मैने कब कहा कि मुझमे कुछ था,है|
मुझमे तुम हो तुमने बताया |
क्यों थी यह नही जानती ,
तुमने क्या चाहा यह नही जानती|
मैने किसे छुआ मुझे नही पता पर ,
वह वही है जो अनन्त है , यह सच
नही तो फिर क्या ही सच होगा |
कहाँ तक फैले नही हो तुम ,क्या
संकुचित शून्य नही हो तुम ! बता दो
जहाँ तुम नही हो ? उसी जगह मुझे
दण्ड दो | जब भीतर तुम्हारा था ,
बाहर मेरा कैसे | जीने की चाह
राह तुमतक ही सिमटी है ,
विचारो का आँचल गीला है प्रार्थनाओं से,
चित्त चरणों से न डिगे |
हो शरणागतदीनार्त ! क्या तुम भी बदल गये?
अपने ही बनाये संसार मे तुम भी मिल गयें |
कहा तो है ! और कैसे कहूँ ? जो तुम्हे भाये
वैसी ही रहूँ |
है पकड़ कमजोर मेरी भावना भी, जानती हूँ!
आनभिज्ञ नही |
पकड़ा ही कहाँ ?
हाथ सौंपा है |
अब छोड़ो गिराओ तुम्हारी ही
गरिमा है |
प्रेम

Hindi Poem by Ruchi Dixit : 111814911

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