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"स्याही की चुप्पी" ...................... अब कविता में बात नहीं करूँगा, सीधे-सीधे कहूँगा। जो दिल में है वो छुपाऊँगा नहीं, झूठे शब्दों से सँवारूँगा नहीं। थक गया हूँ अब इशारों की चाल से, मन की बात कहूँगा अपने ही हाल से। जो पीड़ा है, वो कहूँगा साफ़, न कोई घुमाव न कोई नक़ाब। जब तक तुम सुनोगी नहीं, तब तक मैं कुछ लिखूँगा नहीं। हर शब्द में तुम साथ हो, बिना तुम्हारे मैं कुछ सोचूँगा नहीं। स्याही भी अब रुक गई है हाथों में, तुम्हारी आवाज़ नहीं तो क्या अर्थ बातों में। मन में जो भाव हैं, वे भी अब थमे हैं, तुम बिन ये शब्द काग़ज़ पर भी रुके हैं। जब तक मन से बुलाओ नहीं, मैं स्वयं को भी लिख नही पाऊगा कहीं. -पवन कुमार शुक्ल
"समर्पण" तुम खोजो ब्रह्म, मैं तुम्हें खोजूँगा। तुम ढूँढो मुक्ति, मैं तुम्हें ढूँढूँगा। तुम बनो प्रकाश, मैं दिशा हो जाऊँ। तुम रहो अकेले, मैं सदा संग आऊँ। तुम बनो सन्नाटा, मैं ध्वनि में गाऊँ। तुम बनो विरक्ति, मैं प्रेम बरसाऊँ। तुम हो गगन सा, मैं पवन बन बहूँ। तुम हो नयन सा, मैं स्वप्न बन कहूँ। तुम खोजो छाया, मैं धूप में आऊँ। तुम रोओ चुपचाप, मैं अश्रु में गाऊँ। तुम बनो तपस्वी, मैं भाव बन जाऊँ। तुम खोजो अंत, मैं लय में समाऊँ। तुम रहो जहाँ भी, मैं वहीं मिलूँगा। तुम जिसे बुलाओ, मैं वही सुनूंगा - पवन कुमार शुक्ल
"हारा हुआ प्रेम " अब मैं जा रहा हूँ उस पत्ते की तरह जो वर्षों तक शाख से लटकता रहा, हर ऋतु में बस तुम्हें ही देखता रहा। तुम्हारी आँखों में कभी आशा की किरन थी, कभी धुंध सी उपेक्षा। मैं उस धूप-छाँव का यात्री बन तुम्हारी हर दृष्टि में आश्रय ढूँढ़ता रहा। जब भी लगा अब शाख ने मुझे थाम लिया, तुमने हवा की तरह कोइ और दिशा मोड़ दी अपने इशारों की बयार। मैंने प्रेम किया जैसे सूखा कुआँ बादल से बात करे, हर बार भीगने की कामना में किन्तु अपने ही प्रतिध्वनि से भर जाता है। एक समय, वह प्रेम एक आँधी था जिसने मेरे भीतर की हर ईंट गिरा दी थी। मैं बिखर गया था, इतना कि खुद को समेटना भी असंभव हो गया। और सपनों में बस सन्नाटा बोलता था। तब लगा था शायद अब सब थम गया। पर नहीं जिंदगी बार-बार वही दृश्य रचती है, हर बार कुछ और रंगीन पर्दे के पीछे वही चुभता हुआ अंत छुपा होता है। अब मैं थक गया हूँ बार-बार उसी मुहाने पर खड़ा होकर, जहाँ प्रेम एक मृगतृष्णा बन हर बार मुझे भूखा-प्यासा छोड़ जाता है। अब कोई प्रतीक्षा नहीं ना उस मुस्कान की जो अधूरी रही, ना उस दृष्टि की जो हर मोड़ पर पीठ दिखा गई। अब मैं जा रहा हूँ किसी सूने स्टेशन की आख़िरी ट्रेन की तरह, जिसका टिकट किसी ने कभी लिया ही नहीं। तुम रहो अपनी हवाओं में, मैं गिर जाऊँगा कहीं एक सूखे पत्ते की तरह, मिट्टी बन जाऊँगा और शायद किसी और पेड़ की जड़ बनूँगा. - पवन कुमार शुक्ल
"सड़क" सो जाओ, सो जाओ सड़क ! तुम्हारे कंधों से उतर गए हैं दिन के थके हुए कदम, सायरनों की चिल्लाहट, हॉर्नों की झुँझलाहट, रेशम की तरह खिंचती कारें और धूल में लिपटे झगड़े बाजार के ठेले फुटपाथ के मेले अब सब घर पहुँच चुके हैं। तुम रह गई हो, स्ट्रीट लाइट में बिना आवाज़ की सतह तुम्हारे किनारों पर अब कोई नहीं पूछता रास्ता कोई भी नहीं देखता लाल, पीली, हरी बत्तियों की तरफ। खम्भे से लटके लाइट में केवल कीडों की भनभनाहट है नींद उतर रही है धीरे-धीरे पटरियों पर, जैसे कोई बूढ़ी माँ सिर सहला रही हो रह गई हो तुम अब केवल एक लंबा निश्वास, एक शेष पंक्ति, अद्रिश्य शरीर की अपूर्ण इच्छा का घर अन्जाना डर सो जाओ सड़क, कल फिर कोई दौड़ेगा तुम पर किसी "जरूरी" मंज़िल की तलाश में फिर थकेगा कोई धूप में जलेगा कोई समस्या में उलझेगा कोई समाधान की आश में ............................. सो जाओ सो जाओ सड़क ! सुबह फिर जगना है । -पवन कुमार शुक्ल
"यामिनी" रात थी तरल अहसास सी ठंड हवा जंगली सुगंध को समाये पत्थर से टकराती छिछली नदी पर दौडती........ पहाड़ियाँ काली रेखाओं-सी क्षितिज पर उभरी जैसे किसी पुराने चित्र की याद अम्रितांश की शुभ्र चादर ओढे मैं था एक पेड़ की जड़ में, मिट्टी की गंध में घुला, घास की नमी में लिपटा। ऊपर, चाँद था ना पूरा, ना अधूरा, बस वहाँ था। शब्दहीन, उस पतली धार में खुद को निहारता...... चारों ओर सन्नाटा फैला था, लेकिन सन्नाटा नहीं था वह बहती थी नीचे, कहीं पास ही, एक पतली धारा, जिसकी ‘कल-कल’ किसी प्राचीन लोरी-सी कानों में उतरती थी। मैंने कुछ नहीं कहा, उसने कुछ नहीं पूछा। फिर भी एक संवाद था उस हवा का उस सरसराते लहराते जंगल का शायद यही होती है शांति जब तुम प्रकृति में ना दर्शक होते हो, ना कथाकार— बस एक बिंदु, जो खो चुका है हर दिशा में। -पवन कुमार शुक्ल
अंतराल .................................... लंबे अंतराल के बाद जब तुम आई, तो दरवाज़ा नहीं समय खुला। दीवारों ने पहचानने में थोड़ा वक़्त लिया, कमरे की हवा अभी भी तुम्हारा इंतज़ार करती थी। तुम आई, पर वो हँसी अब पहले जैसी नहीं थी — शब्द कम, मौन अधिक था। चाय उबल रही थी, पर चूल्हे की आग अब उतनी गर्म नहीं थी। कुछ बदला नहीं, फिर भी सब कुछ बदल चुका था। लंबे अंतराल के बाद तुम आई हो — या शायद सिर्फ तुम्हारी परछाईं। -पवन कुमार शुक्ल
"वो जो मेरे मौन में रहती है" वो, जो हर सुबह किसी और की दुनिया सँवारने निकलती है, और हर शाम किसी और की थकान अपने भीतर समेट लेती है, उसे मैं हर दिन, हर पल बिना मांगे, बिना कहे, पूजता रहा हूँ। वो, जो मुझसे उम्र मेॅ आगे चली, और मैं… उसी दूरी में रहकर उसकी परछाईं से दोस्ती करता रहा। मैंने कभी उसके नाम को अपने अधरों तक नहीं आने दिया, बस अपने हृदय में एक दीपक की तरह जलाए रखा— टिमटिमाता, शांत, पर बुझा नहीं कभी। वो नहीं जानती, कि कोई है— जो हर रोज़ उसकी खामोश उपस्थिति में अपने भीतर कुछ गिरा देता है— एक साँस, एक उम्मीद, एक गीत। मैंने प्रेम नहीं माँगा, बस उसकी उपस्थिति को अपने जीवन की कविता बना लिया— एक ऐसी कविता, जो कभी उसके पास नहीं पहुँची, पर हर शब्द उसी की साँसों से महकती है। अगर कभी ये शब्द उसके पाँव के पास गिरें— तो वो समझ जाए कि यह कोई प्रेम निवेदन नहीं, बस एक आत्मा का प्रणाम है, जो जन्मों से उसका है, और जन्मों तक रहेगा— मौन, मधुर, मूक… पर अटल। -पवन कुमार शुक्ल
"आओ बैठें" आओ बैठें— थोड़ी देर बिना कहे कुछ, सिर्फ़ साँसों की आवाज़ में बातें ढूँढें। कुर्सियाँ वही हैं, जिन पर पहले भी बैठे थे, पर पीठ सीधी नहीं होती अब, शायद दिल थोड़ा झुक गया है। फोन साइलेंट रखो, न दुनिया रुकेगी, न ख़बरें थमेंगी। पर यह पल— हमारी नज़रों में एक पूरी उम्र जैसा हो सकता है। आओ बैठें— जैसे पुराने पेड़ के नीचे थकी हुई छाया बैठती है। न हिसाब करें कल का, न डरें आने वाले ऋतुओं से। बस अभी— तुम और मैं, थोड़ी चुप्पी, थोड़ा अपनापन और एक अदृश्य समझौता कि हम साथ हैं, क्योंकि हम साथ होना चाहते हैं। -पवन कुमार शुक्ल
- : फुहार :- मदमस्त घन, मदमस्त वन मदमस्त है कुलकामिनी मोर संग ज्यों मोरनी मदमस्त द्रृग मैं बलिहारी सघन केस में गुंथी वारि आवाज मीठे मोर स्वर सा मन तो हर ले मोहिनी वह मोर सी न्रृत्यांगनी. कोयले प्रतिध्वनि सुनाये छेंड़ती जब रागिनी मदमस्त संग मन में उमंग मदहोश कर मन स्वामिनी ऐ स्वप्न सी शशि भामिनि नील नभ की चांदनी...
घर से थोड़ी दूर एक मंदिर है एक पगडंडी है झाड़ में पंछी हैं हवा की सरसराहट है शुकून है शीतल छांव है जी हां मेरा गांव है.
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