दुनिया कहती है कि साधन, सुविधा, पद, नाम ही जीवन हैं।
पर असल में वही चीजें भीतर की आग को और भड़काती हैं।
स्त्री को देखकर पुरुष खुश हो सकता है,
पर वही स्त्री शायद उस नज़र में बोझ महसूस करे।
यानी सुख का समीकरण कभी बराबर नहीं बैठता।
जितनी भी ज़रूरतें बढ़ती जाती हैं,
वे दीवारें बन जाती हैं —
तुम्हें बाहर से चमकती लगती हैं,
भीतर वे तुम्हें कैद कर रही होती हैं।
जीवन की असली कला तो साधारण में असाधारण देख पाने में है।
सादगी में वह गहराई है,
जहां जड़ का सुख भी है और आत्मा का आनंद भी।
वहीं संतुलन है।
त्याग को उपाय मानो तो वह भी नया नर्क बन जाता है।
साधन-सुविधा को उपाय मानो तो वही और बड़ा नर्क है।
बाहरी सुख स्वर्ग जैसा लगता है,
पर भीतर उसका उल्टा है।
अगर वास्तव में सुख वहीं होता,
तो आत्मा, परमात्मा, ईश्वर की कोई खोज
मनुष्य के भीतर कभी न उठती।
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