Sofi ka Sansaar - 4 in Hindi Philosophy by Anarchy Short Story books and stories PDF | सोफी का संसार - भाग 4

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सोफी का संसार - भाग 4

प्राकृतिक दार्शनिक
शून्य से केवल शून्य ही प्रकट हो सकता है...

जब दोपहर बाद माँ काम से घर लौटी तो सोफी ग्लाइडर में बैठी विचार कर रही थी कि दर्शनशास्त्र के कोर्स तथा हिल्डे मोलर नैग, जिसे अपने पिता से जन्मदिन शुभ कामना सन्देश प्राप्त नहीं होगा, के बीच सम्भावित सम्बन्ध क्या हो सकता है।

    माँ ने बाग के दूसरे छोर से पुकारा, 'सोफी! तुम्हारे लिए एक पत्र है।'

    यह सुनकर उसकी साँस ऐसी रुकी कि रुकी ही रह गई। वह तो पहले ही मेल-बॉक्स खाली कर चुकी थी, इसलिए यह पत्र दार्शनिक का ही होना चाहिए। हाय, अब वह अपनी माँ को क्या कहेगी!

     'इस पर कोई मुहर नहीं लगी है। यह सम्भवतः एक प्रेम-पत्र है।'

     सोफी ने पत्र ले लिया।

     'तुम इसे खोल नहीं रही हो?'

     उसे कोई बहाना ढूँढ़ना था।

    'क्या कभी तुमने किसी ऐसी लड़की के बारे में सुना है जो तब प्रेम-पत्र खोल रही हो जब उसकी माँ उसे कनखियों से देख रही हो?'

    चलिए, माँ को सोचने देते हैं कि यह एक प्रेम-पत्र था। हालाँकि यह बहुत ही असमंजस भरा था, किन्तु यह और भी ज्यादा खराब होता कि उसकी माँ को पता चल जाता कि वह एक नितान्त अजनबी के साथ एक पत्राचार कोर्स कर रही है, एक ऐसे दार्शनिक के साथ जो उसके साथ आँख-मिचौनी खेल रहा था।

    यह छोटे सफेद लिफाफों में से एक था। जब सोफी ऊपर अपने कमरे में पहुँची तो उसके लिए तीन नए प्रश्न थे :

        क्या कोई ऐसा सार-तत्व है जिससे सब चीजें बनी हैं?

        क्या पानी मदिरा में बदल सकता है?

        मिट्टी और पानी जीवित मेढक कैसे पैदा कर सकते हैं?

सोफी को ये सवाल यूँ तो काफी बेवकूफाना लगे, किन्तु फिर भी वे सारी शोम उसके दिमाग में भिनभिनाते रहे। अगले दिन वह स्कूल में पूरे दिन भर यही सोचती रही, एक-एक को लेकर बारी-बारी से।

   क्या कोई 'सार-तत्त्व' है जिससे सब चीजें बनी हैं? यदि कोई ऐसा सार-तत्त्व है, तो वह अचानक बदल कर कैसे एक फूल या एक हाथी बन जाता है?

    वही आपत्ति दूसरे प्रश्न पर भी लागू होती थी कि क्या पानी मदिरा में बदल सकता है। सोफी को वह नीति कथा मालूम थी कि किस प्रकार यीशु ने पानी को मदिरा में बदल दिया था, किन्तु उसने इसे कभी भी गम्भीरता से नहीं लिया था। और यदि यीशु ने वास्तव में पानी को मदिरा में बदल दिया था तो यह एक चमत्कार के रूप में किया गया था, जो सामान्यतया नहीं किया जाता। सोफी जानती थी कि न केवल मदिरा में, अपितु बहुत सारी दूसरी बढ़नेवाली चीजों में भी बहुत-सा पानी होता है। किन्तु यदि एक खीरे में 95% पानी होता है तो इसमें इसके अतिरिक्त कोई दूसरी चीज और भी है क्योंकि खीरा खीरा होता है, सिर्फ पानी नहीं।
   और फिर इसके अलावा मेढक वाला प्रश्न भी तो था। उसके दर्शनशास्त्र के अध्यापक ने मेढकों के बारे में वास्तव में यह अनोखा प्रश्न उठाया था।

    सोफी सम्भवतः यह तो स्वीकार कर सकती थी कि एक मेढक में मिट्टी और पानी होता है, ऐसी हालत में मिट्टी में एक से अधिक (सार) तत्त्व होने चाहिए। यदि मिट्टी में अनेक भिन्न प्रकार के तत्त्व होते हैं तो स्पष्टतः यह सम्भव था कि मिट्टी और पानी मिलकर एक मेढक पैदा कर सकते हैं। यानी कि मिट्टी और पानी मेढक के अंडे और टैडपोल के रास्ते से होकर गुजरते हैं। क्योंकि एक मेढक पत्तागोभी की क्यारी से पैदा नहीं हो सकता, भले ही आप इसमें कितना भी पानी डालें।

    उस दिन सोफी जब स्कूल से घर लौटी तो मेल-बॉक्स में एक भारी लिफाफा उसका इन्तजार कर रहा था। सोफी उसे लेकर अपनी माँद में जा छुपी, जैसे उसने पिछले दिनों किया था।

  • दार्शनिकों की जिज्ञासा (प्रोजेक्ट)

हम फिर वहीं आ गए। हम सफेद खरगोश या ऐसी ही चीजों के चक्कर में न पड़ते हुए सीधे अपने पाठ पर आते हैं।

   मैं संक्षेप में प्राचीन यूनानियों के समय से अभी तक लोगों ने दर्शनशास्त्र के विषय में जो भी सोचा है कि एक मोटी-मोटी रूपरेखा रखूँगा किन्तु हम इन विचारों को उनके व्यवस्थित रूप में बारी-बारी से लेंगे।

    चूंकि यह दार्शनिक, हम से बिलकुल ही भिन्न युग में रहते थे और सम्भवतः उनकी संस्कृति भी हमारी संस्कृति से पूरी तरह भिन्न यी अच्छा यह होगा कि हम प्रत्येक दार्शनिक का प्रोजेक्ट देखें यानी उसकी जिज्ञासा को पहचानने तथा समझने का प्रयास करें। इससे मेरा अर्थ है कि हमें यह देखने का प्रयास करना चाहिए कि एक विशिष्ट दार्शनिक खासतौर पर क्या जानना चाहता वा उसकी विशिष्ट जिज्ञासा क्या थी? एक दार्शनिक यह जानना चाह सकता है कि पौधे और जानवर कैसे अस्तित्व में आए। दूसरा शायद यह जानना चाहे कि ईश्वर है कि नहीं या यह कि क्या मनुष्य में कोई अमर आत्मा होती है?

   एक बार यह सुनिश्चित कर लेने पर कि किसी एक विशेष दार्शनिक की जिज्ञासा क्या है, उसकी विचारधारा का अनुगमन करना आसान होगा, क्योंकि यह आवश्यक नहीं है कि कोई भी एक दार्शनिक दर्शनशास्त्र की समग्रता से अपना सरोकार बनाए ।

    दार्शनिक को सन्दर्भित करते हुए, मैंने कहा उसकी (पुरुष की) विचारधारा क्योंकि यह मनुष्यों की कहानी भी है। अतीत में पुरुषों ने स्त्रियों को दोनों ही रूपों में, यानी स्त्री रूप में, और एक चिन्तनशील प्राणी के रूप में भी, अपने अधीनस्थ रखा था/है, यह एक दुख की बात है क्योंकि इसके परिणामस्वरूप मानवीय सभ्यता के अत्यन्त महत्त्वपूर्ण अनुभव का बहुत बड़ा भाग खो या लुप्त हो गया है। वर्तमान (बीसवीं) शताब्दी के आगमन के पहले स्त्रियों को दर्शन के इतिहास में अपने लिए स्थान बनाने के अवसर से वंचित रखा गया।

    मेरा इरादा तुम्हें कोई होम-वर्क देने का नहीं है-न तो गणित के कठिन प्रश्न, और न ही कोई ऐसी अन्य चीज ! और अंग्रेजी भाषा की क्रियाओं का मिलान करना मेरी रुचि के क्षेत्र के बाहर है। हाँ, मैं तुम्हें समय-समय पर करने के लिए कुछ थोड़ा काम देता रहूँगा। यदि तुम इन शर्तों को स्वीकार करो, तो हम शुरू करेंगे।

  • प्राकृतिक दार्शनिक

आदिकालीन यूनानी दार्शनिकों को कभी-कभी प्राकृतिक दार्शनिक कहा जाता है क्योंकि वे मुख्यतः प्राकृतिक जगत और इसकी प्रक्रियाओं से सरोकार रखते थे।

    हम पहले ही यह पूछ चुके हैं कि कोई भी वस्तु कहाँ से आई। आजकल बहुत से लोग यह सोचते हैं कि किसी एक समय कोई चीज शून्य से वाहर निकलकर आई। यह विचार यूनानियों के बीच इतना प्रचलित नहीं था। किसी न किसी कारणवश वे यह मानकर चलते थे कि 'कुछ ऐसा' है जो सदैव से ही अस्तित्ववान है।

     इसलिए, शून्य से कोई चीज कैसे प्रकट हो सकती है, यह उनके लिए सबसे महत्त्वपूर्ण प्रश्न नहीं था। इसके विपरीत, दूसरी ओर, वे यह देखकर चकित थे कि पानी में जीवित मछली कैसे पैदा हो जाती है, और मृत जमीन से बड़े-बड़े पेड़ और चमकीले रंग के फूल कैसे पैदा होते हैं। इसका जिक्र किया जाना तो ज़रूरी ही नहीं कि यह कैसा अचम्भा है कि एक शिशु अपनी माँ के गर्भ में उपस्थित और पैदा हो जाता है।

    दार्शनिकों ने स्वयं अपनी आँखों से देखा कि प्रकृति निरन्तर ही एक रूपान्तरण की अवस्था में रहती है। किन्तु यह रूपान्तरण होता कैसे है?

    उदाहरण के लिए, एक चीज कैसे किसी सार-तत्य से बदलकर एक सजीव प्राणी बन जाती है?

    सभी प्रारम्भिक दार्शनिकों का लगभग एक जैसा विश्वास या कि सारे परिवर्तन के मूल में एक विशिष्ट मौलिक सार-तत्व होना चाहिए। यह कहना कठिन है कि वे ऐसे विचार तक कैसे पहुँचे ? हमें केवल इतना मालूम है कि इस विचार का क्रमशः विकास हुआ कि कोई एक ऐसा आधारभूत सार-तत्व होना चाहिए जो प्रकृति में हो रहे सभी परिवर्तनों के पीछे प्रच्छन्न कारण के रूप में बना रहता है। ऐसी 'कोई चीज' होनी चाहिए जिससे सब चीजें निःसृत होती हैं और वापस उसी में लौट जाती हैं।

    हमारे लिए, शेषक विषय वास्तव में यह नहीं है कि प्रारम्भिक दार्शनिक किन समापानों तक पहुँचे, अपितु यह कि उन्होंने कौन से प्रश्न किए और वे किस प्रकार के उत्तर तलाश रहे थे। हमारी रुचि वास्तव में इसमें ज्यादा है कि वे किस ढंग से सोचते थे बजाय इसके कि वे क्या सोचते थे।

    हमें मालूम है कि उन्होंने भौतिक जगत में जिन रूपान्तरणों को होते हुए देखा उन्होंने उन्हीं से सम्वन्धित प्रश्न उठाए। वे प्रकृति में अन्तर्निहित नियमों की तलाश कर रहे थे। वे बिना पौराणिक कथाओं की ओर लौटे वह सब कुछ समझ लेना चाहते थे जो उनके चारों ओर घटित हो रहा था। और सबसे महत्त्वपूर्ण, वे स्वयं प्रकृति का अध्ययन करके इसकी वास्तविक प्रक्रियाओं को तमझना चाहते थे। यह लक्ष्य देवताओं की कहानियाँ कहकर बादलों की गरज और बिजली के कौंधने, शिशिर और वसन्त ऋतु को मियकीय प्रतीकों की सहायता या माध्यम से समझने या स्पष्ट करने के कार्य से बिलकुल भिन्न था।

    इस प्रकार धीरे-धीरे दर्शन ने स्वयं को वर्म से जुड़े मिथकीय कल्पनात्मक विम्बों से मुक्त कर लिया। हम यह कह सकते हैं कि प्राकृतिक दार्शनिकों ने वैज्ञानिक तर्क की दिशा में प्रारम्भिक कदम उठाए और इस प्रकार वे उस अध्ययन के अग्रदूत बन गए जो बाद में विज्ञान बनने जा रहा था।

    प्राकृतिक दार्शनिकों ने क्या सोचा और क्या लिखा, हमारे पास इसके कुछ टुकड़े ही बचे हैं। जो भी थोड़ा-सा हम जानते हैं वह अरस्तू के लेखों में पाया जाता है; अरस्तू का जीवन-काल इन दार्शनिकों से दो शताब्दी बाद का है। वह केवल उन निष्कर्षों की ओर संकेत करता है जिन तक यह दार्शनिक पहुँचे थे। किन्तु जो हम अब जानते हैं वह हमें यह स्थापित करने में सक्षम बनाता है कि सबसे प्रारम्भिक यूनानी दार्शनिकों की जिज्ञासा (प्रोजेक्ट) आधारभूत विधायी सार-तत्त्व और प्रकृति में परिवर्तन सम्बन्धी प्रश्नों से सम्बन्धित थी।

  • मिलेटस के तीन दार्शनिक

जिस प्रयम दार्शनिक की जानकारी हमें मिलती है उसका नाम वेल्स है, वह एशिया माइनर के एक यूनानी उपनिवेश, मिलेटस का रहनेवाला था। उसने मिस्र समेत कई देशों की यात्रा की थी; कहा जाता है कि मिस्र में उसने पिरामिड की ऊँचाई की गणना की। इसके लिए उसने पिरामिड की छाया को उस समय (क्षण) नापा जव उसकी छाया पिरामिड की अपनी लम्बाई के बरावर थी। उसने 585 वर्ष ईसा पूर्व एक सूर्य ग्रहण की, सही गणना के आधार पर, सत्य भविष्यवाणी की थी।

     थेल्स का विचार था कि हर चीज का स्रोत पानी है। हमें स्पष्ट तो मालूम नहीं कि ऐसा कहने से उसका अभिप्राय क्या था; हो सकता है उसका विश्वास हो कि सभी प्रकार के जीवन का उद्गम जल से है-और यह कि समाप्त होने पर जीवन और अस्तित्व पानी की ओर लौट जाता है।

    मिस्र में अपनी यात्रा के दौरान उसने निश्चय ही अवलोकन किया होगा कि नील नदी के डेल्टा में, बाढ़ के पानी के उतरते ही फसलें उगना शुरू कर देती हैं। शायद उसने यह भी देखा होगा कि जहाँ भी बारिश होती रहती है वहाँ मेढक और कीड़े-मकोड़े निकल आते हैं।

     यह भी सम्भव है वेल्स ने विचार किया हो कि पानी कैसे बर्फ या भाप बन जाता है-और फिर वापस पानी बन जाता है।

    यह सम्भावना भी व्यक्त की गई है कि येल्स कहता था-'सब चीजों में देवता समाए हुए हैं।' हम केवल अनुमान ही लगा सकते हैं कि ऐसा कहने से उसका अभिप्राय क्या था। शायद, यह देखकर कि कैसे फूलों, फसलों से लेकर कीड़ों और कॉक्रोचों तक हर चीज का स्रोत काली मिट्टी है, उसने कल्पना की हो कि सारी मिट्टी (पृथ्वी) अत्यन्त सूक्ष्म, अदृश्य 'जैव-कीटाणुओं' से भरी हुई है। यह निश्चित है कि देवताओं के बारे में अपनी धारणा प्रस्तुत करते हुए थेल्स होमर के देवताओं की बात न करके कुछ अलग कह रहा था।

    अगला दार्शनिक जो सुनने में आता है, ऐनाक्सीमान्दर था, जो मिलेटस का निवासी था और उसका जीवनकाल भी लगभग वेल्स का समय ही था। उसका विचार था कि हमारी दुनिया उन अनन्त दुनियाओं में से एक है जिनका विकास होता है और जो किसी असीम कहलाने वाली सत्ता में तिरोहित हो जाती हैं। यह समझा पाना आसान नहीं है कि उसका असीम से क्या अभिप्राय था, किन्तु यह साफ है कि वह किसी ज्ञात सार-तत्त्व की बात उस तरह नहीं सोच रहा था जिसकी परिकल्पना थेल्स ने की थी। शायद उसका मतलब था कि सब चीजों का स्रोत होनेवाला सार-तत्त्व कोई ऐसी चीज होगी जो उसकी निर्मित चीजों से भिन्न और असीम है। क्योंकि सभी निर्मित वस्तुएँ सीमित हैं, अतः उनके पहले और उनके बाद आनेवाली चीज 'असीम' होनी चाहिए। उसके लिए यह साफ था कि यह बुनियादी सामग्री पानी जैसी कोई साधारण चीज नहीं हो सकती।

    मिलेटस का तीसरा दार्शनिक ऐनाक्सीमेनीज (570-526 ई.पू.) था। उसका विचार था कि सब चीजों का स्रोत 'हवा' या 'भाप' होना चाहिए। ऐनाक्सीमेनीज थेल्स के पानी के सिद्धान्त की अच्छी जानकारी रखता था। किन्तु पानी कहाँ से आता है? ऐनाक्सीमेनीज का विचार था कि पानी गाढ़ी की हुई हवा है। हम देखते हैं कि जब वर्षा होती है, तो पानी हवा के दाव से निकलता है। उसके विचारानुसार जब पानी को और भी दबाया जाता है तो यह धरती या मिट्टी हो जाता है, हो सकता है उसने देखा हो कि किस प्रकार पिघलती हुई बर्फ के साथ मिट्टी और रेत दबकर निकलते हैं। उसका यह भी विचार था कि अग्नि परिशुद्ध हवा थी। ऐनावसीमेनीज के अनुसार, इसलिए धरती, पानी और अग्नि का उद्गम हवा थी।

    पानी और घरती के फलों के बीच की दूरी सम्भवतया अधिक नहीं है। शायद ऐनाक्सीमेनीज सोचता था कि धरती, हवा और अग्नि, यह सब चीजें जीवन के निर्माण के लिए आवश्यक थीं, किन्तु सभी चीजों का स्रोत हवा अथवा भाप ही थी। अतः वेल्स के समान ही, वह भी सोचता था कि सभी प्राकृतिक परिवर्तनों के पीछे, स्रोतस्वरूप, एक अन्तर्निहित सार-तत्व था ।

  • शून्य से शून्य ही प्रकट हो सकता है

मिलेटस के यह तीनों ही दार्शनिक सब चीजों के स्रोत के रूप में केवल एक आधारभूत सार-तत्व के अस्तित्व में विश्वास रखते थे। किन्तु कोई सार-तत्व अचानक ही कैसे बदल सकता था? हम इसे परिवर्तन की समस्या कह सकते हैं।

     ईसा से लगभग 500 वर्ष पूर्व, दक्षिणी इटली में ईलिया नामक यूनानी उपनिवेश में दार्शनिकों का एक समूह था। यह 'ईलियावासी' उपर्युक्त प्रश्न में रुचि रखते थे।

    इनमें सबसे महत्त्वपूर्ण दार्शनिक परमेनीडीज (540-480 ई.पू.) था। परमेनीडीज सोचता था कि हर अस्तित्ववान चीज सदा से ही अस्तित्व में रही है। यूनानियों के लिए यह विचार अजनवी नहीं था। वे कमोवेश यह मानकर चलते थे कि दुनिया की प्रत्येक अस्तित्ववान वस्तु सदैव ही बनी रही है। शून्य से कुछ भी निकलकर नहीं आ सकता, परमेनीडीज का यह विचार था। और जो अस्तित्ववान है वह कभी शून्य नहीं हो / बन सकता।

     परमेनीडीज इस विचार को और आगे लेकर चला। वह सोचता था ऐसी कोई चीज नहीं है जो वास्तव में बदलती हो। ऐसी कोई चीज नहीं है जो (अपने स्वरूप स्वभाव से) बदलकर दूसरी बन जाए।

    परमेनीडीज ने अवश्य ही यह अनुभव किया होगा कि प्रकृति निरन्तर परिवर्तन की अवस्था में बनी रहती है। उसने अपनी ज्ञानेन्द्रियों से प्रत्यक्ष देखा कि चीजें बदलती रहती हैं। किन्तु वह इसे उसके समकक्ष नहीं रख पाया जो उसका तर्क उसे बतलाता था। जब उसके सामने अपनी ज्ञानेन्द्रियों या अपने तर्क के बीच किसी एक का चयन करने की विवशता प्रस्तुत हुई तो उसने तर्क का वरण किया।

    तुम यह कचित वाक्य तो जानती हो 'मैं इस पर तभी विश्वास करूँगा जब मैं इसे देख लूँगा।' किन्तु परमेनीडीज ने चीजों को देखकर भी उन पर विश्वास नहीं किया। वह मानता या कि अनेक अवसरों पर हमारी ज्ञानेन्द्रियाँ हमारे सम्मुख दुनिया की गलत तसवीर पेश करती हैं, एक ऐसी तसवीर जो हमारे तर्क से मेल नहीं खाती। उसने माना कि दार्शनिक के नाते उसका मुख्य कार्य अनुभूत भ्रम के सभी ढकोसलों की कलई खोलना है।

     मानव तर्क में इस अडिग आस्था को तर्कवाद (रश्नलिज्म) कहते हैं। एक तर्कवादी ऐसा व्यक्ति है जो यह मानता है कि दुनिया में हमारे ज्ञान का मूल स्रोत मानवीय तर्क है।

  • सभी चीजें बहती हैं

परमेनीडीज का एक समकालीन हिरेक्लिटस (540-180 ई.पू.) वा; वह एशिया माइनर में इफीसस का रहनेवाला था। उसका विचार या कि निरन्तर परिवर्तन या बहाव, वास्तव में प्रकृति का सबसे आधारभूत लक्षण था। हम शायद यह कह सकते हैं कि अनुभूत सत्य में हिरेक्लिटस की आस्था परमेनीडीज से कहीं अधिक वी।

    'हर चीज बहती है,' हिरेक्लिटस कहता था। हर चीज निरन्तर परिवर्तनशील और गतिशील है, सदा (एक-सी) बनी रहनेवाली कोई चीज नहीं है। अतः हम 'उसी नदी में दूसरी बार पैर नहीं रख सकते।' जब मैं दूसरी बार नदी में पैर रखता हूँ तो न तो मैं और न ही नदी पहले जैसी होती है।

    हिरेक्लिटस के अनुसार विपरीतताएँ दुनिया के लक्षण हैं। यदि हम कभी बुरे नहीं होते तो हमें यह कभी ज्ञात नहीं होगा कि अच्छा होना क्या होता है। यदि हमने कभी भूख नहीं जानी तो हम तृप्ति में आनन्द नहीं ले पाते। यदि कभी युद्ध न हो, तो हम शान्ति की महत्ता नहीं जान पाएँगे। और यदि कभी शिशिर ऋतु नहीं होती है, तो बसन्त ऋतु भी कभी नहीं देख पाते।

  दुनिया की व्यवस्था में, अच्छाई और बुराई दोनों का ही अवश्यम्भावी स्थान है, ऐसा हिरेक्लिटस का विश्वास था। विपरीतताओं की इस निरन्तर अन्तक्रिया, अन्तर्खेल के बिना दुनिया अस्तित्ववानू नहीं रह सकती।

     'ईश्वर दिन और रात है, जाड़ा और गरमी है, युद्ध और शान्ति है, भूख और तृप्ति है,' वह कहता था। यद्यपि उसने 'ईश्वर' शब्द का प्रयोग किया यह किन्तु साफ वा कि वह पौराणिक कथाओं के देवताओं की बात नहीं कर रहा था। हिरेक्लिटस के लिए, ईश्वर-या देवता-कोई ऐसी शक्ति थी जिसने सारी दुनिया को अपने अन्दर समाहित किया हुआ था। प्रकृति के निरन्तर रूपान्तरणों और अन्तरों में ईश्वर को विलकुल स्पष्ट देखा जा सकता था।

    'ईश्वर' शब्द प्रयोग करने के बजाय हिरेबिलटस प्रायः यूनानी शब्द 'लोगोस' का प्रयोग करता था, जिसका अर्थ तर्क होता है। यद्यपि हभ मनुष्य सदैव एक-सा नहीं सोचते या सभान मात्रा में तर्क नहीं करते, लेकिन हिरेक्लिटस का मानना था कि एक 'विश्वव्यापी या सर्वव्यापक तर्क' जैसा कुछ होना चाहिए जो प्रकृति में होनेवाली हर चीज को दिशा-निर्देश दे रहा है।

     यह 'विश्वव्यापी तर्क' या सर्वव्यापक कानून कुछ ऐसा है जो हम सब में समान रूप में है और वह क्षमता ही सबका दिशा-निर्देश करती है। किन्तु फिर भी हिरेक्लिटरा को लगता या कि अधिकांश लोग अपने निजी तर्क के अनुसार जीते रहते हैं, कुल मिलाकर वह अपने साची मनुष्यों का तिरस्कार करता था। वह कहा करता था, 'अधिकांश लोगों की राय शिशुओं के खिलौनों जैसी हैं।'

    अतः सारी प्रकृति के निरन्तर परिवर्तनों और विपरीतताओं के बीच हिरेक्लिटस एक सत्ता अथवा एकता देखता था। इस 'कुछ वस्तु / सत्ता' को, जो हर वस्तु / स्थिति का स्रोत थी, वह उसे ईश्वर अथवा लोगोत कहता था।

  • चार मूल तत्त्व

एक तरह से, परमेनीडीज और हिरेक्लिटस एक-दूसरे के सीधे-सीधे विलोम थे। परमेनीडीज के तर्क ने यह स्पष्ट कर दिया कि कोई चीज बदल नहीं सकती। हिरेक्लिटस के इन्द्रिय-जनित ज्ञान ने भी इतना तो स्पष्ट कर दिया कि प्रकृति निरन्तर परिवर्तन की अवस्था में वनी रहती है। इनमें से सही कौन था? क्या हम तर्क से शासित हों या हमें अपनी ज्ञानेन्द्रियों पर निर्भर होना चाहिए?

     परमेनीडीज और हिरेक्लिटस दोनों ही दो बातें कहते हैं।

       परमेनीडीज कहता है :
      (अ) कोई चीज बदल नहीं सकती, और
    (व) हमारा इन्द्रियजनित अनुभव, इसलिए भरोसे के लायक नहीं है।

       हिरेक्लिटस दूसरी ओर कहता है:
      (अ) प्रत्येक चीज बदलती है (सब चीजें बहाव में हैं) और
      (ब) हमारे इन्द्रियजनित अनुभव निर्भर करने योग्य हैं।

    दार्शनिकों में आपस में इससे अधिक असहमति नहीं हो सकती। किन्तु सही कौन था? सिसली के एम्पीडोक्लीज (490-430 ई.पू.) ने यह तय करने की जिम्मेदारी अपने ऊपर ली कि जिस उलझन में हम आ पड़े हैं, उससे बाहर निकलने का रास्ता दिखलाए ।

    उसका विचार या कि परमेनीडीज़ और हिरेक्लिटस दोनों ही अपने एक-एक दावे पर जोर देने में सही थे, किन्तु दूसरे में गलत ।

    एम्पीडोक्लीज के अनुसार उनकी आबाभूत असहमति का कारण यह था कि दोनों ही दार्शनिकों ने केवल एक तत्त्व की उपस्थिति को ही माना था। यदि यह बात सही होती तो इन दो के बीच की दूरी (यानी तर्क क्या आदेश देता है और 'हम अपनी आँखों से क्या देखते हैं') पाटी नहीं जा सकती।

     पानी स्पष्टतः बदलकर एक मछली या तितली नहीं बन सकता। वास्तव में पानी बदल ही नहीं सकता। शुद्ध पानी शुद्ध पानी ही वना रहेगा। अतः परमेनीडीज यह मानने में सही था कि 'कुछ भी नहीं बदलता।'

      किन्तु इसके साथ ही एम्पीडोक्लीज हिरेक्लिटस से इस विचार पर सहमत था कि हमें अपनी इन्द्रियों से प्राप्त प्रमाण पर विश्वास करना चाहिए। जो हम देखते हैं हमें उस पर विश्वास करना चाहिए और जो हम देख रहे हैं वह यही तो है कि प्रकृति बदलती रहती है।

     एम्पीडोक्लीज ने निष्कर्ष निकाला कि मात्र एक आधारभूत सार-तत्त्व के विचार को अस्वीकार करना अनिवार्य था। अकेले न तो पानी और न हवा बदलकर शाड़ी का गुलाव या तितली यन सकते हैं। प्रकृति का स्रोत सम्भवतः अकेला एक 'तत्त्व' नहीं हो सकता।

     एम्पीडोक्लीज का मानना था कि कुल मिलाकर प्रकृति चार तत्त्वों या 'जड़ों' से बनी है, जैसा वह उन्हें परिभाषित करता था। यह चार जड़ें वीं पृथ्वी, हवा, अग्नि और पानी।

       सारी प्राकृतिक क्रियाएँ इन चार तत्त्वों के एक साथ मिल जाने या अलग हो जाने के कारण होती थीं। क्योंकि सब चीजें पृथ्वी, हवा, अग्नि और पानी के मिश्रण से ही तो बनी थीं। हाँ, उनका अनुपात भिन्न-भिन्न होता है। वह कहता था जब एक फूल या एक जानवर मरता है तो चारों तत्त्व फिर अलग-अलग हो जाते हैं। किन्तु हम इन परिवर्तनों को अपनी खुली आँखों से नोट कर सकते हैं। किन्तु पृथ्वी (मिट्टी) और पानी, अग्नि और पानी बराबर वने रहते हैं, यह उन यौगिकों से 'अछूते' रहते हैं जिनका यह भाग होते हैं। इसलिए यह कहना सही नहीं है कि 'हर चीज' बदलती है। मूल रूप से, कुछ भी नहीं बदलता। होता यह है कि चारों तत्त्व मिलते हैं और अलग हो जाते हैं-केवल कभी फिर से दुबारा मिलने के लिए।

      हम इसकी तुलना एक पेंटिंग से कर सकते हैं। यदि पेंटर के पास एक ही रंग है-उदाहरण के लिए, लाल-तो वह हर पेड़ पेंट नहीं कर सकता। किन्तु यदि उसके पास पीला, लाल, नीला और काला रंग है तो वह सैकड़ों अलग-अलग रंगों की पेंटिंग बना सकता है, क्योंकि वह इन रंगों को कम या अधिक मात्रा एवं अनुपात में मिला सकता है।

     रसोई से एक उदाहरण भी इसी चीज को स्पष्ट करता है। यदि मेरे पास केवल आटा है और मुझे बनाना है केक; तो केवल आटे से केक बनाने के लिए मुझे जादूगरी आनी आवश्यक है। किन्तु यदि मेरे पास अडे, आटा, दूध और चीनी हैं, तब में कितने ही प्रकार के अलग-अलग केक बना सकता हूँ।

     यह कोई केवल आकस्मिक बात नहीं थी कि एम्पीडोक्लीज ने पृथ्वी, हवा, अग्नि और पानी को प्रकृति की 'जड़ों' की तरह चुना। उससे पहले के कई दार्शनिकों ने यह दिखलाने का प्रयास किया था कि आदि सार-तत्व पानी, हवा या अग्नि में से ही कोई एक होना चाहिए। थेल्स और ऐनाक्सीमेनीज ने यह इशारा किया था कि पानी और हवा दोनों ही भौतिक जगत के आवश्यक तत्त्व थे। यूनानी मानते थे कि अग्नि भी अत्यावश्यक है। उन्होंने उदाहरण के लिए सब जीवित प्राणियों के लिए सूर्य के महत्त्व को पहचाना था और वे यह भी जानते ये कि जानवर और मनुष्य दोनों ही के शरीर में ऊष्मा होती है।

     एम्पीडोक्लीज ने लकड़ी के एक टुकड़े को जलते हुए देखा होगा। कोई चीज विखंडित होती है। हम इसे चटखते और छितराते देखते हैं। यह 'पानी' है। कोई चीज धुआँ बनकर ऊपर जाती है। यह 'हवा' है। 'अग्नि' को तो हम देख सकते हैं। आग के बुझ जाने के बाद भी कोई चीज शेष रह जाती है। यह राख है-या 'पृथ्वी'।

      एम्पीडोक्लीज द्वारा प्रकृति के रूपान्तरणों का 'जड़ों' के गेल-मिश्रण और विच्छेदन के रूप में सफाई देने के बाद भी कुछ शेष था जिसका स्पष्टीकरण किया जाना आवश्यक था। यह तत्त्व किस प्रक्रिया से मिलते हैं ताकि नए जीवन का प्रादुर्भाव हो सके? और उदाहरण के लिए, फूल का 'मिश्रण' फिर किस कारण विखंडित हो जाता है?

      एम्पीडोक्लीज ने माना कि प्रकृति में दो भिन्न शक्तियाँ कार्यरत हैं। वह उन्हें प्रेम और संघर्ष कहता है। प्रेम चीजों को जोड़कर इक‌ट्ठा करता है और संघर्ष उन्हें अलग-अलग कर देता है।

      वह 'सार-तत्व' और 'शक्ति' के बीच भेद करता है। यह ध्यान देने योग्य है। आज भी वैज्ञानिक तत्त्वों और प्राकृतिक शक्तियों के बीच विभेद करते हैं। आधुनिक विज्ञान यह मानता है कि सारी प्राकृतिक प्रक्रियाओं को विभिन्न तत्त्वों और अनेक प्राकृतिक शक्तियों के बीच अन्तक्रिया के रूप में स्पष्ट किया जा सकता है।

      एम्पीडोक्लीज ने यह प्रश्न भी उठाया कि जब हम किसी चीज का ज्ञानानुभव करते हैं तो क्या होता है। मैं फूल को कैसे 'देख' सकता हूँ, उदाहरण के लिए-वह क्या है जो होता है? क्या तुमने कभी इस विषय में सोचा है, सोफी ?

      एम्पीडोक्लीज का मानना था कि प्रकृति में अन्य चीजों के समान ही, आँखें भी पृथ्वी, हबा, अग्नि और पानी की वनी होती हैं। अतः मेरी आँख में 'पृथ्वी,' मेरे चारों ओर वातावरण में समाहित पृथ्बी को महसूस करती है, 'हवा' उसे महसूस करती है जो हवा का बना है, 'अग्नि' उसे महसूस करती है जो (मेरे वातावरण में) अग्नि का बना है, और 'पानी' उसे महसूस करता है जो पानी का बना है। यदि मेरी आँखों में इन चार सार-पदार्थों में से किसी एक की भी कमी होती तो मैं सारी प्रकृति नहीं देख सकता था।

  • हर चीज में हर चीज का कुछ

एनेक्सागोरस (500-428 ई.पू.) एक अन्य दार्शनिक था जो इस बात से सहमत नहीं था कि किसी विशेष मूल सार-तत्व को- (उदाहरणार्थ, पानी) हम हर उस चीज में रूपान्तरित कर सकते हैं जिसे हम प्राकृतिक जगत में देखते हैं। न ही वह यह स्वीकार करता था कि पृथ्वी, हवा, अग्नि और पानी को रक्त और हड्डी में रूपान्तरित किया जा सकता है।

     एनेक्सागोरस मानता था कि प्रकृति समूर्त सूक्ष्म कों की अनन्त संख्या से बनी है, जो आँखों के लिए अदृश्य हैं। इसके अतिरिक्त हर पदार्थ को और भी सूक्ष्म भागों में विभक्त किया जा सकता है, किन्तु छोटे-से-छोटे भागों में भी दूसरी सारी चीजों के कण होते हैं। वह सोचता था कि यदि त्वचा और हड्डी किसी अन्य चीज का रूपान्तरण नहीं है तो जो दूध हम पीते हैं और जो खाना हम खाते हैं उनमें भी आवश्यक रूप से त्वचा और हड्डी होनी चाहिए।

      वर्तमान समय के कुछ उदाहरण एनेक्सागोरस की चिन्तनधारा को सचित्र प्रस्तुत कर सकते हैं। आधुनिक लेसर टेक्नोलॉजी तयाकयित होलोग्राम पैदा कर सकती है। यदि इनमें से एक होलोग्राम, उदाहरण के लिए, एक कार चित्रित करता है और होलोग्राम के टुकड़े हो जाते हैं, तव भी हम पूरी कार का चित्र ही देखेंगे, भले ही हमारे पास होलोग्राम का केवल वह भाग हो जो बम्पर दिखलाता है। ऐसा इसलिए है कि सम्पूर्ण विषय इसके छोटे-से-छोटे भाग में विद्यमान है।

     एक अर्थ में, हमारे शरीर भी इसी प्रकार बने होते हैं। यदि मैं अपनी उँगली से त्वचा की एक कोशिका को ढीला करता हूँ, तो केन्द्रक में न केवल मेरी त्वचा के लक्षण होंगे, अपितु वही कोशिका यह भी दर्शाएगी कि मेरी आँखें किस प्रकार की हैं, मेरे वालों का रंग कैसा है, मेरी उँगलियाँ कितनी और किस प्रकार की हैं आदि आदि। मानव शरीर की हर कोशिका में उस तरीके का मानचित्र (ब्लूप्रिंट) है जिस तरह अन्य कोशिकाएँ बनाई गई हैं। अतः प्रत्येक कोशिका में 'हर चीज का कुछ अंश' है। सम्पूर्ण हर सूक्ष्म अंश में विद्यमान है।

       इन अतीव छोटे कणों को, जिनमें हर चीज की कुछ चीज होती है, एनेक्सागोरस बीज कहता है।

     याद रखना, एम्पीडोक्लीज सोचता वा कि यह 'प्रेम' है जो सम्पूर्ण शरीरों में तत्त्वों को जोड़े रखता है। एनेक्सागोरस ने एक ऐसी शक्ति के रूप में 'व्यवस्था' की कल्पना की, जो सभी मानवों और जानवरों, फूलों और पेड़ों की रचना करती है। उसने इस शक्ति को मनस या बुद्धि (Nous) कहा।

     एनेक्सागोरस इसलिए भी दिलचस्प है कि वह पहला दार्शनिक है जिसके बारे में हम एर्वेस में कुछ सुनते हैं। वह एशिया माइनर का रहनेवाला था किन्तु चालीस वर्ष की आयु में वह एथेंस आ गया था। बाद में उस पर नास्तिक होने का दोषारोपण किया गया और उसे शहर छोड़ देने के लिए विवश किया गया। अन्य वातों के साथ-साथ उसने यह भी कहा था कि सूर्य एक देवता नहीं बल्कि लाल-तपता हुआ पत्थर है और वह सारे पेलोपोनेसियन प्रागद्वीप से बड़ा है।

       एनेक्सागोरस खगोल विज्ञान में विशेष रुचि रखता था। उसका विश्वास था कि सारे आकाशीय ग्रह उसी सार-तत्व के बने थे जिससे पृथ्वी बनी है। एक गिरी हुई उल्का के पत्यर का अध्ययन करके वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा था। इसी तथ्य से उसे यह विचार भी प्राप्त हुआ कि सम्भवतया अन्य ग्रहों पर भी मानव जीवन हो सकता है। उसने यह भी दावा किया था कि चन्द्रमा का अपना कोई प्रकाश नहीं है-इसका प्रकाश पृथ्वी से आता है। उसने सूर्य ग्रहण के स्पष्टीकरण के विषय में भी अपने विचार बनाए थे।

पुनश्च: सोफी, तुमने जितने ध्यान से यह सब पढ़ा है, उसके लिए धन्यवाद! इस अध्याय को तुम अच्छी तरह समझ लो, इसके लिए तुम्हें इसे दो या तीन बार पढ़ना पड़ सकता है। कुछ भी समझने के लिए तो हमेशा ही कुछ मेहनत की आवश्यकता होती है। हर विषय में दक्ष अपने मित्र की तुम सम्भवतः कभी प्रशंसा नहीं करती यदि उसे ऐसा होने के लिए कोई मेहनत नहीं करनी पड़ती।

    मूल सार-तत्व और प्रकृति में रूपान्तरणों के प्रश्न के श्रेष्ठ समाधान के लिए तुम्हें कल तक प्रतीक्षा करनी पड़ेगी, जब तुम डिमॉक्रिटस से मिलोगी। अभी मैं इससे अधिक कुछ नहीं कहूँगा।

सोफी अपनी माँद में बैठी-बैठी घनी हरियाली के छोटे छेद से बाग में देख रही थी। यह सब पढ़ लेने के बाद उसे अपने विचारों को, एक-एक को अलग करके व्यवस्थित करने का प्रयास करना था।

     ये तो दिन की रोशनी की तरह साफ था कि सादा पानी बर्फ या भाप के अलावा कभी किसी दूसरी चीज में नहीं बदल सकता था। पानी तो बदलकर तरबूज भी नहीं बन सकता क्योंकि तरबूजों में भी पानी के अलावा और दूसरी चीजें होती हैं। किन्तु यहाँ तक तो वह चीजों के विषय में आश्वस्त थी, क्योंकि यह उसने पढ़ लिया था, सीख लिया था। यदि उसने पढ़ा और सीखा न होता तो क्या वह उदाहरण के लिए इस विषय में आश्वस्त हो सकती थी कि बर्फ केवल पानी है। कम-से-कम उसे इसका तो बहुत बारीकी से अध्ययन करना पड़ा ही था कि कैसे पानी जमकर बर्फ बनता है और फिर पिघल जाता है।

       सोफी ने एक बार फिर अपनी सामान्य सूझबूझ का प्रयोग करने का प्रयास किया और उस बारे में उसने नहीं सोचा जो उसने दूसरों से जाना था।

     परमेनीडीज ने किसी भी रूप में परिवर्तन के विचार को स्वीकार करने से मना कर दिया था। और जितना भी अधिक उसने इसके विषय में सोचा, उतना ही वह आश्वस्त हुई कि एक अर्थ में, वह सही था। उसकी बुद्धि यह स्वीकार नहीं कर सकती थी कि 'कोई चीज' अचानक अपने आपको 'किसी दूसरी पूरी तरह भिन्न चीज' में रूपान्तरित कर सकती थी। उसे बाहर आने और यह कहने के लिए अच्छी मात्रा में हिम्मत भी जुटानी पड़ी होगी, क्योंकि इसका अर्थ था उन सब प्राकृतिक परिवर्तनों को मना कर देना जिन्हें लोग स्वयं देख सकते थे। दुनिया भर के लोग उस पर हँसे होंगे।

      और एम्पीडोक्लीज भी खूब, चतुर होना चाहिए, जब उसने यह सिद्ध किया कि दुनिया एक से अधिक सार-तत्वों से बनी है। इसने किसी चीज को वास्तव में बदले बिना ही प्रकृति के सारे रूपान्तरणों को सम्भव बना दिया।

     इस प्राचीन यूनानी दार्शनिक ने यह केवल तर्क के द्वारा ही ढूँढ़ निकाला था। निश्चय ही उसने प्रकृति का अध्ययन किया था, किन्तु उसके पास रासायनिक विश्लेषण के वे सब उपकरण नहीं थे जिनका उपयोग/इस्तेमाल आज के वैज्ञानिक करते हैं।

     सोफी इस विषय में निश्चित नहीं थी कि वह वास्तव में यह विश्वास कर सकती है कि हर चीज का स्रोत-पृथ्वी, हवा, अग्नि और पानी है। किन्तु अन्ततोगत्वा, इसका महत्त्व क्या था? सिद्धान्त रूप से एम्पीडोक्लीज सही था। हम अपनी आँखों से और बिना तर्क को छोड़े-जिन रूपान्तरणों का घटित होना देखते हैं उन्हें स्वीकार करने का एकमात्र तरीका एक से अधिक आधारभूत सार-तत्वों के अस्तित्व को स्वीकार करना है।

    सोफी ने पाया कि दर्शनशास्त्र उसके लिए दुगना प्रोत्साहक और आनन्ददायी था क्योंकि वह अपनी साधारण सूझबूझ के प्रयोग से ही सभी विचार समझ सकती थी-उसे वे सब चीजें याद करने की जरूरत नहीं थी जो उसने स्कूल में सीखी थी। वह इस निष्कर्ष पर पहुँची कि दर्शनशास्त्र एक ऐसा विषय नहीं है जिसे आप सीख सकते हैं; किन्तु शायद आप दार्शनिक ढंग से सोचना सीख सकते हैं।