दोहा- कहें सुधीर कविराय
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गुरु पूर्णिमा विशेष
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गुरु पूजन का है दिवस , अवसर आया खास।
सबके मन में भावना, और अटल विश्वास।।
रहे हाथ गुरुदेव का, मेरे सिर पर नित्य।
कवि सुधीर जिससे रचे, जग में शुभ साहित्य।।
गुरु शिक्षा भंडार हैं, सदा सहेजो आप।
जीवन में होगा नहीं, कभी आप से पाप।।
ज्ञानी जन को है पता, गुरुजन का क्या मोल।
करें नहीं सज्जन कभी, मर्यादा का तोल।।
सतगुरु से यदि आस है, तो रखिए विश्वास।
संत जनों का है यही, सूत्र सदा ही खास।।
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धार्मिक
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चित्र गुप्त जी कीजिए, जन मन का उद्धार।
भव बाधा से मुक्त हो, सुखी रहे संसार।।
शनी देव के नाम का, व्यापक ब्रह्म प्रभाव।
शीश झुका शिव धाम में, शेष नहीं अब घाव।।
मर्यादा श्री राम की, भूल रहा संसार।
आज स्वयं को मानता, जगती का आधार।।
बजरंगी अब आप ही, करें जगत कल्याण।
या कहिए प्रभु राम से, हरें दुष्ट के प्राण।।
प्रातः उठ वंदन करें, ईश वंदना साथ।
सतत कर्म की साधना, ऊँचा हो तव माथ।।
गणपति बुद्धि विवेक का,भरो आप भंडार। करिए बस इतनी कृपा, सुखी रहे संसार।।
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बाबा तुलसीदास
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पिता आतमा राम थे, हुलसी जिसकी मात।
उनसे गोण्डा को मिला, है सुधीर सौगात।।
सरयू के उस पार है, तुलसी की ससुराल।
माँ हुलसी का मायका, कचनापुर है भाल।।
अवधी में मानस लिखा, किया श्रेष्ठ शुभ काम।
अमर बने तुलसी तभी, हुआ विश्व में नाम ll
गुरु नरहरि के शिष्य थे, बाबा तुलसीदास।
लिखकर मानस ग्रंथ को, जगा दिया विश्वास।।
पसका सूकरखेत में, गुरु नरहरि का धाम।
गोण्डा से कुछ दूर पर, चर्चित है यह नाम।।
नरहरि जी से था सुना, राम नाम का सार।
सूकर-भू में था मिला, तुलसी को आधार।।
जन्म भूमि गोण्डा रही, या बाँदा को मान l
रामचरित जिसने लिखा, कर सुधीर सम्मान।।
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यमराज
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सुबह मित्र कहने लगा, चलो आप यमलोक।
फैला रहता इन दिनों, वहाँ बहुत ही शोक।।
तेरी इच्छा के लिए, चलता हूँ यमलोक।
तू तो मेरा मित्र है, कैसे सकता रोक।।
तेरी खुशियों के लिए, कुछ भी करूँगा यार।
तेरे बिन इस जगत का, शेष और क्या सार।।
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नालंदा
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नालंदा का विश्व में, बड़ा था ऊँचा नाम।
मोदी जी के राज में, मिला नया आयाम।।
विश्व पटल पर फिर हुआ, नालंदा का नाम।
दूर दृष्टि से देखिए, नव शिक्षण का धाम।।
नालंदा के नाम पर, झुक जाते थे शीश।
शिक्षा के इस धाम से, निकले जो वागीश।।
शिक्षा का मंदिर बड़ा, नाम हुआ मशहूर।
नालंदा तीरथ रहा, दिया ज्ञान भरपूर।।
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आकाश
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अपना नीला आकाश है, देता है संदेश।
एका में रहिए सभी, चाहे जो हो वेश।।
आकाश मार्ग से ले गया, रावण सीता मात।
गीधराज बोले प्रभो, सुनिए मेरी बात।।
पिता मेरे आकाश हैं, मात धरा समान।
इन दोनों के बिना हम, सब होते अंजान।।
धरा और आकाश का, कभी न होता मेल।
पर दोनों के बीच में, होते जग के खेल।।
दंभी को लगता सदा, छोटा है आकाश।
उसके बिन अस्तित्व के, होंगे सभी निराश।।
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विविध
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अपना होता कौन है, समय संग हो ज्ञान।
भला कौन है जानता, मानव रचित विधान।।
कौन किसे क्या दे रहा, क्या है उसके पास।
बस केवल उम्मीद का, दिए तोहफा खास।।
टूट रहा विश्वास का, रिश्ते जितने खास।
दुखी करे सबसे अधिक, जो जितना है पास।।
आजादी कैसे मिली, यह भी रखिए ज्ञान।
तभी आपको देश पर, गर्व और सम्मान।।
उत्कंठा तो ठीक है, उचित नहीं अतिवाद।
बिन पानी बेकार सब, कितना दोगे खाद।।
अपने सारे लोग जब, नजर फेरते आज।
समझ मुझे तब आ गया, स्वार्थ सिद्ध का काज।।
वीरानी छाई हुई, मुखमंडल पर आज।
कितना बिगड़ा इन दिनों, अपना मित्र समाज।।
धर्म जाति के नाम पर, होता है बहु खेल।
याराना दम तोड़ता, होती ठेलम-ठेल।।
नादानी में हो रहे, बच्चे अब बर्बाद।
भ्रम में इतने मस्त हैं, नहीं रहा कुछ याद।।
चालाकी का इन दिनों, नित्य नया अवतार।
भेष बदलकर देखिए, सभी बने सरकार।।
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आशंका
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आशंका के बीच में, झूल झूलेंलोग।
तेजी से फूले- फले, कैसा है ये रोग।।
आशंका को छोड़िए, सोचो प्यारे आज।
प्रेम भावना संग में, गंदा तेरो राज।।
आशंकाएं दे रही, तीखे- तीखे दर्द।
रोता कुंठा से घिरा, लाचारी से मर्द।।
मन उदास है इन दिनों, जाने क्या है राज।
मुश्किल सबसे है बड़ी, बाधित है सब काज।
आप देखते क्यों नहीं, प्रभु जी जग का हाल।
मानव फँसता जा रहा, बुने स्वयं जो जाल।।
बेबस अरु लाचार वो, जिसे समझते आप।
अच्छे से उसको पता, क्या है उसका पाप।।
जाने कैसा हो रहा, मानव मन का मीत।
अपने ही दुश्मन बने, गाए ऐसे गीत।।
मीठी वाणी बोलते , पाते वो सम्मान।
पीछे कोई है नहीं, छुपा हुआ विज्ञान।।
मर्यादा जो तोड़ते, होते हैं लाचार।
उन्हें कहाँ आता भला, क्या आचार विचार।।
संतों की वाणी बड़ी, होती ज्ञान की खान।
मानो जैसे देव हैं, या पाषाण समान।।
दंभी लोभी लोग जो, वे होते बेभाव।
पाते हैं वे सभी से, करनी जैसे घाव।।
कहते हैं यमराज जी, यह कैसा परिवार।
सबको मिलता है जहाँ, इक दूजे का प्यार।।
आखिर इतने दंभ में, क्यों रहते हैं आप।
चोरी की क्या आपने, या फिर ईर्ष्या पाप।।
कुंठा से तो आपका, होता है नुकसान।
नादानी के फेर में, मिटा रहे निज मान।।
व्यर्थ नसीहत आपका, जिसको मिले न भाव।
आप चाहते हो भला, हिस्से आता घाव।।
कुछ लोगों को आजकल, ऐसा चढ़ा सुरूर।
मान और सम्मान से, भाग रहे हैं दूर।।
इज्जत देकर व्यर्थ में, होता है नुकसान।
बदनामी के संग में, मुफ्त सहो अपमान।।
रंग बिरंगे भेड़िए, घूम रहे चहुँओर।
पीड़ा जितनी दे रहे, उतना करते शोर।।
मान आपको मिल रहा, यही है उनकी पीर।
ईर्ष्या जिसकी संगिनी, वही बहाते नीर।।
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सुधीर श्रीवास्तव