रात के सन्नाटों में जब सारी दुनिया सो जाती है,
एक आवाज़ मुझमें धीरे से बोल जाती है।
“कैसी हो?” — मैं खुद से पूछती हूं,
ना जवाब ज़रूरी होता है, ना कोई वजह।
कभी अपनी ही आंखों में झांक लेती हूं,
और सोचती हूं — क्या मैं सच में थक गई हूं?
फिर याद आता है —
थकना बुरा नहीं, रुकना भी गुनाह नहीं,
बस खुद से सच्चा रहना जरूरी है।
जब दुनिया जवाब मांगती है,
मैं खुद से सवाल करती हूं।
जब लोग बदल जाते हैं,
मैं अपने आप में लौट आती हूं।
खुद से की गई बातें,
ना टूटती हैं, ना थकती हैं —
वो ही मेरा सुकून हैं,
वो ही मेरी सबसे प्यारी सखी हैं।
२भीड़ से दूर, खामोशियों में,
मैंने खुद से मिलना सीखा है।
ना शोर की चाह, ना रौशनी का जूनून,
मैंने चुप को अपना शीशा सीखा है।
किताबों की खुशबू, चाय की गर्मी,
इनसे जो मिली, वो दौलत सी थी।
हर लफ्ज़, हर पन्ना, मेरी बात बन गया,
जैसे कोई दुनिया मेरी हालत सी थी।
लोग कहते हैं — 'बोर है', 'अलग है',
मैं मुस्कुराती हूं, क्योंकि सच है।
जो खुद में खो जाए, वही खुदा को पाता है,
और वही असली ज़िंदगी का रब है।
मुझे ना किसी मंज़िल की फिक्र,
ना किसी मेले की तलाश है।
मैं खुद ही सवाल हूं, खुद ही जवाब,
मेरे अंदर ही पूरी किताब है।