Beete samay ki REKHA - 6 in Hindi Classic Stories by Prabodh Kumar Govil books and stories PDF | बीते समय की रेखा - 6

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बीते समय की रेखा - 6

6.
इन तीनों अत्यंत प्रतिभाशाली लड़कियों का जीवन मानो बदलते हुए युग के नारी - विमर्श का एक ठोस कार्यकारी स्वरूप था जो महिला शिक्षा के अंतिम निकष की परिणीति था। 
इनमें एक तमिलनाडु से आई लड़की चित्रा थी, दूसरी मुंबई में ही पली- बढ़ी कन्नड़ लड़की मीरा और तीसरी राजस्थान से आई रेखा।
ये तीनों ही अपने- अपने घर की बड़ी बच्चियां थीं जो नारी आत्म निर्भरता की स्वनिर्मित मिसालें थीं। इन्हें अपने छोटे भाई - बहिनों की तमाम ज़िंदगी के छोटे - बड़े मसले घर के मुखिया अभिभावक अथवा माता- पिता की तरह सुलझाते देखा जा सकता था। कब कौन क्या पढ़े, कैसे पढ़े, कहां रहे से लेकर कौन सी नौकरी की तैयारी करे तक सब इन्हीं से पूछा जाता। तीनों ही सलाह देने से लेकर आर्थिक मदद देने तक में सक्षम थीं। तीनों की आपस में घुटती भी खूब। एक दूसरी के रस्मो- रिवाज, खानपान, तौर - तरीके सीखने को मिल ही रहे थे। जाति, समाज, राज्य, संस्कृति से ऊपर उठ कर देश - दुनिया के बारे में सोचते हुए मानो दिन पंख लगा कर उड़ रहे थे।
न्यूनतम समय में ही रेखा ने अपनी पहली पदोन्नति प्राप्त की और वह वरिष्ठ वैज्ञानिक अधिकारी के पद पर आ गई। इसके कुछ समय बाद ही रेखा से मुंबई छूट गया।
उत्तर प्रदेश में जन्म लेकर, राजस्थान में शिक्षा प्राप्त कर, महाराष्ट्र में नौकरी पाने के बाद अब दिल्ली में उसकी तैनाती एटॉमिक मिनरल्स डिवीजन में हो गई। दिल्ली में वैसे तो विभाग से सरकारी घर मिलता था लेकिन देश की राजधानी दिल्ली शहर की फितरत ये थी कि मांगने वाले दर्जन तो खाली मकान चार। इसलिए लोधी रोड में विभागीय घर मिलने में कुछ समय लगा और तब तक उसे निजी कोशिशों से मालवीय नगर, ग्रेटर कैलाश आदि स्थानों पर रहना पड़ा।
इस बीच रेखा का विवाह भी हो गया था। 
दिल्ली आने के बाद पति - पत्नी दोनों एक साथ आ गए और यहीं उसे एक कन्या रत्न की प्राप्ति हुई। दिल्ली जैसे शहर में जब पति - पत्नी दोनों ही ज़िम्मेदार पदों पर कार्यरत हों और परिवार में बच्चों की देखभाल के लिए कोई पूर्णकालिक व्यक्ति न हो तो तरह- तरह के वैकल्पिक विचार और संभावित जीवन शैली दिमाग़ में कौंधने लगती है।
कुछ दिन यहां कार्य करने के बाद रेखा के जीवन की वही कश्मकश शुरू हुई जो किसी भी मेधावी विद्यार्थी को यह सोच कर परेशान करने लगती है कि उसे अपने उस संस्थान के लिए भी कुछ करना चाहिए जिसने शिक्षा व परवरिश देकर काबिल बनाया। ऐसा कुछ और शिद्दत के साथ होने लगा जब इसमें बिटिया की पढ़ाई की अपनी ज़रूरत भी शामिल होने लगी। पति - पत्नी दोनों के ही दफ्तरों की जिम्मेदारियां, फ़िर उसके साथ - साथ आए दिन होने वाली टाइम - बेटाइम की मीटिंगें, बाहर के दौरे भी चलते रहे। ऐसे में घर पर साथ रहने वाले किसी न किसी परिवार - जन की उपस्थिति रहने के बावजूद बिटिया की सार- संभाल और पढ़ाई चिंतित करती।
इसी सोच के चलते रेखा का मन कुछ - कुछ वैज्ञानिक व प्रशासनिक नौकरी की तुलना में शिक्षण के क्षेत्र की ओर झुकने लगा। पहले ही वह भारतीय प्रशासनिक सेवा में जाने के अपने सपने को तो जैसे भुला ही बैठी थी। वह इस परीक्षा में शामिल ही नहीं हुई थी।
एक सच यह भी है कि ऐसा केवल उन्हीं लोगों के साथ होता है जो अपनी नौकरी को अपना कर्तव्य पालन भी मानते हैं। अन्यथा तो कई लोग अपने बुनियादी कर्तव्य से विमुख होकर केवल सुविधाओं व अधिकारों की ओर भागते हुए अपनी कार्यशील नैतिकता को भुला कर भी समय काटते देखे जा सकते हैं।
कहते हैं कि क़िस्मत भी उन लोगों पर मेहरबान हो कर ही रहती है जो अपने निजी सपनों की तुलना में अपने संस्थान और समाज की बेहतरी के सपने देखते हैं। 
रेखा को अपनी स्नातकोत्तर शिक्षा और डॉक्टरेट की याद भी अक्सर आती जिसका वांछित उपयोग सरकारी प्रशासनिक नौकरी में शायद ही कहीं हो पा रहा था।
इसी मानसिकता की बढ़ती संभावनाओं ने पूरे परिवार को फ़िर से शिक्षा जगत से ही किसी प्रकार जुड़ने के लिए प्रेरित किया। 
अब रेखा ने इस दिशा में गंभीरता से सोचना शुरू किया। वह इस खोज में रहने लगी कि उसे फ़िर से किसी विश्वविद्यालय या कॉलेज से जुड़ कर शिक्षा क्षेत्र में जाने का मौका मिले। उसके पति का जॉब भी अखिल भारतीय सेवाओं में निरंतर स्थानांतरणों वाला ही था।
आख़िर एक उम्र के बाद हर कोई अपनी दिनचर्या में एक ठहराव चाहने ही लग जाता है। और रेखा को तो सरकारी नौकरी का पर्याप्त अनुभव भी हासिल हो ही चुका था।
देखें, अब ऊंट किस करवट बैठे? ये सोच सिर उठाने लगी।
इसी बीच रेखा का विवाह भी हुआ था और उसे अब एक कन्या संतान के रूप में प्राप्त हुई। 
बिटिया के स्कूल - गोइंग होते ही उसके दिमाग़ में बेटी की शिक्षा और भविष्य को लेकर एक बेहद जिम्मेदारी- पूर्ण मंथन चलने लगा।
एक मेधावी छात्रा के रूप में उसे अपना समय याद आया और उसने सोचा कि बालक को यदि अपने जीवन के आरम्भ में किसी अच्छे विद्यालय में कर्मठ शिक्षकों की देखरेख में पढ़ने का मौका मिल जाता है तो उसके व्यक्तित्व में संस्कारों का निर्माण सुगमता से हो जाता है।
ऐसे में उसका ध्यान सबसे पहले अपने ही पूर्व विद्यालय बनस्थली का ख़्याल आया। उसकी साध हो गई कि काश उसकी बेटी को भी बनस्थली विद्यापीठ में ही पढ़ने का अवसर मिल सकता जहां उसे पंचमुखी शिक्षा के रूप में व्यक्तित्व विकास की सभी सुविधाएं उपलब्ध हो जातीं।
एक पल के लिए उसे इस बात से गहरा संतोष मिला किंतु साथ ही मन में एक दूसरी ही उथल - पुथल शुरू हो गई।
रेखा और उसके पति दोनों ही सरकारी नौकरी में थे अतः उन्हें दिल्ली में रहने की अनिवार्यता थी। ऐसे में बिटिया को बनस्थली विद्यापीठ में छात्रावास में ही रखना पड़ता। छोटी सी उम्र में बेटी को अपने से दूर करने की कल्पना ने उसे एक क्षण के लिए कमज़ोर कर दिया।
लेकिन शायद समय इस बेहद बुद्धिमती और परिश्रमी युवती की सहायता करने का मन बना चुका था।
बनस्थली विद्यापीठ को भारत सरकार के स्थापित संस्थान यूनिवर्सिटी ग्रांट्स कमीशन द्वारा डीम्ड यूनिवर्सिटी का दर्ज़ा दे दिया गया था।
यूनिवर्सिटी बनने के साथ ही वहां नए - नए कोर्स और नई- नई फैकल्टी शुरू होने की संभावना बनी और कंप्यूटर साइंस विभाग में प्रोफ़ेसर के पद का विज्ञापन निकाला गया।
केंद्रीय सरकार के प्रतिष्ठापूर्ण पद पर होते हुए भी रेखा ने इस पद को अत्यंत आशा से देखा और इस पर आवेदन कर दिया।
यद्यपि रेखा का वर्तमान पद भी पर्याप्त सम्मानजनक और चुनौतीपूर्ण था पर उन दिनों देश में सरकार बदल जाने और नई सरकार की आणविक नीति में प्रथम - दृष्टया अधिक रुचि न दिखाई देने से परमाणु अनुसंधान के क्षेत्र में कुछ निराशा का वातावरण भी बना हुआ था। तत्कालीन प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई खुले तौर पर कह चुके थे कि एक ग़रीब देश के लिए अणु शक्ति से ज़्यादा ज़रूरत अन्नशक्ति की है। उनके "ग़रीबी देश के लिए अभिशाप है" जैसे बयानों से वैज्ञानिकों के मनोबल में उन दिनों खासी कमी देखी जा रही थी।
अपनी ही पुरानी छात्रा जब दोबारा बनस्थली में कार्य करने की इच्छा से आई तो शायद संस्थान को भी अच्छा लगा होगा, बहरहाल रेखा का चयन यहां हो गया।
एक छोटी सी तकनीकी अड़चन यह थी कि एक प्रोफ़ेसर के रूप में चयन के लिए जितनी नौकरी पूरी हो जानी चाहिए थी, रेखा ने अभी उतनी नहीं की थी। अतः पहले कुछ समय उसने एसोसिएट प्रोफ़ेसर के पद पर काम किया फ़िर प्रोफ़ेसर बन गई।
यद्यपि रेखा का दिल से यह भी मानना था कि किसी विद्यार्थी के लिए उसका स्कूल ही सबकुछ नहीं होता। अच्छे स्कूल के भी सभी विद्यार्थी अच्छे नहीं होते और साधारण विद्यालय से भी मेधावी बच्चे निकलते ही हैं। वैसे भी विद्यार्थी अपने विद्यालय में तो छः - सात घंटे ही रहता है बाकी के समय तो स्कूल परिसर से बाहर अपने दोस्तों और परिवार के बीच ही रहता है। ऐसे में उसके संस्कारों के लिए केवल स्कूल को ही दोष या श्रेय देना उचित नहीं हो सकता। फ़िर भी अपनी पुत्री को अपने ही पुराने विद्यालय में देख उसे आंतरिक ख़ुशी हुई।
जिस तरह बनस्थली विद्यापीठ में पढ़ने वाली हर छात्रा को यहां के संचालक अभिभावक बन कर शांता की प्रतिमूर्ति ही समझते थे रेखा ने भी इसी भावना के वशीभूत अपनी सभी छात्राओं को अपनी ही संतान की भांति देखा।
वह केवल एक शिक्षिका की भांति कभी नहीं रही। हर लड़की को व्यक्तिगत रूप से समय, सलाह और सहयोग देना उसकी आदत बन चुकी थी। छात्रा क्या विषय ले, अपनी कमियों को किस तरह दूर करे और शिक्षा के बाद खाली न बैठ कर रोज़गार से किस तरह जुड़े, इन सभी बातों पर उसका निरंतर ध्यान रहता था। वह कहा करती थी कि हमारा समाज जैसा है उसमें लड़की जब तक अपनी शिक्षा को अपने निर्णय खुद लेने की क्षमता में नहीं बदलेगी, कुछ नहीं बदलेगा। उसका मोल न समाज समझेगा न परिवार। और ऐसा तभी हो पाएगा जब वह नौकरी या कारोबार से जुड़े।
अतः आधुनिक शिक्षा की भाषा में कहें तो अपनी हर छात्रा के प्लेसमेंट पर उसकी नज़र रहती थी। देखते - देखते उसकी छात्राओं ने अपने घर परिवार में अपने को सबल किया। यही बनस्थली विद्यापीठ की मूल भावना भी थी। वह दिन के कई घंटे छात्राओं के लिए प्लेसमेंट में आने वाली दिक्कतों को सुलझाने में देती थी। हर क्षेत्र में रिक्तियों के लिए पता रखना, वहां अपनी छात्राओं को आवेदन करने के लिए प्रेरित रहना और फ़िर चयन के लिए कड़ी मेहनत करने का जोश जगाना उसके प्रक्रियात्मक सरोकार थे। बेहद सादगी से रहने वाली रेखा छात्राओं से कहती थी कि लड़कियां ज़मीन से निकले लाल - पीले पत्थरों व धातुओं को तन पर सजाने से सुंदर नहीं दिखेंगी, बल्कि समाज में महिला- जगत की राहों को आसान बनाने की कोशिश से सजेंगी। उनकी बात तभी सुनी जाएगी।
लड़कियों के करियर के लिए ट्रबल- शूटिंग उसका शौक ही नहीं बल्कि ज़ुनून था।
वह लड़कियों से भी कहती थी कि लड़कों की तुलना में दोगुना काम करो ताकि तुम्हें सम्मान भीख में नहीं, प्रतिदान में मिले। उसके व्यवहार की कई बातें बेहद मौलिक और अचंभित करने वाली थीं। जैसे...
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