"महफिल में अकेली "
वो सब हस रहे थे, बाते कर रहे थे,
और मैं उन्हीं के बीच चुप सी बैठी थी ।
जैसे मैं एक जरूरत भी नहीं थी
जैसे मेरी हसी भी किसी के लिये खुशी नहीं थी।
मैं देख रही थी सबको अपने चेहरे में डूबते हुए ,
मगर मुझे लगा मै तो इस तस्वीर का हिस्सा भी नहीं,
क्या मेरी खामोशी उन तक पहुंची भी थी,
या मैं बस एक साया थी,
जो दिखाकर भी समझी नहीं गई?
उसके लिए हर रिश्ता एक पल का
मेरे लिए लिए हर पल एक रिश्ता था ...
पर शायद मेरी गहराई से वो डरते थे,
इसलिए हर बार मुझे अकेला छोड़कर चल देते थे।