(बरगद के ताबीज़ पर पड़ी दरार के तीन महीने बाद)
गाँव में सावन उतर चुका था, लेकिन बादलों की गड़गड़ाहट के पीछे एक अनसुनी दहशत गूँज रही थी। बरगद के नीचे बँधी ताबीज़ अब पूरी-की-पूरी दरक चुकी थी। हर रात कोई सूखी-सी हँसी हवा के साथ बहती—और वही पुराना ठंडा सन्नाटा लौट आया।
एक शाम, छोटा-सा बालक मोहन बरगद के पेड़ के पास खेलते-खेलते गिर पड़ा। जब उसने उठने को हाथ बढ़ाया, उसकी उँगलियाँ ताबीज़ के टूटे टुकड़े को छू गईं। बिजली-सी सनसनी उसके बदन से गुज़री, और मोहन की आँखें पल भर को काली पड़ गईं।
उस पल, जंगल की ओर से भयानक चीख उठी—
“मैं लौट आई हूँ---!”
चुरैलिन मुक्त हो चुकी थी।
वीडियो वायरल होने के बाद राघव दिल्ली चला गया था, मगर गाँव से फिर बुलावा आया। जैसे ही उसने गाँव में कदम रखा, मोबाइल पर एक अनजान वीडियो आया—अंधेरा, लाल साड़ी, और एक मासूम बच्ची के रोने की आवाज़। “मुझे बचाओ…”
राघव समझ गया—यह लड़ाई उससे भी बड़ी होने वाली है।
गाँव के पुरोहित हरिप्रसाद ने पौराणिक ग्रंथों में खोजकर बताया:
“जब धर्म की अग्नि बाँध टूटे और रक्षक आत्मा क़ैद हो, तो उसका पुनर्जन्म किसी निष्पाप देह में होता है—पर उसे पहचानना कठिन होता है।”
राघव ने गाँव के बच्चों को इकट्ठा किया। उन्हीं में मोहन सबसे शांत बैठा था—उसकी हथेली पर ताबीज़ का निशान चमक रहा था। मोहन की आँखें पल-पल गहरी होती जा रही थीं, मानो उनमें कोई और चेतना जाग रही हो।
राघव ने मोहन की ओर कैमरा किया। बच्चे ने धीमे स्वर में कहा,
“मत डर… मैं हूँ न!”
उस क्षण मोहन की आवाज़ दोहरी हो गई—एक मासूम बालक की, और भीतर से—लक्षिता की!
रात के तीसरे पहर, चुरैलिन ने पूरे गाँव पर हमला किया। पेड़ों से लटकी रस्सियाँ अपने-आप गाँठें बनातीं, झोंपड़ियों की छतें उखड़ जातीं। वह आग-का-गोला बनी हवा में मँडरा रही थी।
मोहन—या कहें लक्षिता—ने बरगद के नीचे दीप जलाया। उसके चारों ओर लाल चमकता वृत्त खिंचा। राघव ने मंत्रोच्चार रिकॉर्ड करना शुरू किया:
“जिसमें अन्याय जगे, वह राख में मिले;
जो न्याय जगे, वह प्रकाश में खिले।”
चुरैलिन गरजी, “इस बच्चे में छुपकर मुझे रोकोगी?”
मोहन की आँखों से सुनहरी लौ फूटी—“बच्चा नहीं, तुम्हारा अधर्म तुझसे बोल रहा है!”
आकाश दहाड़ते बादलों से फट पड़ा। मोहन के नन्हे हाथों में लाल-स्वर्ण अग्नि-गोलक बन गया; चुरैलिन ने अपनी काली जिह्वा से ज़हर उगला। गाँव की जमीन बीच से दरकने लगी। पेड़, कुएँ, मंदिर—सब कम्पायमान।
अंतिम क्षण में, मोहन ने ताबीज़ का टूटा हिस्सा हवा में उछाला। वह चमकता हुआ चक्र बन गया और चुरैलिन की छाती से आर-पार निकल गया। चीख इतनी तीखी थी कि पंछी आकाश से गिर पड़े।
चुरैलिन राख में बदलते-बदलते फुसफुसाई—
“जहाँ लोभ-हिंसा जगेगी, मैं फिर जन्म लूँगी…”
राख हवा में विलीन हो गई, और ताबीज़ का चक्र मोहन के ललाट पर छोटा-सा चिह्न बनकर बस गया।
सुबह का सूरज पहली बार सालों बाद निर्मल चमका। बरगद पर नई हरी कोंपले फूट पड़ीं। गाँव के लोग भय और कृतज्ञता में मोहन के आगे झुक गए। बच्चा मुस्कुराया, पर उसकी मुस्कान में बुद्धिमत्ता थी—जैसे किसी वृद्ध आत्मा ने नैमित्तिक अवतार लिया हो।
राघव ने कैमरा बंद करते हुए कहा,
“कहानी ख़त्म नहीं, बस करवट बदलती है। रक्षक जब तक गाँव में है, बला लौट भी आए, तो सामना करना पड़ेगा… और हम सब तैयार रहेंगे।”
(समाप्त)