"जेहि बिधि नाथ होइ हित मोरा। करहु सो बेगि दास मैं तोरा।। ️️️ ️ " "नाथ सकल संपदा तुम्हारी। मैं सेवकु समेत सुत नारी॥ "

शान्त ही आश्रयदाता है कोलाहल का..
नंकार

जो हर जगह है वही तोड़कर खुद को खोजता है टुकड़ों में सहता है पीड़ा अनंत प्रेम मे वियोग की |

अब व्यक्त नही अव्यक्त , भाव भीतर ही |
यह परख तुम्हारी और मेरी है ||

हम जो भी जीवन पर्यन्त करते है स्वंय के लिए ही |
उपकार , सेवा का नाम देना केवल अहं की स्थापना है ,
प्रकृति स्वंय में पूर्ण और संरक्षित है | उसे अनुकूल बनाये रखना स्वंय की रक्षा है | व्यक्ति का आचरण व्यवहार उसका मार्ग प्रशस्त करते हैं |

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जाने कितना लम्बा जीवन कटता ही नही
घटता ही नही , रद्दी कागज की ढेर बनी
जिस ओर मुड़ी उस ओर मुड़ी....

तू रूठा सा लगता है !
कुछ भीतर टूटा लगता है
न पकड़ मेरे है हाथों में
छोड़ूँ दम न है सासों मे
चुभते दर्पण टुकड़े होकर
अनगिनत छवि ओझल होकर ......

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जब एक शरीर से लगे दो पैर मे से एक अपनी स्थिति से पाँच गुना आगे बिना दूसरे पैर के सामंजस्य से आगे बढ़ जाता है तो व्यक्ति खड़ा नही रह पाता | यही हमारे जीवन मे लिए गये निर्णय की अव्यवस्थित दशा स्थिति है |

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अर्थहीन ! निर्थक !
सिवाय उस समय के जो क्षण तुम्हारे साथ बीतते हैं |
कभी पलको के साहिल पर तो कभी हृदय की लहरो में....

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अगर वास्तविकता है तो मिट नही सकती जो मिटे और बने वह वास्तविकता नही वास्तविकता अपरिचित हो सकती है मगर ! अवास्तविक नही |

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दूसरो की मति के अनुसार कार्य करने वालो के हाथ केवल अपमान और पीड़ा के सिवा कुछ नही लगता |