"माँ"
थक जाए दुनिया, पर माँ नहीं थकती,
सपनों की खातिर वो रात-रात भर जगती।
अपने आँचल में सब दर्द छुपा लेती है,
मुस्कान दे के हर ग़म भुला देती है।
रूखे-सूखे में भी स्वाद ढूँढ लाती है,
बिना कहे ही हर बात समझ जाती है।
जब दुनिया ने मुँह मोड़ा हर बार,
माँ ने ही थामा मेरा हाथ हर बार।
उसके बिना घर, घर नहीं लगता,
हर कोना उसका नाम पुकारे जब सन्नाटा जगता।
माँ सिर्फ़ एक शब्द नहीं, एहसास है,
ईश्वर का ज़मीं पर खास रूप है, विश्वास है।
चलती है तो मेरे लिए रुक जाती है,
मेरे दुख में खुद भी झुक जाती है।
ऐसी है माँ—बस देती ही जाती,
बिना माँगे, बिना शर्तों के निभाती।