शहर के सबसे बड़े और नामी स्कूल ‘ज्ञानदीप इंटरनेशनल स्कूल’ में आज एक बड़ा समारोह आयोजित किया गया था। समारोह का कारण था — ‘साल के टॉपर्स’ का सम्मान। मीडिया से लेकर अभिभावकों तक, सबकी निगाहें मंच पर सजे उन बच्चों पर थीं जिनके नाम बोर्ड पर सबसे ऊपर थे। पर इन्हीं तालियों की गूंज के बीच, अंतिम पंक्ति में बैठा एक बालक चुपचाप अपनी कॉपी के कोने में कुछ रेखाएँ खींच रहा था — उसका नाम था अद्वैत।
अद्वैत आठवीं कक्षा में पढ़ता था। उसके माता-पिता ने उसे इस स्कूल में इस उम्मीद से दाखिल कराया था कि वह भी एक दिन डॉक्टर या इंजीनियर बनेगा। लेकिन अद्वैत की दुनिया कुछ और ही थी। उसे किताबों से ज़्यादा रंगों से प्रेम था, अक्षरों से ज़्यादा रेखाओं से लगाव था, और गणित के सूत्रों से कहीं ज़्यादा दिलचस्पी उसे पेंसिल की हरकतों में थी। लेकिन दुर्भाग्य से समाज ने सफलता की जो परिभाषा बना रखी है, उसमें अद्वैत का कोई स्थान नहीं था।
हर परीक्षा के बाद, जब रिपोर्ट कार्ड घर पहुँचता, तब अद्वैत के पिताजी का स्वर कठोर हो जाता —
“इतना खराब नंबर! तुझे कुछ भी नहीं आता क्या? देख, शर्मा अंकल का बेटा हर बार फर्स्ट आता है।”
अद्वैत चुपचाप सुनता। उसकी माँ उसका सिर सहलाते हुए कहती, “बेटा, पढ़ाई पर ध्यान दे... वरना जिंदगी में कुछ नहीं बन पाएगा।”
अद्वैत के मन में ये बात घर कर गई — "क्या मैं कुछ नहीं बन सकता?"
स्कूल में भी शिक्षक उसे ‘कमजोर विद्यार्थी’ की श्रेणी में रखते थे। हर दिन कोई न कोई उसे समझाने की कोशिश करता —
“अद्वैत, तुम्हें अपनी आदतें सुधारनी होंगी। ये ड्रॉइंग-कलरिंग से कुछ नहीं होगा।”
लेकिन ऐसा कहने वाला कोई भी उसकी आंखों की चमक नहीं देखता था जब वह कुछ रचता था। उसकी कक्षा की पिछली बेंच की डायरी असंख्य रेखाचित्रों और कल्पनाओं से भरी पड़ी थी — जहां वह इंसानों को उड़ाता, बिल्लियों को गिटार बजाते दिखाता और बादलों को सड़क पर चलते हुए चित्रित करता।
उसकी एकमात्र मित्र थी — अदिति, एक होशियार पर संवेदनशील लड़की। अदिति अक्सर अद्वैत की बनाई तस्वीरों को सराहती और कहती, “तू सबसे अलग है अद्वैत। ये दुनिया तेरे रंगों को अभी नहीं समझ पा रही, लेकिन एक दिन तुझे जरूर समझेगी।”
समय बीतता गया। नवीं और फिर दसवीं की बोर्ड परीक्षा नजदीक आ गई। पूरा स्कूल एक ही सुर में बोल रहा था — “अब मेहनत करो, जिंदगी बन जाएगी।”
अद्वैत भी प्रयास करता रहा, लेकिन मन किताबों में अटकता नहीं था। परिणाम आया — औसत अंक। और घर में एक बार फिर तूफान खड़ा हो गया। पिता ने कह दिया,
“अब अगर बारहवीं में भी यही हाल रहा तो तुझे किसी आर्ट कॉलेज में भेज देंगे, जहाँ पढ़ाई नहीं के बराबर होती है।”
अद्वैत ने सिर झुकाया, लेकिन उस रात उसने पहली बार खुद से सवाल किया —
“क्या सच में मैं निकम्मा हूँ?”
उस रात उसने एक कोरा कैनवास निकाला और बिना रुके घंटों चित्र बनाता रहा। अगली सुबह वह चित्र एक स्कूल प्रतियोगिता में उसने जमा कर दिया। प्रतियोगिता में हिस्सा तो कई बच्चों ने लिया था, लेकिन अद्वैत का चित्र बिल्कुल अलग था। उसमें उसने एक पिंजरे में बंद एक किताब को दिखाया था और उसके बाहर एक बच्चा, जो खुले आकाश में रंगों से खेल रहा था।
चित्र का शीर्षक था — “सीखने की उड़ान”
उस चित्र ने निर्णायकों का दिल जीत लिया। वह जिला स्तर पर पहले स्थान पर रहा, फिर राज्य स्तर पर और अंत में राष्ट्रीय कला प्रदर्शनी में अद्वैत का नाम छा गया। जब उसके माता-पिता को मीडिया से फोन आए, तब उन्हें पहली बार महसूस हुआ कि उनका बेटा भी कुछ कर सकता है — कुछ बड़ा, पर अलग।
अद्वैत को देश के एक प्रतिष्ठित आर्ट स्कूल में छात्रवृत्ति मिली। अब उसे अपनी राह मिल चुकी थी। पर वहाँ जाकर भी अद्वैत ने कभी दूसरों की आलोचना नहीं की, बल्कि उसने एक अभियान शुरू किया — “हर बच्चा खास है”, जहाँ वह स्कूलों में जाकर बच्चों को अपनी प्रतिभा पहचानने और समझने की प्रेरणा देता।
एक दिन उसी ‘ज्ञानदीप इंटरनेशनल स्कूल’ में फिर से एक समारोह रखा गया — पर diesmal विषय था — ‘प्रतिभा की विविधता’। मंच पर मुख्य अतिथि के रूप में बुलाया गया — अद्वैत देशमुख, जो अब एक प्रसिद्ध चित्रकार, लेखक और मोटिवेशनल स्पीकर बन चुका था।
अद्वैत ने मंच से कहा —
“मैं एक ऐसा बच्चा था जिसे पढ़ाई में औसत माना गया। लेकिन मैं अपने रंगों में अव्वल था। मुझे सिर्फ एक मौका चाहिए था — खुद को पहचानने का।
आज मैं यहां सिर्फ इसलिए खड़ा हूं क्योंकि मुझे मेरी असली प्रतिभा को जीने दिया गया।
हर बच्चा किताबों में अच्छा नहीं होता, पर इसका मतलब ये नहीं कि वह असफल है। किसी को संगीत आता है, किसी को चित्रकारी, किसी को नृत्य तो किसी को विज्ञान। हमें चाहिए कि हम हर बच्चे को उसकी खासियत के साथ स्वीकार करें।
पढ़ाई सिर्फ नंबर लाने का नाम नहीं है — यह सीखने का नाम है। सीखना किसी भी माध्यम से हो सकता है — चाहे वो रंग हों, सुर हों या शब्द।”
पूरा सभागार तालियों से गूंज उठा।
अब अद्वैत का स्कूल उसकी ही बनाई गई नई शिक्षा प्रणाली पर काम कर रहा था जिसमें बच्चों की रुचि के अनुसार उन्हें विभिन्न क्षेत्रों में प्रोत्साहित किया जाता था। बोर्ड की मार्कशीट के साथ बच्चों की ‘रुचि-प्रगति पत्र’ भी बनती थी, जिसमें खेल, कला, सामाजिक सेवा जैसी गतिविधियों में उनकी भागीदारी को दर्शाया जाता था।
समाप्ति की ओर एक दृष्टि:
अद्वैत की कहानी केवल उसकी नहीं है — यह हर उस बच्चे की कहानी है जो किसी तयशुदा ढांचे में फिट नहीं बैठता। यह हर माता-पिता, हर शिक्षक, और हर समाज के व्यक्ति के लिए संदेश है कि —
“हम बच्चों को सिर्फ अच्छे नंबरों से नहीं, उनके अंदर छुपी संभावनाओं से आंकें। क्योंकि हर बच्चा खास है — बस उसे समझने की जरूरत है।”