*मैं बिरहा की मारी*
एक अधूरी दास्तान
सारे रिश्ते, वादे अधूरे से क्यों लगते हैं, मैं बिरहा की मारी, तेरे हर वजूद पे, मेरे हमदम की हारी।
कोई तो तूफ़ानी हुई, बस फ़कत मेरे क़दमों को बढ़ाते हुए, वो पल मेरे साथ से हट गए।
ना कोई दिल पे चला, ना कोई शोर उठा, क्या पता वो दर्द से भरी ख़ामोशी थी, जो मेरे-तेरे दरमियान आकर बस गई।
ना नशा, ना सुरूर, ना जुनून पर न जाने कब से ठहरा हुआ सा है एक लम्हा, जो गुज़र ही नहीं रहा।
_Mohiniwrites