13.
कर्म फल का त्याग
यः कर्मफलं त्यजति, कर्माणि संन्यस्यति, ततो निद्वंद्वो भवति॥४८॥
अर्थ : जो कर्म फल का त्याग करता है, वह कर्मों का भी त्याग कर देता है, तथा निर्द्वन्द हो जाता है।।४८।।
प्रस्तुत सूत्र में नारद जी भक्तों को जो सीख दे रहे हैं, उसे अर्जुन को देने के लिए श्रीकृष्ण ने पूरी गीता कह डाली थी। नारद जी भक्त का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि वह कर्म और कर्म फल दोनों का त्याग करता है। आइए, पहले समझते हैं ‘कर्मों के त्याग’ से क्या अभिप्राय है।
सामान्यतः कर्मों के त्याग का अर्थ निष्कर्मता (कोई काम न करना) समझ लिया जाता है। तमोगुण प्रवृत्ति के लोग तो अपनी अकर्मण्यता (आलसीपन, काम चोरी) को ही कर्मों का त्याग कहकर, खुद को ज्ञानी समझने लगते हैं। जबकि कर्मों के त्याग के पीछे अध्यात्म की गहरी समझ छिपी है, जो कहती है, संसार में यदि कोई कर्ता है तो वह केवल ईश्वर है। वही है जो अलग-अलग शरीरों के माध्यम से कर्म कर रहा है। हर शरीर में वही एक है, जो मूल चेतना के रूप में स्थापित है। वही मूल चेतना उस शरीर से कर्म करवा रही है। कार्य चाहे इस शरीर से हो या किसी दूसरे शरीर से, कर्ता वही मूल चेतना है, जो सर्वव्यापी है। हर शरीर प्रकृति और कर्म सिद्धांतों से बँधा हुआ किसी मशीन की भाँति स्वचलित रूप से कर्म कर रहा है।
इस प्रकार यदि कोई कर्ता हुआ तो वह एकमेव ईश्वर है। किंतु अज्ञान में मन और बुद्धि युक्त शरीर स्वयं को कर्ता मान, ‘यह मैंने किया... वह मैंने किया’, कहता रहता है। जिस शरीर में यह समझ उत्पन्न हो जाती है कि वास्तविक कर्ता कौन है, उसमें कर्तापन का अहंकार गिर जाता है। वह अपने शरीर को ईश्वर के माध्यम के रूप में देखने लगता है और साक्षी भाव से सारे कार्य करता है। बस यही अवस्था वास्तव में कर्मों का त्याग कहलाती है। भगवद्गीता में श्रीकृष्ण ने कर्मों के त्याग को 'सांख्ययोग' नाम से सिखाया है।
अतः जब भी आप किसी आध्यात्मिक प्रवचन में कर्मों के त्याग पर पढ़ें या सुनें तो समझ जाएँ कि बात वास्तव में कर्तापन के त्याग की कही जा रही है। खुद को कर्ता न मानकर ईश्वर को ही कर्ता समझना और उसकी आज्ञा में रहकर अपने कर्तव्य कर्मों को करते जाना, यही भक्त का लक्षण है।
एक बार एक प्रसिद्ध संगीतज्ञ मंच पर अपनी प्रस्तुति दे रहे थे। लोग मंत्रमुग्ध होकर उनका संगीत सुन रहे थे। प्रोग्राम के बाद जब सब उनकी प्रशंसा करने लगे और पूछने लगे कि आप इतनी अलौकिक संगीत प्रस्तुति कैसे देते हैं? तो वे बड़ी विनम्रता से बोले, 'मुझे नहीं पता कि मेरे भीतर से कौन संगीत बजाता है। वह निश्चित ही मैं नहीं हूँ क्योंकि मैं तो स्वयं उस संगीत को श्रोता की तरह सुनता हूँ।
बहुत से कलाकारों ने यह साक्षात अनुभव किया है कि जब वे कोई रचनात्मक कार्य करते हैं तो उन्हें आभास होता है कि वह उन्होंने नहीं किया। उनके भीतर से कोई और ही शक्ति वह अभिव्यक्ति कर रही थी। वह शक्ति स्रोत (ईश्वर) होती है जो हमारे शरीर को प्रयोग कर, अपनी अभिव्यक्ति करती है। एक सच्चा और स्त्रोत से जुड़ा हुआ भक्त सदा इस अनुभूति में रहता है कि वह कर्ता नहीं है।
नारद जी भक्त का अगला लक्षण बताते हैं कि भक्त कर्मफल का त्याग करता है। कर्म फल का त्याग से क्या आशय है, इसे कैसे किया जाता है, आइए, इसे समझते हैं।
सामान्यतः जब भी इंसान कोई कार्य करता है तो वह किसी न किसी फल की इच्छा से ही करता है। जैसे विद्यार्थी परीक्षा में पास होने के लिए पढ़ाई करते हैं, कर्मचारी वेतन कमाने के लिए ऑफिस जाते हैं, गृहिणी परिवार के स्वास्थ्य के लिए भोजन पकाती है आदि। यदि आप सुबह से शाम तक अपने द्वारा किए जा रहे कर्मों पर मनन करें तो पाएँगे प्रत्येक कर्म के पीछे कोई न कोई फल प्राप्ति की कामना है। जैसे यदि टी.वी. देखा तो मनोरंजन पाने की कामना थी।
हर कर्म का कोई न कोई फल अवश्य होता है किंतु वह फल आपकी कामना के अनुरूप हो, यह आवश्यक नहीं। वह फल आपको सुखी कर सकता है, दुःखी कर सकता है अथवा दुविधा में भी डाल सकता है। कुछ फल आप स्वीकार कर पाते हैं, कुछ नहीं कर पाते।
मनचाहा फल पाने से आगे और फल चाहने की कामना उत्पन्न होती है, फल में आसक्ति बढ़ती है कि वह फल टिका रहे। जैसे कोई काम करने से आपका मूड अच्छा हो गया तो आप चाहेंगे कि अब हमेशा आपका मूड अच्छा ही रहे। अगर कुछ अनचाहा होने पर आपका मूड ऑफ हो जाता है तो आप फिर परेशान हो जाते हैं।
कुल मिलाकर कहें तो जब तक आप कर्मों के फल से आसक्ति रखेंगे, उन्हें अपने हिसाब से पाना चाहेंगे, वे आपके लिए किसी न किसी तरह का बंधन बनाएँगे। किंतु यदि आप वह कर्मफल ईश्वर को समर्पित कर दें और फल चाहे जैसा भी हो, उसे ईश्वर का प्रसाद मानकर ग्रहण करें तो आप बंधन में नहीं बँधेंगे। सुख-दुःख, दुविधा के कुचक्र से बाहर निकलकर, हर चिंता से मुक्त होकर आप उच्चतम कर्म करेंगे और सदा आनंदित अवस्था पा सकेंगे।
यह तो आपने कभी न कभी अपने बड़े-बुजुर्गों से भी सुना होगा कि 'कर्म करो और फल की इच्छा न करो' या 'कार्य का परिणाम ईश्वर पर छोड़ दो...।' 'नेकी कर दरिया में डाल' यह भी कर्मफल के त्याग का ही उदाहरण है कि अगर आप कुछ अच्छा काम कर रहे हैं तो उसके बदले में किसी फल की कामना न करें। इसे हम यूँ भी कह सकते हैं, 'कर्म कर दरिया में डाल।' फिर उसका जो भी फल आए या न भी आए, उसे प्रसाद मानकर स्वीकार कर, उससे किसी तरह का चिपकाव न रखें।
जो भक्त कर्म का त्याग करते हैं, वे कर्म फल में भी आसक्ति नहीं रखते क्योंकि उन्हें स्पष्टता रहती है कि वे कर्ता नहीं हैं, ईश्वर ही है इसीलिए कर्मफल भी उसका है। लेकिन जो स्वयं को कर्ता मानते हैं, उन्हें कम से कम फल में आसक्ति का त्याग तो करना ही चाहिए। अन्यथा वे निःस्वार्थ कर्म नहीं कर पाएँगे और ना ही भक्ति की राह पर चल पाएँगे।
आगे नारद जी भक्त के निर्द्वद्व होने की बात कर रहे हैं। दरअसल इंसान के भीतर अधिकतर द्वंद्व अपने कर्मों को लेकर या उन कर्मों के परिणाम को लेकर ही चलते रहते हैं। वह 'क्या करूँ, क्या न करूँ? यह करूँगा तो क्या होगा... वह करूँगा तो क्या होगा... भविष्य में क्या होगा?' ऐसे ही द्वंद्वों में उलझा रहता है, किंतु जिसने स्वयं को कर्ता न मानकर, ईश्वर को कर्ता मान लिया और अपने सभी कर्मों के फल ईश्वर को समर्पित कर दिए, उसके लिए फिर कोई भी द्वंद्व नहीं बचता। उसका जीवन ईश्वर का प्रसाद स्वरूप हो जाता है। वह ईश्वर से यही प्रार्थना करता है–'मैं तुम्हारी शरण हूँ, मुझसे जो चाहे कर्म कराओ और जो चाहे उसका फल दो... तुम्हें जो लगे अच्छा, वही मेरी इच्छा।' इस तरह सच्चा भक्त हमेशा निद्वंद्व रहकर, स्वीकार भाव से भक्ति करता रहता है। साथ ही यथा योग्य कर्म भी करता रहता है।
कर्मफल के त्याग को एक और उदाहरण से समझते हैं। मान लीजिए, दो इंसान नौकरी के लिए इंटरव्यू देने गए हैं। दोनों पूरे मन से तैयारी करते हैं और इंटरव्यू देकर आते हैं। एक इंसान इंटरव्यू के परिणाम के बारे में नहीं सोचता। वह कहता है, 'मैंने अपना बेस्ट दे दिया है, अब आगे जैसी ईश्वर की मर्ज़ी... जो मेरे लिए सही होगा वह करेगा।' ऐसा सोचकर वह रिलैक्स रहता है और अपने आगे के कामों में लग जाता है। वहीं दूसरा इंसान लगातार चिंता में ही रहता है कि पता नहीं मुझे नौकरी मिलेगी या नहीं। अगर मिली तो मुझे कौन से शहर जाना पड़ेगा, अगर मुझे दूसरे शहर जाना पड़ा तो पीछे मेरे माता-पिता का क्या होगा और अगर मुझे नौकरी नहीं मिली तो फिर मेरा क्या होगा...।' जब तक इंटरव्यू का रिजल्ट नहीं आता वह अशांति और चिंताओं से ही घिरा रहता है।
इंसान के जीवन में एक के पीछे एक ऐसे कर्म चलते ही रहते हैं। यदि वह हर कर्म फल में इसी तरह से चिंता करता रहे तो उसका पूरा जीवन ही चिंता और दुःखों का पहाड़ बन जाएगा। आपने ऐसे बहुत से लोग देखे होंगे, जिन्हें सब कुछ समय से मिलता गया, फिर भी वे सदा दुःखी के दुःखी ही रहें। उनसे जब भी बात करोगे, किसी न किसी बात को लेकर रोते ही रहते हैं। जबकि कुछ लोग हर हाल में सुखी रहते हैं। कर्मफल का त्याग आनंद की चाभी है, जिसे हर किसी को अपनाना चाहिए।
वेदानपि संन्यस्यति, केवलम विच्छिन्नानुरागं लभते ||४९||
अर्थ : जो वेदों का भी त्याग कर देता है, केवल तथा अविच्छिन्न अनुराग ही रह जाता है।। ४९ ।।
हमारे वेद शास्त्र ज्ञान के खजाने हैं। आध्यात्मिक सत्य को अनुभव से जानने के लिए वेद शास्त्रों के पठन-पाठन, अभ्यास की परंपरा सदियों पुरानी है। क्योंकि उनमें अंतिम सत्य जानने हेतु मार्गदर्शन दिया हुआ है। साथ ही अंतिम सत्य को जानने के लिए हमें अपने मन, बुद्धि, शरीर को किस तरह से तैयार करना है, इसका भी ज्ञान है। इस तरह देखा जाए तो वेदों का मूल उद्देश्य भी इंसान को भक्त बनाना है और भक्ति की अवस्था से संसार में कैसे दिव्य अभिव्यक्ति की जाए, यह सिखाना है।
जब एक भक्त, भक्ति की उच्चतम अवस्था पर पहुँच जाता है तो उसे वेदों के अभ्यास की भी आवश्यकता नहीं रहती। वह वेदों अर्थात ज्ञान के अभ्यास को नहीं छोड़ता बल्कि वे उससे सहज ही छूट जाते हैं। जैसे होलिका दहन में लकड़ियाँ इकट्ठी कर जलाई जाती हैं किंतु एक लकड़ी हाथ में रखी जाती है, जिससे बाकी सभी लकड़ियों को उस आग में सरकाने का काम किया जाता है। जब सभी लकड़ियाँ आग में डाल दी जाती हैं तो अंत में उस हाथ की लकड़ी को भी आग में डाल दिया जाता है।
यूँ समझिए ज्ञान वाक्य वही अंतिम लकड़ी है, जिसने भक्त को भक्ति की उच्चतम व्यवस्था पर पहुँचा दिया। अब उसे उनकी भी आवश्यकता नहीं रही क्योंकि भक्ति अपने आपमें परिपूर्ण है। इसी बात को नारद जी ४९वें सूत्र में कहते हैं कि भक्त वेदों का भी त्याग कर देता है क्योंकि वह स्वयं वेदमान, अनन्य प्रेम की मूर्ति बन जाता है। उसे अब किसी साधन की आवश्यकता ही नहीं रहती।
स तरति स तरति स लोकांस्तावयति ||५०||
अर्थ : वही तर सकता है, वही तरता है, वही औरों को तार सकता है।। ५० ।।
पिछले कुछ सूत्रों में नारद जी ने कुछ ऐसे दिव्य गुणों का वर्णन किया जो भक्त में होने चाहिए। जिस भक्त में ये सभी गुण होते हैं, वह विकारों के अधीन नहीं होता, न ही माया के भवसागर में फँसता है। नारद जी कहते हैं, ऐसा भक्त स्वयं तर सकता है और वही दूसरों को तारने की क्षमता भी रखता है।
संसार में समय-समय पर ऐसे अनेक महान भक्त हुए हैं, जिन्होंने न सिर्फ अपने जीवन चरित्र से भक्ति की, अभिव्यक्ति की बल्कि वे अनगिनत लोगों के उद्धार का भी कारण बने। जैसे संत कबीर, संत रविदास, गुरु नानक, चैतन्य महाप्रभु, संत ज्ञानेश्वर, भगवान बुद्ध, भगवान महावीर... आदि। यह ऐसी ही महान भक्त विभूतियाँ थीं, जिनमें नारद जी द्वारा बताए गए सभी गुण मौजूद थे। इन्होंने स्वयं भी उच्चतम पद (स्वअनुभव) पाया, साथ ही अपने अनेकानेक अनुयायियों के जीवन में ज्ञान और भक्ति का उजाला किया।