ढीले पड़ चुके तुम्हारे मांस,
झुर्रियों से भरा चेहरा तुम्हारा,
और ये तुम्हारे कंपकपाते हाथ —
तुम्हारी कथा सुनाते हैं।
घर का हर एक आँगन,
रसोई का हर एक बर्तन,
आँगन में लगे पेड़ सभी —
जिसे मिला तुम्हारे स्नेहभरा स्पंदन,
तुम्हारी व्यथा बताते हैं।
मंदिर का वो हर एक कोना,
तुलसी का वह छोटा पौधा,
दीवार पर टिक-टिक करती घड़ी ,
बक्से में रखी वह पतली छड़ी —
हर गलती पर वह आज भी
मुझे सज़ा सुनाती है।
तुम चौखट के आसरे पर
बैठी औरतों के झुंड में कभी,
कभी मेरी कान की खींचातानी में तुम , मां ,
तो कभी थकावट भरे हर दिन में —
एक सुकून की गोद बनकर,
निश्चिंत आलिंगन में भर, मां,
तुम मुझे सुलाती थीं।
कभी मेरी झुंझलाहट की,
अजब-गजब सी शरारतों में
प्यार से सह लेना सब कुछ ,
गलती मेरी, ग़ुस्सा मेरा —
तुम शांत भाव से सहलाती थीं।
कोर-कोर कर बिना भूख के
तुम ही मुझे खिलाती थीं।
तुम मिट्टी के बरतन जैसी —
सौंधी-सौंधी ख़ुशबू में हो,
तुम चूल्हे के धुएँ में,
मोटी रोटी की यादों में,
मंदिर की हर घंटी में तुम,
तुम मेहनत में मेरी , मेरी हर शिक्षा में तुम —
तुम्हारी हर एक सीख , मां ,
त्याग, समर्पण और निस्वार्थ प्रेम की
दिशा बताती है ।