From Nakatiya to Parliament in Hindi Comedy stories by Shailesh verma books and stories PDF | नकटिया से संसद तक

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नकटिया से संसद तक

उत्तर प्रदेश के एक छोटे से गांव नकटिया में, जहां हर सुबह की शुरुआत मुर्गों की बांग और बैलों की घंटियों से होती थी, वहां एक ऐसा लड़का था जिसे पूरा गांव 'निकम्मा' कहता था। उसका नाम था — मुन्ना यादव। उम्र लगभग 24, पक्के रंग का, थोड़ी घुंघराली ज़ुल्फें और हमेशा हँसता रहने वाला चेहरा। उसका दिन नहर के किनारे पिंटू, बब्बन और झब्बू के साथ ताश खेलने, और बबलू हलवाई की दुकान पर उधार की जलेबी खाने में बीतता था।

मुन्ना के पिता का देहांत तब हो गया था जब वो मात्र दस साल का था। मां, गीता देवी, दूसरों के खेतों में काम करके जैसे-तैसे जीवन चला रही थीं। गांव वालों के ताने उसकी मां तक पहुंचते थे —“अरे गीता, तेरा बेटा तो निकम्मा निकला! कम से कम हल तो चला लेता!”

लेकिन मुन्ना खामोश था।

गांव में पंचायत चुनाव नजदीक आ रहे थे। ब्रह्मपाल सिंह, जो तीन बार प्रधान रह चुके थे, फिर से दावेदार थे। एक दिन बबलू हलवाई की दुकान पर ब्रह्मपाल और उसके गुर्गे चाय पी रहे थे। मुन्ना वहीं बैठा था। ब्रह्मपाल ने ताने कसते हुए कहा,“क्यों मुन्ना, इस बार तू भी प्रधान का फॉर्म भरेगा क्या? कम से कम उधारी चुकाने का बहाना तो मिलेगा।”

उसके हंसी उड़ाते हुए शब्दों ने पहली बार मुन्ना के भीतर आग जलाई। रात को नहर किनारे बैठकर उसने खुद से वादा किया — “अब ये गांव बदलेगा। और मैं इसकी वजह बनूंगा।”

अगले दिन से मुन्ना का रंग-रूप बदल गया। वह गांव के स्कूल गया, टूटी छत को देखकर गांव वालों को संगठित किया और मजदूरों के साथ खुद भी ईंटें ढोईं। कुछ ही हफ्तों में स्कूल की छत बन गई। पंचायत भवन की दीवारें पुतवाई गईं, और प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र में सफाई का अभियान चलाया।

शुरुआत में लोग हंसे, फिर सोचने लगे, और अंत में साथ जुड़ने लगे। गांव की शिक्षिका कविता मिश्रा, जो पहले उसे आलसी समझती थीं, अब उसका सम्मान करने लगीं।

जब चुनाव की घोषणा हुई, तो मुन्ना ने नामांकन भरा। विरोधियों ने उसे अपमानित किया, पैसे फेंककर वोट खरीदने की कोशिश की, लेकिन मुन्ना ने हर घर जाकर हाथ जोड़े, बुजुर्गों के पांव छुए और वादा किया — “ये गांव सिर्फ वोट के वक्त याद आने वाला नहीं रहेगा, हम इसे बदल कर दिखाएंगे।”

चुनाव वाले दिन भारी बारिश हो रही थी, लेकिन मुन्ना खुद ट्रैक्टर लेकर आया और बुजुर्गों को ले जाकर मतदान करवाया। शाम को जब परिणाम आया, तो पूरा गांव हक्का-बक्का रह गया — मुन्ना यादव 738 वोटों से विजयी हुआ।

अब गांव में नया प्रधान था, और नकटिया में नई सुबह। उसने डिजिटल क्लास रूम बनवाया, पंचायत भवन में इंटरनेट लगवाया, महिला समूह बनाए और हर शुक्रवार ‘जनता चौपाल’ शुरू की, जहां लोग अपनी समस्याएं खुद प्रधान के सामने रख सकते थे।

इन्हीं कामों की वजह से आस-पास के गांवों में उसका नाम हो गया। ज़िला पंचायत चुनाव आने वाले थे। इस बार उसे टिकट की जरूरत थी। लेकिन सत्ताधारी विधायक ने अपने भतीजे को टिकट दिला दिया।

मुन्ना ने बिना पार्टी के, निर्दलीय खड़े होने का फैसला किया। उसका नारा था:“ना झूठ, ना लूट — बस काम और सबूत।”

चाय की दुकानों, चौपालों, खेतों और स्कूलों तक उसका प्रचार पहुंचा। उसके साथी — पिंटू, बबलू, कविता — सब प्रचार में जुटे। कविता खुद महिला समूह की बैठकों में मुन्ना के लिए समर्थन मांगतीं।

वोटिंग के दिन एक बार फिर जनता का सैलाब उमड़ा। मुन्ना ने न सिर्फ विधायक के भतीजे को हराया, बल्कि रिकॉर्ड मतों से जीता। अब वह ज़िले का प्रतिनिधि बन गया।

इस जीत के बाद लखनऊ से चिट्ठी आई — ‘पंचायती विकास परिषद’ के सदस्य के रूप में चयन। अब नकटिया का लड़का राजधानी की राजनीति में कदम रखने जा रहा था।

विधानसभा भवन के दरवाज़े पर कदम रखते ही मुन्ना ने अपने फेसबुक लाइव में कहा:“नकटिया वालों, देखो... तुम्हारा मुन्ना यहां तक आ गया है।”

विधानसभा में उसका देसी अंदाज़, सादगी और ईमानदारी सबको हैरान करती। वहां की भारी-भरकम भाषा, घोटालों के नेटवर्क और चमक-दमक से अलग, मुन्ना अपनी मिट्टी की खुशबू साथ लाया था।

वहां उसे पता चला कि शिक्षा विभाग में करोड़ों का लैपटॉप घोटाला हुआ है। मिड डे मील सिर्फ कागज़ों में दिखाया गया, जबकि ज़मीनी हकीकत कुछ और थी।

उसने RTI डाली, मीडिया को बुलाया और विधानसभा में आवाज़ उठाई। उसकी एक स्पीच वायरल हुई, जिसमें उसने कहा:“बच्चों का पेट भरने की बात थी, आप लोगों ने फाइलें खिला दीं।”

शाम को एक अनजान नंबर से कॉल आया:“बहुत उड़ रहा है मुन्ना, ज़मीन पर ले आएंगे।”

कविता, जो अब लखनऊ में साथ रहने लगी थी, ने उसका हाथ पकड़ा और कहा:“तू डरता नहीं, तू डटता है।”

मुन्ना ने ‘जनता चौपाल’ को विधानसभा में भी शुरू किया। अब हर शुक्रवार को प्रदेश के लोग विधानसभा परिसर में आकर सवाल पूछ सकते थे। मीडिया में उसकी चर्चा होने लगी। विपक्षी पार्टियां कहने लगीं — “मुन्ना यादव से सीखो राजनीति।”

अंततः उसे प्रदेश के 'ईमानदार जनप्रतिनिधि' सम्मान से नवाज़ा गया। मंच पर उसने ट्रॉफी मां के चरणों में रखी और कहा:“जिसने भूखे पेट मुझे ईमानदारी सिखाई, ये उन्हीं की जीत है।”

तालियों की गूंज के बीच, एक आवाज़ आई — “अगली बार मुन्ना को लोकसभा में भेजो।”

और यहीं से नई कहानी शुरू होने वाली थी...

[समाप्त]

लेखक:-शैलेश वर्मा