"झुके हुए राजकुमार: पुरुष
आज का पुरुष रिश्तो में दब्बू क्यों लगता है?"
कभी जो पुरुष घर का सिरमौर कहलाता था, वही आज अपने रिश्तों में दब्बू क्यों दिखाई देता है?
क्या कारण है कि आजकल कई लड़कों में आत्मविश्वास की कमी दिखाई देती है? क्या ये सिर्फ पत्नी के आगे झुकना है या भीतर एक नया डर बस गया है —
“रिश्ता टूट न जाए”?
घर में शांति बनी रहे?
जब एक पुरुष अपने पिता को माँ पर रौब जमाते देखता है, जब स्नेह से ज़्यादा सत्ता का प्रदर्शन होता है — तो वो या तो उसी को दोहराता है या उसका उल्टा बन जाता है।
और उल्टा बनने की कोशिश में — वो बोलना भूल गया है, निर्णय लेना छोड़ दिया है। कहीं वो माँ के दुःख से इतना घबरा गया कि अब किसी भी स्त्री को दुखी होते देख, खुद को ही गुनहगार मान लेता है।
पुरुषों का दब्बूपन उनकी हार नहीं, एक अंतर्मन की प्रतिक्रिया है।
ये उस चोट की आवाज़ है जो उन्होंने बचपन में देखी, पर कह नहीं सके।
ये वो चुप सहमति है, जो उन्होंने माँ की आँखों में पढ़ी, पर पिता से कभी कह न सके।
आज ज़रूरत है एक संतुलन की।
पुरुष को फिर से अपने भीतर के निर्णयकर्ता से मिलवाने की।
स्त्री को फिर से उसके भीतर के सहचर को पहचानने की।
"न कोई झुका हुआ राजा चाहिए,
न कोई रोब जमाता सम्राट —
इस युग को चाहिए —
एक ऐसा पुरुष, जो साथ खड़ा हो,
और कह सके — चलो, दोनों साथ चलें।"
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