अंतरद्वंद्व
मैं खुश हूँ, पर किसी की खुशी में नहीं,
चेहरे पर मुस्कान है, पर मन अँधेरे में उलझा है |
आँखों में चमक है, पर वह छलावा है,
जो भीतर की पीड़ा को छुपा देता है,
वो पीड़ा जो किसी की ख़ुशी देखकर पनपती है
मैं महसूस करती हूँ,
दूसरों के दुःख से मन विचलित
नहीं होता अब |
मैं उस वृक्ष की तरह हो गई हूँ,
जो अपने ही छाल में काँटे उगा बैठा है
प्रेम की नमी से उपजा मन
अब क्रोध की ज्वालाओं में जलता है |
मैं देखती हूँ अपनी परछाई को,
जो हर श्वास के साथ मुझसे पूछती है
“तुम वही हो जो चाहती थी बनना? "
पर नहीं बता पा रही खुद को ही..
की जो नहीं होना था वो हो रही हूँ,
खुद को खो रही हूँ,
और नफरत अपने भीतर बो रही हूँ |
मैं जानती हूँ,
यह मुस्कान केवल प्रलय की आहट है,
मेरे भीतर का इंसान धीरे-धीरे मिट रहा है |
फिर भी मैं मुस्कुराते हुए,
अपने अँधेरों के साथ जी रही हूँ,
जैसे कोई राख में बचा हुआ अंगार
अपने आप को जलते हुए महसूस कर रहा हो |
~रिंकी सिंह ✍️