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छूटे धनुष सुत नयन बहाए, हर्ष-शोक मन डोलत जाए। गुरु-पितु-बंधु सभी सम्मुख खड़े, कौन बाण अब छाती भेदे। कृपा करूँ या धर्म निभाऊँ, कौन मार्ग अब मैं अपनाऊँ। मोह मगन मन भयो अधीरा, रण को देख उठी अंधी पीरा॥ धर्म लगे मोहिन अधूरो, मन बोले कर दे सब दूरो। कंठ बँध्यो, नयन झमकाए, गांडीव हाथ से नीचे जाए। गांडीव हाथ से नीचे जाए। क्यों मोह की माया में बंधकर, तू धर्म-पथ से डोलत है रण का क्षत्रिय पुत्र हो अर्जुन, फिर कायरता क्यों बोलत है शरीर क्षणिक, ये बंधन क्षीण,ये जनम मरण का मेला है धर्म पथ पर चलने की,आई अपूर्व यह बेला है गांडीव उठा, चढ़ा रथपथ पर, आज धर्म की जय होगी तेरे बाणों की अग्नि से, दुर्योधन की भस्म तय होगी ना मृत्युभय,ना युद्ध से डर, बस कर्म कर, बस कर्म कर! सुमित ‘सहज’
सेना सहित सबल नरप तजहीं, काल निकट जब आव। बन के मृगन संग जियें, जे धरम न छोड़हिं भाव॥ संकट समए न प्रबलता राखै, नाहीं साथ समर्थ। साँचो धरम न छोड़िए, ताहि राखई हरि अर्थ॥ आस्था राखहु निज ईस में, करतब करहु सनेह। धर्म-पंथ चलि जीव सुखी, तजि संदेह सनेह॥ सुमित ‘सहज’ सार महारथी राजा भी अपनी सेना और शक्ति के साथ काल के आगे हार जाते हैं, जबकि जंगलों में रहने वाले वनवासी – जो धर्म और विश्वास में अटल होते हैं – सुरक्षित रहते हैं। इसलिए मनुष्य को चाहिए कि वह अपने ईष्ट में आस्था रखते हुए धर्म के मार्ग पर निरंतर कर्म करता रहे। बचाव शक्ति से नहीं, धर्म और श्रद्धा से होता है
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