लघुकथा
" एक पंथ दो काज "
महेन्द्र घर पहुंचा तो पसीने से तर-बतर हो रहा था। उसकी ऐसी हालत देखते ही उसकी पत्नी सुनीला बोली - 'आपको जाते हुए कहा था कि स्कूटर ले जाओ, लेकिन मेरी सुनता कौन है?'
'भागवान, यह तो तुम से हुआ नहीं कि हांफता हुआ आया हूं कि हाथ से सब्जी का थैला ही पकड़ लूं और लगी हो अपनी बात सही ठहराने!'
महेन्द्र थैला रसोई में रखकर आर.ओ. की तरफ बढ़ा। उसे ऐसा करते देख सुनीला बोली - 'थोड़ी देर पंखे की हवा ले लो, फिर पानी पीना वरना जुकाम लगते देर नहीं लगेगी।'
महेन्द्र के आर.ओ. की तरफ बढ़े हाथ वहीं रुक गये वह लाॅबी में आकर पंखे के नीचे बैठ गया और सुनीला को सुनाते हुए कहने लगा - 'देख भागवान, आज सब्जी लाने के चक्र में मेरी सैर चाहे आधी रह गयी, किन्तु छः-सात किलो वजन उठा कर लाने से पसीना पूरी सैर से भी अधिक बह गया है। बड़ा हल्का महसूस कर रहा हूं। अगर तुम्हारे कहने पर स्कूटर लेकर जाता तो सुबह-सुबह वायु प्रदूषण में बढ़ोतरी ही करता और सैर से वंचित रह जाता, वह अलग।'
'हां-हां, अपनी बात को सही ठहराना तो कोई आपसे सीखे। मेरे कहे का तो कोई मोल ही नहीं।'
महेन्द्र ने हाथ जोड़ते हुए कहा - 'भागवान, अब बस भी करोगी या कुछ और कहना बाकी है?'
******
- लाजपत राय गर्ग, पंचकूला