पंचकूला
लघुकथा " एक पंथ दो काज " महेन्द्र घर पहुंचा तो पसीने से तर-बतर हो रहा था। उसकी ऐसी हालत देखते ही उसकी पत्नी सुनीला बोली - 'आपको जाते हुए कहा था कि स्कूटर ले जाओ, लेकिन मेरी सुनता कौन है?' 'भागवान, यह तो तुम से हुआ नहीं कि हांफता हुआ आया हूं कि हाथ से सब्जी का थैला ही पकड़ लूं और लगी हो अपनी बात सही ठहराने!' महेन्द्र थैला रसोई में रखकर आर.ओ. की तरफ बढ़ा। उसे ऐसा करते देख सुनीला बोली - 'थोड़ी देर पंखे की हवा ले लो, फिर पानी पीना वरना जुकाम लगते देर नहीं लगेगी।' महेन्द्र के आर.ओ. की तरफ बढ़े हाथ वहीं रुक गये वह लाॅबी में आकर पंखे के नीचे बैठ गया और सुनीला को सुनाते हुए कहने लगा - 'देख भागवान, आज सब्जी लाने के चक्र में मेरी सैर चाहे आधी रह गयी, किन्तु छः-सात किलो वजन उठा कर लाने से पसीना पूरी सैर से भी अधिक बह गया है। बड़ा हल्का महसूस कर रहा हूं। अगर तुम्हारे कहने पर स्कूटर लेकर जाता तो सुबह-सुबह वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी ही करता और सैर से वंचित रह जाता, वह अलग।' 'हां-हां, अपनी बात को सही ठहराना तो कोई आपसे सीखे। मेरे कहे का तो कोई मोल ही नहीं।' महेन्द्र ने हाथ जोड़ते हुए कहा - 'भागवान, अब बस भी करोगी या कुछ और कहना बाकी है?' ****** - लाजपत राय गर्ग, पंचकूला
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