"हारा हुआ प्रेम "
अब मैं जा रहा हूँ
उस पत्ते की तरह
जो वर्षों तक शाख से लटकता रहा,
हर ऋतु में बस तुम्हें ही देखता रहा।
तुम्हारी आँखों में कभी आशा की किरन थी,
कभी धुंध सी उपेक्षा।
मैं उस धूप-छाँव का यात्री बन
तुम्हारी हर दृष्टि में आश्रय ढूँढ़ता रहा।
जब भी लगा
अब शाख ने मुझे थाम लिया,
तुमने हवा की तरह
कोइ और दिशा मोड़ दी
अपने इशारों की बयार।
मैंने प्रेम किया
जैसे सूखा कुआँ बादल से बात करे,
हर बार भीगने की कामना में
किन्तु
अपने ही प्रतिध्वनि से भर जाता है।
एक समय, वह प्रेम एक आँधी था
जिसने मेरे भीतर की हर ईंट गिरा दी थी।
मैं बिखर गया था,
इतना कि खुद को समेटना भी असंभव हो गया।
और सपनों में बस सन्नाटा बोलता था।
तब लगा था
शायद अब सब थम गया।
पर नहीं
जिंदगी बार-बार वही दृश्य रचती है,
हर बार कुछ और रंगीन पर्दे के पीछे
वही चुभता हुआ अंत छुपा होता है।
अब मैं थक गया हूँ
बार-बार उसी मुहाने पर खड़ा होकर,
जहाँ प्रेम एक मृगतृष्णा बन
हर बार मुझे भूखा-प्यासा छोड़ जाता है।
अब कोई प्रतीक्षा नहीं
ना उस मुस्कान की जो अधूरी रही,
ना उस दृष्टि की जो हर मोड़ पर
पीठ दिखा गई।
अब मैं जा रहा हूँ
किसी सूने स्टेशन की आख़िरी ट्रेन की तरह,
जिसका टिकट किसी ने कभी लिया ही नहीं।
तुम रहो अपनी हवाओं में,
मैं गिर जाऊँगा कहीं एक सूखे पत्ते की तरह,
मिट्टी बन जाऊँगा
और शायद किसी और पेड़ की जड़ बनूँगा.
- पवन कुमार शुक्ल