गांव में सूरज ढल चुका था, लेकिन हवेली के भीतर की रौशनी और गूंज... किसी मेले से कम नहीं लग रही थी।
रूहाना लाल जोड़े में किसी पुरानी रानी की तरह सजी थी।
उसके माथे पर झूमर, होंठों पर गाढ़ा लाल रंग, और आँखों में वो काजल... जो किसी को भी ज़िंदा निगल ले।
आज उसकी आँखों में कुछ ज़्यादा था — एक चमक, एक इंतज़ार... और एक अधूरी भूख।
ठाकुर ने गाँववालों के सामने एलान किया —
“जो भी इस शादी में दूल्हा बनना चाहता है, सामने आए।”
कुछ लोग पीछे हटे।
कुछ ने नज़रें चुराईं।
लेकिन फिर...
**आशुतोष** नाम का नौजवान आगे आया।
गोरा, छरहरा, थोड़ी दाढ़ी में शरारत और आँखों में रूहाना के लिए ललक।
“मैं तैयार हूँ,” उसने कहा।
रूहाना ने सिर झुकाया।
“तो आज रात मेरी किस्मत... तुम्हारी होगी।”
शादी जल्दी-जल्दी पूरी की गई।
मंगलसूत्र, सिंदूर, सात फेरे।
गाँव के कुछ बुज़ुर्ग मंत्र पढ़ते रहे, लेकिन उनकी आवाज़ जैसे किसी अजीब डर के नीचे दबती जा रही थी।
जब दूल्हा-दुल्हन को उनके कमरे में भेजा गया — तो सबकी साँसें थमी थीं।
अब रात के सन्नाटे में...
वो कमरा गुलाबों और Candles की खुशबू से भरा था।
रूहाना पलंग के एक कोने पर बैठी थी — चुप, जैसे किसी तूफान के आने से पहले की हवा।
आशुतोष अंदर आया।
“क्या मैं... पास आ सकता हूँ?” उसकी आवाज़ थोड़ी डरी हुई थी।
“आज तो पास ही आना है ना,” रूहाना की आवाज़ धीमी और भीगी हुई थी।
वो धीरे-धीरे करीब आया, और बैठ गया।
रूहाना ने खुद ही अपनी चूड़ियाँ उतारनी शुरू कीं।
“तुम... बहुत अलग हो,” आशुतोष ने कहा।
“और तुम... बहुत सीधे।”
आशुतोष ने हाथ बढ़ाया — उसकी उंगलियाँ रूहाना की हथेलियों से टकराईं।
वो छुअन... किसी बर्फ और आग के मिलन जैसी थी।
धीरे-धीरे रूहाना ने अपना सिर उसके कंधे पर टिकाया।
“तुम्हें मुझसे डर नहीं लगता?”
“डर… थोड़ा लगता है, पर तुम्हारी खूबसूरती उससे बड़ी है।”
“तो फिर… क्यों न आज डर और खूबसूरती… दोनों को जी लिया जाए?”
रूहाना ने अपनी साड़ी की पल्लू सरकाई।
उसका जिस्म… चाँदनी में नहाया हुआ लग रहा था।
आशुतोष ने काँपते हाथों से उसे छुआ।
उसके होंठ, उसकी गर्दन, उसकी पीठ — सब एक-एक कर सामने खुलते जा रहे थे।
रूहाना ने अपनी बाहों से उसे थामा, और फुसफुसाई —
“आज की रात सिर्फ मेरी है…”
फिर दोनों के बीच अब एक चादरें भी नहीं रहीं...
सिर्फ धड़कनें, गर्म साँसें और एक प्यास — जो बुझने की बजाय और भड़कती जा रही थी।
रूहाना की मदहोश सिसकियां और आशुतोषकी सांसों की आवाज पुरे कमरे में गूंज रही थी, आशुतोषकी रूहाना पर हावी हो रखा था, रूहाना अपनी मुट्ठियों में चदर भर कर उसको खुद में महसूस करके मदहोशी भरी मुस्कान मुस्कुरा रही थी|
पंगल का जोर - जोर से हिला ये बात साबित कर रहा था, रूहाना के रूप का जादू आशुतोष के सिर पर चढ़ कर बोल रहा हैं, कि अब उसका खुद पर काबू नहीं हैं, बस वो रूहाना को पुरी तरह से अपना बनने पर लगा था|
रूहाना के होंठ... अब आशुतोष की सीने पर रेंग रहे थे।
“तुम्हें पता है,” रूहाना हांफते हुए बोली, “दिल जब बहुत तेज़ धड़कता है… तो उसका स्वाद मीठा लगता है…”
आशुतोष हँस पड़ा, “तुम तो जैसे शायर बन गई हो।”
“नहीं,” वो मुस्कराई, “मैं तो सिर्फ... अपनी भूख की बात कर रही हूँ।”
उसने अचानक उसकी सीने पर होंठों से निशान बनाया।
आशुतोष ने आंखें बंद कर लीं… वो सब कुछ किसी ख्वाब की तरह महसूस कर रहा था।
लेकिन अगले पल —
रूहाना के हाथों की पकड़ कस गई।
“रू... रूहाना?”
उसने आँखें खोलीं — लेकिन अब सामने सिर्फ उसकी चेहरा नहीं था।
उसकी आँखों में कुछ काला उतर आया था।
और होंठ… खून की लालिमा में गीले थे।
“अब… दिल की बारी है…”
वो बुदबुदाई।
लेकिन तभी — कमरे की खिड़की से कोई झपटा — **अदित्य!**
“रूहाना! बस करो!”
उसने चीखते हुए दरवाज़ा खोला।
रूहाना ने झटके से खुद को पीछे खींच लिया।
आशुतोष बेहोश हो चुका था, लेकिन ज़िंदा था।
रूहाना अब अदित्य की तरफ देख रही थी — उसकी साँसें तेज़ थीं, और आँखों में गुस्से से ज़्यादा... एक सवाल था।
“तुम क्यों आए?”
“क्योंकि मैंने कहा था — मैं सच देखना चाहता हूँ... और आज मैंने देख लिया।”
रूहाना ने कुछ नहीं कहा।
बस एक पलक झपकाई… और खुद को चदर से कवर करके पलंग के किनारे से नीचे उतर गई।
“ये रात अब अधूरी रह गई, अदित्य,” वो बोली, “लेकिन अगली बार... कोई नहीं बचेगा।”
और वो चल दी —
नंगे पैर, लाल जोड़ा हवा में उड़ता हुआ... और ज़मीन पर गिरा आशुतोष… बेहोश, लेकिन ज़िंदा|
कमरे की दीवार पर खून से लिखा था:
"अब तुमने देख लिया… अगली बार समझ भी जाओगे…"
कहानी में आगे क्या होगा जाने के लिए पढ़ते रहिए....
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