"वो मिला नही, पर मेरा रहा"
उसने कहा_ चलो मिलते हैं कभी
मैंने कहा नहीं
शब्द कम थे
पर वजह हजार।
डर संकोच, या शायद
इस रिश्ते को यूं ही
पवित्र रहने देने की चाह।
वो थोड़ा चुप हुआ,
कुछ पलो को थम गया,
लेकिन उसने मुझसे
मुंह नहीं फेरा
न नाराज होकर गया,
न सवाल करके रुका _
बस जैसे समझ गया
मेरी उस न में छुपी हा।
मैं नहीं जानती
वो अब भी उतना ही सोचता है या नहीं,
लेकिन मैं जानती हूं _
उस एक क्षण में
उसने सिखा दिया
कि दोस्ती में
मिलना जरूरी नहीं होता
बस ना कहने पर भी
साथ बना रहना जरूरी होता हैं।
"दो चुप्पियां"
( एक भरोसे का रिश्ता)
। सुनिता भारद्वाज।