माँ अन्नपूर्णा
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भरी थाली में बहु व्यंजन
सभी को भाते हैं,
पर इस व्यंजन के पीछे
कितनों की हाँड़ तोड़ मेहनत लगी है
कितने लोग समझ पाते हैं।
पैसों के गुरुर में चूर हैं कितने
अन्नपूर्णा का अपमान करने में भी
तनिक नहीं शर्माते हैं।
चंद पैसे फेंक अनाज ले आते हैं
पैसों का बड़ा घमंड दिखाते हैं,
एक एक दाने में छिपे
किसानों के श्रम, समर्पण का
अहसास तक नहीं कर पाते हैं।
जिनके श्रम की बदौलत
हम भरी भरी थाली में
बहुत व्यंजन परोसे लेते हैं
खाते तो कम हैं, थाली में छोड़ ज्यादा देते हैं।
फिर बड़ी शान से बचें भोजन को
कूड़ेदान, नालियों या गंदी जगहों पर
बेशर्मी से फेंक देते हैं।
ऊपर से तुर्रा ये कि हम तो
अपने पैसों से खरीदकर लाते हैं,
हम खाते हैं या फेंक आते हैं
आप काहे को परेशान होते हैं।
सच ही कहा रहे हो अमीरजादों
तुम्हें अन्न का सम्मान करना नहीं आता
किसी भूखे को एक वक्त भोजन कराने में
तुम्हारा प्राण निकलने लगता,
तभी तो जब किसी गरीब की आह निकलती है
अन्नपूर्णा भी तुमसे रुठ जाती है,
लाखों करोड़ों के मालिक होकर भी
तुम्हें अन्न नसीब नहीं होता,
सामने रखी हो थाली तो भी
खाने का समय नहीं होता,
क्योंकि धन का लोभ तुम्हें
भला खाने कहां देता?
मगर गरीब रुखी सूखी खाकर भी
चैन की नींद सोता है,
जबकि तुम्हें नींद की गोली खाकर भी
नींद का इंतजार करना पड़ता है
मां अन्नपूर्णा के अपमान का दंड
इसी धरती पर तुम्हें सहना पड़ता है,
अमीरजादों के नखरे जो हैं तुममें
उसका प्रतिफल भोगना पड़ता है
लाख सुख सुविधा के बाद भी
परहेज़ में ही जीवन गुजारना पड़ता है
तरह तरह के व्यंजनों को देख भर सकते हो
मगर तरस तरस कर जीना पड़ता है।

सुधीर श्रीवास्तव
गोण्डा उत्तर प्रदेश
८११५२८५९२१
© मौलिक स्वरचित

Hindi Poem by Sudhir Srivastava : 111814943

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