दुनिया बदल दूँ
कभी-कभी सोचता हूँ, दुनिया बदल दूँ
पर दुनिया बदलना
जैसे हाथों से हवा पकड़ना है।
मैं जितना कसकर थामता हूँ,
उतनी ही फिसल जाती है।
सोचता हूँ —
गरीब की आँखों से आँसू मिटा दूँ,
अनाथ के माथे पर माँ का साया रख दूँ,
मज़दूर के पसीने में इज़्ज़त भर दूँ,
बेटियों के सपनों में उजाला कर दूँ।
सोचता हूँ —
लाचार बूढ़ों के काँपते हाथों में
फिर से हिम्मत भर दूँ,
नौजवानों के खोए चेहरों पर
नई सुबह लिख दूँ।
पर सच यह है—
मेरे पास सपनों की कलम तो है,
पर कागज़ बहुत छोटा है,
मेरे पास शब्द तो हैं,
पर सन्नाटा उनसे भी बड़ा है।
फिर भी,
हर रात जब थककर गिरता हूँ,
तो अंदर से एक आवाज़ कहती है—
“दुनिया बदलना कठिन है,
पर किसी एक की मुस्कान बदल देना
भी कम नहीं।”
शायद
बदलाव का मतलब यही है—
समुद्र को नहीं,
एक-एक बूँद को सँवारना।
आर्यमौलिक