प्रकृति की भाषा ...
आज मैं निराश हूं... नि:सहाय हूं... लाचार हू...गमगीन हूं... । पूछो क्यों...?उसका एक ही कारण हैं - मनुष्यों की अप्रतिम स्वार्थवृत्ति । मनुष्य की स्वार्थवृत्ति के कारण मुझे सदैव दर्द और उपेक्षा ही मिले हैं। मुझे और मेरी भावनाओं को समझने की फूरसत किसको हैं...? सब भौतिकवाद की दौड़ मैं कैवल पैसे की लालच में अंधे हो गए है। न्याय, नीति, सत्यप्रियता, ईमानदारी, मानवता जैसे शब्द मानो कागज के पन्ने पर ही अच्छे लगते हैं। कुछ न कुछ पाने की लालच मैं इन्सान मुझे नुकसान पहुंचाता है। मैं कुदरत का दिया गया अनमोल तोहफा हूं, फिर भी किसी को मेरी कदर हैं, क्या...? न जाने कब यह स्वार्थी मनुष्य को ज्ञात होगा कि , जीवन मैं पैसा और प्रसिद्धि ही सब कुछ नहीं होता और दूसरों को कुचलकर मिली प्रसिद्धि हासिल करने से क्या ईश्वर खुश रहता है ...? कदापि नहीं...। वन एवं वन्य प्रकृति को नुकसान पहुंचाने से काफी असमतोलन हुआ है। लेकिन जब भी मैं रूठती हूं तब मेरे विनाशक परिणामों के कारण मुझे दोषी करार दिया जाता हैं। पर क्या यह सब असमतोलन की दोषी मैं ही हूं ...? नहीं ...| यह सब परिणामों के लिए जिम्मेदार मनुष्य भी इतना ही हैं। यदि मनुष्य अपने निजी स्वार्थ में डूबने के बजाय मेरे साथ मित्र भाव बनाए रखे और मेरा संवर्धन करे तो मुझे बेहद खुशी होगी।
अंतर से मेरी एक ही मनोकामना हैं की मनुष्यों के दिल मैं एक दूसरो के प्रति मानवता बनी रहे, वे अपने निजी स्वार्थ में डूबे बिना परस्पर प्रेम बनाए रखे और पृथ्वी पर भावनात्मक एक्य का वातावरण प्रस्थापित हो।"
- "कल्पतरु"