"माँ का संघर्ष – कौन देगा उसे आराम?"
आज के युग में हर औरत—चाहे बेटी हो या बहू—नौकरीपेशा है।
सुबह से शाम तक ऑफिस का काम, घर की जिम्मेदारियां और बच्चों की परवरिश, सब कुछ संभालना आसान नहीं है।
इस भाग-दौड़ में सबसे बड़ी अनदेखी नायिका है – माँ।
👉 जब नौकरानी या आया उपलब्ध हो, तब तो कुछ बोझ हल्का हो जाता है,
परंतु जब ऐसा सहारा नहीं होता, तब सबसे पहले माँ का दरवाज़ा खटखटाया जाता है।
वह अपनी नौकरी से थकी हुई हो या रिटायर्ड हो चुकी हो, फिर भी
बच्चों को संभालना, घर को मैनेज करना, और बहू-बेटी की मदद करना
उसकी ज़िम्मेदारी मान ली जाती है।
पर सवाल यह है – माँ कब आराम पाएगी?
माँ भी तो एक नारी है।
उसका भी हक है कि वह अपनी सेहत का ख्याल रखे,
अपने मन की शांति ढूंढे,
और उम्र ढलने के बाद कुछ पल अपने लिए जी सके।
लेकिन होता उल्टा है —
रिटायरमेंट के बाद भी माँ का रिटायरमेंट नहीं होता।
बहू नौकरी पर गई है, तो घर माँ संभालेगी।
बेटी मीटिंग में गई है, तो बच्चे माँ के पास छोड़ जाएगी।
पति कहेंगे – “अगर थक गई हो तो अलग हो जाओ।”
बेटा कहेगा – “माँ, कुछ मत बोलना, बीवी को दुख होगा।”
और माँ?
वह चुपचाप सहती रहती है।
मन टूटता है, शरीर थकता है, पर चेहरे पर ममता की मुस्कान रहती है।
क्योंकि उसे लगता है – “जब तक मुझसे हो पाएगा, मैं अपने बच्चों के लिए करती रहूँगी।”
लेकिन सच्चाई यह है कि –
👉 माँ का भी हक है आराम का।
👉 माँ का भी हक है स्वतंत्रता का।
👉 माँ का भी हक है सम्मान का।
सिर्फ जवान और नई बहुओं-बेटियों को ही बराबरी का अधिकार नहीं मिलना चाहिए,
बल्कि वह माँ भी बराबरी की हक़दार है
जिसने पूरी ज़िंदगी दूसरों के लिए जी दी।
🪷 अब समय है कि समाज इस सच को माने –
“माँ सिर्फ़ कर्तव्य की मूर्ति नहीं, एक इंसान भी है।
उसे भी सांस लेने का, जीने का और चैन से आराम करने का अधिकार है।”