Shri Bappa Raval - 9 in Hindi Biography by The Bappa Rawal books and stories PDF | श्री बप्पा रावल - 9 - भीलों की समस्या

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श्री बप्पा रावल - 9 - भीलों की समस्या

अष्टम अध्याय
भीलों की समस्या

एक मास के भीतर ही शुभ महूर्त देखकर गुहिलवंशी नागादित्य और राजकुमारी मृणालिनी का विवाह सम्पन्न हुआ। विवाह के कुछ दिनों के उपरान्त वो मेवाड़ी सेना की एक छोटी टुकड़ी लिए नागदा में आये। नागदा की सीमा में प्रवेश करते ही राजपथ पर उन पर पुष्प वर्षा आरम्भ हुई किन्तु नागादित्य को ये देख बड़ा आश्चर्य हुआ कि अधिकतर प्रजाजनों के मुख पर प्रसन्नता की कोई भावना नहीं दिखाई दे रही थी। मृणालिनी को भी शीघ्र ही प्रसन्नता का स्वांग करते सामान्य जनों के मन में दबे क्रोध का आभास हो गया। नागादित्य ने अपनी भार्या को धीरज रखने का संकेत दिया।

शीघ्र ही राजपथ को पार कर नागदा नरेश नागादित्य महल के मुख्य द्वार पर पहुँचे जहाँ सेनानायक, कुछ मंत्री और सभासद वहाँ उनकी प्रतीक्षा कर रहे थे। सभी ने अपने नए राजा रानी का भव्य स्वागत किया। अपने रथ से उतरकर राजा नागादित्य नीचे आये और सर्वप्रथम भारी कवच और शस्त्रों से लैस खड़े युवक की ओर बढ़े। अपनी पतली पर घनी मूँछों को सीधे करते हुए नेत्रों में संशय का भाव लिए वो योद्धा अपने राजा के निकट आते ही उनके समक्ष घुटनों के बल झुका, “नागदा नरेश नागादित्य की जय हो। मैं इस राज्य का प्रमुख सेनानायक विष्यन्त आपकी इस कर्मभूमि में आपका स्वागत करता हूँ।”

“कर्मभूमि का अर्थ जानते हो?” नागादित्य ने उसे ऊपर उठने का संकेत देते हुए प्रश्न किया।

सेनानायक विष्यन्त ने ऊपर उठकर नागादित्य से दृष्टि मिलाने का प्रयास किया, “मैं .. मैं कुछ समझा नहीं, महाराज।”

नागादित्य ने सेनानायक समेत अपने निकट खड़े सभी सभासदों की ओर देखते हुए कटाक्ष किया, “यदि आप सबको कर्मभूमि के अर्थ का ज्ञान होता तो प्रजा के मुख पर अपने नए राजा के आगमन पर इतनी अप्रसन्नता नहीं होती।”

शेष सभासदों ने दृष्टि झुका ली। किन्तु विष्यन्त ने अपनी मन की बात कहने का साहस कर ही दिया, “ये सब मेवाड़ नरेश मानमोरी की कृपा है महाराज, जो आज नागदा के एक भी मनुष्य के मुख पर नए राजा के स्वागत के लिए प्रसन्नता नहीं है।”

“मैंने तो सुना था यहाँ की प्रजा भीलों के आतंक से व्यथित है। तुम कहना क्या चाहते हो?” नागादित्य ने आश्चर्य से भरकर प्रश्न किया।

विष्यन्त ने चहुं ओर दृष्टि घुमाई फिर वापस नागादित्य की ओर मुड़ा, “मैं आपसे एकांत में वार्ता करना चाहूँगा, महाराज।”

******

“कहो, क्या कहना चाहते हो?” नागादित्य ने अपने निजी कक्ष में खड़े विष्यन्त से प्रश्न किया।

विष्यन्त ने क्षणभर नागादित्य की ओर देख साहस जुटाकर कहा, “मैं आपसे यही कहने का प्रयास कर रहा हूँ कि यदि आप अपनी और अपने परिवार की सुरक्षा चाहते हैं, तो नागदा छोड़कर चले जाईये।”

विष्यन्त के दबे स्वर में उस चेतावनी को सुन नागादित्य को क्षणभर के लिए क्रोध तो आया, किन्तु परिस्थिति को समझे बिना अपना आपा खोना भी उचित नहीं था। तो अपना मन शांत कर उन्होंने शांतिपूर्वक प्रश्न किया, “क्या तुम्हारी इस चेतावनी के पीछे का कारण जान सकता हूँ?”

नागादित्य के स्वर की सौम्यता देख विष्यन्त को भी कुछ क्षण आश्चर्य हुआ, “पिछले पाँच वर्षों में आप पहले ऐसे राजा हैं, जिन्होंने मेरी इस चेतावनी पर क्रोध नहीं किया।”

“क्योंकि मुझे यहाँ की प्रजा को भीलों के आतंक से मुक्त कराने के लिए भेजा गया है। और अपने सेनानायक से यूँ चेतावनी मिलने से मुझे क्रोध कम आया, किन्तु मन में अनेकों प्रश्न अवश्य उठ रहे हैं। कदाचित नागदा की प्रजा से जुड़ी ये जिज्ञासा मेरे अहंकार से अधिक महत्वपूर्ण है। तो बताओ, हमें और प्रजा को किससे संकट है ?”

“आप एक चरित्रवान मनुष्य प्रतीत होते हैं, राजन। किन्तु भीलों से संकट नागदा की प्रजा को नहीं है, भील केवल उसी से घृणा करते हैं जिन्हें यहाँ मेवाड़ नरेश का प्रतिनिधि बनाकर भेजा जाता है।”

“अर्थात मैं, या फिर अन्य वो सभासद जिनकी निष्ठा , मेवाड़ नरेश के प्रति है, है न? इसीलिए तुम मुझसे एकांत में वार्ता करना चाहते थे ताकि किसी को ये ज्ञात न हो कि तुम्हारी निष्ठा भीलों के प्रति है, क्यों?”

विष्यन्त मुस्कुराया, “किन्तु इस तथ्य को सिद्ध किए बिना आप मुझे दण्डित नहीं कर सकते।” 

नागादित्य मुस्कुराते हुए विष्यन्त के निकट आये, “तो तुम भीलों को ही प्रजा का संरक्षक मानते हो?”

“मैं क्या मानता हूँ क्या नहीं, इससे कोई अंतर नहीं पड़ता, राजन। मेरा कार्य था चेतावनी देना, अपना वो कर्तव्य मैंने पूर्ण किया। यदि आप पर आक्रमण हुआ तो मैं आपके रक्षण का प्रयास अवश्य करूँगा, सेनानायक होने के नाते कर्तव्य है ये मेरा।” भौहें सिकोड़े विष्यन्त ने नागादित्य को पुनः चेताया, “किन्तु वो भील हैं, कब किस भेष में कहाँ से आक्रमण कर दें, ये अनुमान लगाना किसी के लिए भी सम्भव नहीं। उचित यही होगा कि आप जितना शीघ्र हो सके यहाँ से निकल जायें।”

इतना कहकर वो सेनानायक नागादित्य के कक्ष से निकल गया। किन्तु नागादित्य के मुख के स्थान पर केवल जिज्ञासा थी, “अब इन भीलों के विषय में जानना तो पड़ेगा।”

******

रात्रि के अंधकार में मशाल लिए काला कंबल ओढ़े एक व्यक्ति दबे पाँव वनमार्ग की ओर बढ़ा चला जा रहा था। शीघ्र ही झाड़ियों को हटाते और काटते हुए वो एक स्थान पर रुका और मशाल नीचे रख सामने दिख रहा एक बड़ा पत्थर हटाना आरम्भ किया। उस पत्थर को हटाकर सामने एक सुरंग आयी, उस व्यक्ति ने मशाल बुझाई और पेट के बल रेंगता हुआ उस सुरंग में घुसा।

संकरीले सुरंग मार्ग पर रेंगते हुए कंबल ओढ़े उस व्यक्ति के घुटने और बाजू छिलने लगे, किन्तु वो पूरे एक कोस तक रेंगता रहा और शीघ्र ही सुरंग के दूसरी ओर आया जहाँ कई मनुष्य अग्नि की लपटों के घेराव में नृत्य कर रहे थे। उत्सव का माहौल था, वहीं एक शिविर के निकट रखे आसन, पर अपनी पत्नी के साथ बैठे भीलराज बलेऊ अपने नये जन्में शिशु का मस्तक सहला रहा थे।

वो कंबल ओढ़ा व्यक्ति उस सुरंग से निकलकर भीलराज के निकट आया जहाँ किसी ने उसका मार्ग नहीं रोका। उसकी ओर देख भीलराज मुस्कुराते हुए उठे और निकट आकर उसे अपने हृदय से लगा लिया, “हमें विश्वास था आज हमारी पुत्री के जन्मोत्सव पर आप अवश्य पधारेंगे, सेनानायक विष्यन्त।” बलेऊ का हाथ उस कंबल ओढ़े व्यक्ति के हाथों से बहते रक्त को छू गया। उसका रक्त बहते देख बलेऊ मुस्कुराया, “मित्रता निभाने में आप कभी पीछे नहीं हटते।” कहते हुए उसने अपने साथियों को हल्दी लाने का संकेत दिया।

“औषधि का क्या औचित्य, लौटना भी तो उसी मार्ग से पड़ेगा। या कोई और मार्ग भी है।”

कंबल ओढ़े उस व्यक्ति के मुख से अपरिचित स्वर सुन भीलराज के कान खड़े हो गये। उसने मुट्ठियाँ भींचते हुए हल्दी लाते अपने साथियों को रुकने का संकेत दिया। इतने में स्वयं को काले कंबल से ढके उस मनुष्य ने अपना आवरण हटाया। उसका मुख देख भीलराज ने अपनी तलवार खींच निकाली, “नागदा का नया सर्प?”

कंबल उतारे नागादित्य अपने हाथ ऊपर कर भूमि पर बैठ गये, “तो सूचनाएँ बहुत शीघ्र आपके पास पहुँच जाती हैं, भीलराज।”

दाँत पीसते हुए बलेऊ ने तलवार नागादित्य के कण्ठ पर टिकाई, “हमारे मित्र सेनानायक विष्यन्त कहाँ है?”

“सुरक्षित है। क्या है कि मैंने उसके पीछे-पीछे सुरंग में प्रवेश किया, और साथ में तो उसे ला नहीं सकता था। तो वो वहीं सुरंग के भीतर ही मूर्छित पड़ा है।”

नागादित्य के वचन सुन बलेऊ की भौहें तन गयीं, “बड़ी शीघ्रता है तुम्हें काल का आलिंगन करने की, है न? जो तुम स्वयं चलकर मृत्यु के मुख में चले आये।”

“मैं बस शत्रुता मिटाने के उद्देश्य से आया हूँ, भीलराज।”

मैं नागदा की प्रजा की रुष्टता का कारण जानना चाहता हूँ।” नागादित्य की बात सुन भीलराज ठहाके मारकर हँस पड़ा, “अब पकड़े गये तो विलाप शुरू।” उसने पुनः अपनी तलवार नागादित्य की गर्दन से छुआई, “उस दुष्ट मानमोरी का कोई भी प्रतिनिधि हमें स्वीकार नहीं है। उसका नाम लेकर यहाँ जो भी राजा आएगा वो वध के योग्य है। उचित होगा अपनी आँखें मूँदकर शांति से मृत्यु का आलिंगन करो।”

गर्जना करते हुए भीलराज ने भूमि पर बैठे नागादित्य का मस्तक काटने के उद्देश्य से तलवार उठाई। किन्तु वो गुहिलवंशी पहले से ही इस प्रहार के लिए तैयार था। लुढ़कता वो बलेऊ के वार से बचा, उसके घुटनों पर लात मारकर उसका संतुलन बिगाड़ उसे नीचे झुकाया, और अगले ही क्षण झपटकर उसकी तलवार छीन ली और बलेऊ की गर्दन पकड़ वो तलवार उसी की गर्दन पर टिका दी, “हम गुहिलवंशी बड़े हठी होते हैं। इतनी सरलता से प्राण नहीं छोड़ते, भीलराज बलेऊ। तुम्हें तो इस विषय में ज्ञात ही होगा।”

“गुहिल..गुहिलवंशी।” वो शब्द सुन बलेऊ भी स्तब्ध रह गया। किन्तु शीघ्र ही उसने अपने होश संभाले, “प्रलाप बंद कर, पाखण्डी। गुहिलों का वंश दस वर्ष पूर्व ही समाप्त हो चुका है। हमें छलने का प्रयास मत करो।”

“तब तो तुम्हारे गुप्तचर बड़े ही अक्षम निकले भीलराज, जो इतने वर्षों तक तुम इस भ्रम में रहे। हम भी जीवित हैं, और हमारे बड़े भाई शिवादित्य भी।” कहते हुए नागादित्य ने बलेऊ को छोड़ आगे धकेला और पुनः तलवार उसके कदमों में डाल दी, “यदि अब भी विश्वास नहीं तो मैं तुम्हारे समक्ष खड़ा हूँ। उतार दो मेरी छाती में अपनी तलवार, किन्तु उससे सत्य बदलेगा नहीं।”

नागादित्य के नेत्रों में सत्य की आभा देख बलेऊ भी भावुक हो गया, “आप वास्तव में गुहिल राजकुमार हैं?” नागादित्य ने सहमति में सिर हिलाया, “बस इसी कारण तो अपनी मातृभूमि लौटकर आया हूँ।”

भाव विभोर होकर बलेऊ अपने दायें घुटने के बल झुका और अपनी तलवार नागादित्य के चरणों में रखी, और हाथ जोड़कर उसे प्रणाम किया, “मैं भीलराज बलेऊ नागदा नरेश नागादित्य का उनकी कर्मभूमि में स्वागत करता हूँ।”

बलेऊ के साथ अन्य भील भी नागादित्य के आगे झुक गये। इतने में विष्यन्त भी सुरंग से रेंगता बाहर आया, भीलों को नागादित्य के आगे झुका देख वो अचम्भित रह गया। 

******

“तो आप मानमोरी की बहन से विवाह करके यहाँ आये हैं?” बलेऊ ने अपने निकट बैठे नागादित्य से तनिक रूखे स्वर में प्रश्न किया।

“मेरा और मृणालिनी का मेल तो भोजकश के युद्ध में हुआ। किन्तु मैं भलीभाँति जानता हूँ मुझे नागदा का राजा बनाने के पीछे मानमोरी का कोई निजी स्वार्थ अवश्य होगा।” पात्र में रस पीते हुए नागादित्य का मानों मन गदगद हो गया, “पंद्रह वर्षों के उपरान्त भीलग्राम में बने इस विशिष्ट रस का आनंद मिला है। बाल्यवस्था की स्मृतियाँ पुनः लौट आयीं।” उसने पात्र और नीचे रखा और अपना स्वर गंभीर कर बलेऊ से प्रश्न किया, “मुझे सारी कथा जाननी है, भीलराज। पिछले कुछ वर्षों से यहाँ हो क्या रहा है?”

“गुहिलवंशियों ने नागदा में सौ वर्षों से अधिक समय तक राज किया। और उनके हम भीलों से बहुत घनिष्ठ सम्बन्ध हुआ करते थे, बस इसी का दण्ड दिया गया हमें। वर्षों पूर्व जब नए राजा बने मेवाड़ नरेश मानमोरी ने अपनी विशाल सेना के साथ नागदा को पराजित कर आपको अपनी मातृभूमि छोड़ने पर विवश कर दिया, तब गुहिलवंशियों का अभिन्न मित्र माने जानने के कारण भीलों का भी भीषण नरसंहार किया गया। नारियों और बालकों को भी नहीं छोड़ा गया। मानमोरी के नए-नए आये प्रतिनिधि नागदा नरेश भद्राक्ष ने एक सप्ताह तक हम भीलों पर अत्याचार किया और हमें दुर्बल, शक्तिहीन और भगोड़ा मानकर मेवाड़ी सैनिक निर्भीक होकर नागदा में विचरण करने लगे। किन्तु हम नागदा के वनों में ही छिपे रहे। प्रतिशोध की अग्नि में जल रहे हम भील शीघ्र ही एकत्रित हुए और अपना एक संगठित दल बनाकर वनों से छुप-छुप कर मेवाड़ी योद्धाओं पर प्रहार करने लगे। हमें वनों का इतना ज्ञान था कि एक मास के भीतर ही हमने दस सहस्त्र मेवाड़ी सैनिकों का अंत कर दिया। यह देख मेवाड़ी सैनिक वनों से दूर रहने लगे, और अपनी सेना और संगठित करने लगे।”

भीलराज ने श्वास भरते हुए कहना जारी रखा, “शीघ्र ही नागदा के नए राजा भद्राक्ष ने सुनियोजित तरीके से अपनी सेना नागदा के वनों में भेजी और हमारे कई भील भाई पकड़े गये, जिन्हें तड़पा-तड़पा कर मारा गया। किन्तु उन्होंने अपने भाईयों का भेद नहीं खोला। उसके पश्चात हम भील वनों के कोने-कोने में छिपे, कुछ नागदा की नगरी में भेष बदलकर घूमने लगे। हमारा जीवन नर्कतुल्य हो गया था, महीनों-महीनों में एक बार अपने परिवारजनों को देख पाते थे हम। चार वर्ष यूँ ही बीत गये, नागदा की अन्य प्रजा पर भी भारी करों का बोझ लादा गया। फिर अकस्मात ही कुछ दिनों के उपरान्त न जाने कैसे वन में हमारी खोज में शिविर लगाकर बैठे मेवाड़ी सैनिकों की धीरे-धीरे हत्या होने लगी। किसी की समझ नहीं आया ये सब कैसे हो रहा है कौन कर रहा है। एक वर्ष तक धीरे-धीरे मेवाड़ी योद्धा मरते रहे, और फिर एक दिन नागदा के नए राजा भद्राक्ष की भी हत्या हो गयी।”

“मैं उस समय नागदा के ही एक गाँव में भेष बदलकर रह रहा था। राजा भद्राक्ष की हत्या होने के उपरान्त एक वीर योद्धा ने जाने मुझे कैसे खोज निकाला, और मेरे पास आकर मुझे बताया कि वो नागदा के पूर्व सेनापति कीर्तिदमन का पुत्र विष्यन्त है।” कहते हुए भीलराज ने निकट बैठे विष्यन्त की ओर संकेत कर गर्वित स्वर में कहा, “इन्होंने ही पहले राजा भद्राक्ष का विश्वास जीता, और नागदा के सेनानायक के पद पर नियुक्त हुए। फिर एक वर्ष तक इन्होंने भद्राक्ष की सुरक्षा व्यवस्था दुर्बल की, और अवसर पाकर उसकी हत्या कर दी।”

“राजा भद्राक्ष की मृत्यु के उपरान्त सेनानायक विष्यन्त की सहायता से ही हम भील वापस वनों में आये और अपने परिवारों से मिल सके। विष्यन्त ने धीरे-धीरे करके वनों से मेवाड़ी सेना को हटाया। फिर भी हमें सजग होने के साथ साथ छुपकर भी रहना था। तो हम वन लौटकर आए और कई चट्टानों को काटकर अपने लिए एक ऐसा गुप्त स्थान बनाया, जहाँ सेनानायक विष्यन्त के अतिरिक्त और कोई नहीं पहुँच सकता।”

“हम भीलों को छुपके तो रहना था किन्तु जीवित रहने के लिए हमें भी साधनों की आवश्यकता थी। तो फिर सेनानायक विष्यन्त के दिशा निर्देश में मेवाड़ी सैनिकों पर आक्रमण कर उन्हें लूटते रहे। जब मेवाड़ी सेना को धन की हानि होने लगी तो मानमोरी ने 'मुचुकंद' नाम के एक प्रतिनिधि को नागदा में शासन करने भेजा। वो मुचुकंद जब आए दिन लूटमार की घटनाओं से निपट नहीं सका, तो उसने प्रजा को और भी अत्याधिक भारी करों से लाद दिया। प्रजा में रोष और असंतोष बढ़ता गया, और उनके भूखे मरने तक की नौबत आ गयी। यह देख भीलों ने प्रजा के संरक्षण का भार उठाया और इस बार मेवाड़ी सेना पर अत्याधिक लूटमार करके उस धन का विशाल भाग छुप-छुप कर प्रजा को ही वितरित किया जाने लगा। धीरे-धीरे नागदा की प्रजा के कई नवयुवक मेवाड़ी सेना के स्थान पर हमारे दल में जुड़ने लगे। हमारी शक्ति बढ़ती गयी, और इससे पूर्व मुचुकंद हमें कोई और क्षति पहुँचाने का प्रयास करता, सेनानायक विष्यन्त ने विष देकर उसकी हत्या करवा दी।”

श्वास भरते हुए बलेऊ ने अपना कथन पूर्ण किया, “बस फिर क्या था, तबसे लेकर आजतक नागदा में कोई नया प्रतिनिधि नहीं आया। मेवाड़ नरेश की आज्ञा के बिना सेनानायक विष्यन्त राजा तो नहीं बन सकते थे, किन्तु इन्होंने नागदा का शासन सुचारु रूप से चलाया है। और आपके आने तक तो हमें छिपकर रहने की आवश्यकता भी नहीं पड़ी थी।”

यह सुन नागादित्य ने थोड़े अचरच भाव से प्रश्न किया, “अर्थात पिछले कुछ समय से लूटमार की घटनायें बंद हैं। पर मुझे तो कुछ और ही बताया गया था।”

इस पर विष्यन्त ने हस्तक्षेप करते हुए कहा, “वो केवल इसलिए क्योंकि मेवाड़ नरेश मानमोरी को उतना ही ज्ञात है जितना हम उन्हें बताते हैं। नागदा आज भी उनके शासन अधिकार में है, इसलिए मेवाड़ के अधिकारी यहाँ कर लेने तो आते ही हैं। और हम हर बार उनसे यही कहते हैं कि भीलों ने अधिकतर धन लूट लिया।” कहते हुए उसने भौहें सिकोड़े नागादित्य की ओर देखा, “किन्तु आपके यहाँ आने के उपरान्त ऐसा लगता नहीं कि, हमारी ये योजना अब अधिक दिन तक चल पाएगी।”

नागादित्य मुस्कुराये, “ऐसा प्रतीत होता है कि आप अब तक हम पर विश्वास नहीं कर पाये, सेनानायक ?”

“आपको वास्तव में लगता है आपके वंश का नाम विश्वास जीतने के लिए पर्याप्त है ?”

“कदाचित नहीं।” कहते हुए नागादित्य ने एक और रस का पात्र उठाया और उसका स्वाद लेकर अपना गला तर किया, “किन्तु आज नहीं तो कल ये भेद खुलेगा ही। ऐसे में नागदावासियों को इसके गंभीर परिणाम भोगने पड़ सकते हैं।”

“हाँ, यदि आप यहाँ शासन करने आए और उसके उपरान्त भी नागदा का कर मेवाड़ नहीं गया, तो संदेह तो उनके मन में उत्पन्न होगा ही।” कहते हुए विष्यन्त का स्वर रुष्ट हो गया, “आए तो मेवाड़ के प्रतिनिधि बनकर ही हैं न?” नागादित्य ने रस का पात्र रखा और बलेऊ और विष्यन्त दोनों की ओर देख प्रश्न किया, “आप बताईये आप लोगों की क्या इच्छा है?”

“नागदा की स्वतंत्रता।” भीलराज और विष्यन्त के मुख से एक साथ निकला।

नागादित्य ने श्वास भरकर उन दोनों की ओर देखा फिर भारी मन से कहा, “हृदय के किसी कोने में तो मेरे मन में भी यही इच्छा दबी हुई है कि नागदा परमारों से स्वतंत्र हो जाये। किन्तु सत्य ये भी है कि मैं इस समय मेवाड़ नरेश का प्रतिनिधि बनकर आया हूँ।”

“सीधे-सीधे क्यों नहीं कहते महाराज कि आप यहाँ उस मानमोरी के दास बनकर आए हैं।”

विष्यन्त के कटु वचन सुन बलेऊ को क्रोध आ गया, “सावधान सेनानायक, आप एक गुहिलवंशी राजा से बात कर रहे हैं।”

बलेऊ का रुष्ट स्वर सुन विष्यन्त की भी भौहें तन गईं, उसे विश्वास ही नहीं हुआ कि जिन भीलों की सहायता वो इतने वर्षों से कर रहा था, वो यूँ इस प्रकार उसे टोक देंगे। नागादित्य ने अपने सेनानायक का हाथ थाम उसे धैर्य धारण करने का संकेत देते हुए कहा, “आपने निस्वार्थ भाव से नागदा की बहुत सेवा की है। किन्तु क्रोध करने के स्थान पर उचित होगा कि हम समय की माँग को समझें। मैंने मानमोरी को जीवनभर के दासत्व का वचन नहीं दिया, किन्तु इस समय हमारे पास भी इतनी शक्ति नहीं है कि मेवाड़ से युद्ध करके स्वयं को स्वतंत्र घोषित कर सकें। और उससे बड़ा सत्य ये है कि मेवाड़ का शक्तिशाली बने रहना समूचे भारतवर्ष के लिए आवश्यक है।”

“ऐसा क्यों?” भीलराज बलेऊ ने प्रश्न किया।

“क्योंकि महाराज मानमोरी की सेना की एक विशाल टुकड़ी इस समय सिंध में कई चौकियाँ बनाए हुए है, ताकि सिंध को अरबी आक्रमणकारियों से सुरक्षित रखा जा सके। यदि सिंध का दुर्ग ढहा तो अरब से आये हुए वो विधर्मी समूचे भारतवर्ष में फैलना आरम्भ हो जायेंगे। ये भी एक कारण है कि मैंने बरसों से अपने हृदय में जल रही प्रतिशोध की अग्नि को शांत रखने का निर्णय लिया है।”

विष्यन्त ने मुस्कुराते हुए कटाक्ष किया, “तो अर्थात नागदा की प्रजा पर फिर से भारी करों का बोझ पड़ेगा। और यदि मेवाड़ नरेश ने आपसे भीलराज का मस्तक माँगा, तो आप क्या करेंगे?”

“मेरे रहते भील समुदाय या भीलराज पर कोई संकट नहीं आयेगा। किन्तु उचित यही होगा कि इस समय हम शांति का मार्ग अपनायें। रही बात कर की, तो आज के उपरान्त नागदा की प्रजा उतना ही कर देगी जितना मेवाड़ के एक आम नागरिक को देना चाहिए।” नागदा नरेश ने भीलराज के कंधे थपथपाते हुए आश्वासन दिया, “और रही बात भीलों की तो मेरा वचन है कि जब तक मैं नागदा का शासक हूँ, उन्हें छिपकर रहने की आवश्यकता नहीं पड़ेगी।”

भीलराज ने मुस्कुराते हुए गर्वित होकर विष्यन्त की ओर देखा। विष्यन्त ने भी अपने मुख पर बनावटी मुस्कान लायी, “यदि आपको इन पर विश्वास है भीलराज, तो मुझे भी कोई आपत्ति नहीं है। किन्तु मैं प्रतीक्षा अवश्य करूँगा, उस दिन की जब ये अपना वचन पूर्ण करेंगे। जब मेवाड़ नरेश मानमोरी की ओर से ये सहमति का संदेश आएगा कि वो नागदा वासियों की भलाई के लिए आपकी माँगों से सहमत हैं।”

नागादित्य ने मुस्कुराते हुए सहमति में सिर हिलाया, “आशा है हम शीघ्र ही आपका विश्वास जीत पायेंगे।”

कुछ क्षण विचार कर विष्यन्त ने कहा, “यदि आप विश्वास जीतना चाहते हैं तो हमें अवसर दीजिए। आपका जो भी प्रस्ताव होगा, उसे मेवाड़ नरेश के पास हम स्वयं लेकर जायेंगे।”

उस विनम्रता से भरे स्वर में छिपे विष्यन्त के हठ को पहचान भीलराज ने आपत्ति जताने के लिए कुछ कहने का प्रयास किया, किन्तु नागादित्य ने उन्हें हाथ उठाकर रुकने का संकेत दिया, “स्वीकार है।”

******

चित्तौड़ की राजसभा में मेवाड़ नरेश मानमोरी के समक्ष खड़ा विष्यन्त उनके आदेश की प्रतीक्षा कर रहा था। मानमोरी ने उसे अच्छे से घूरा, “तो तुम नागदा के सेनानायक हो? कितने वर्षों से ?”

“पिछले सात वर्षों से, महाराज।” विष्यन्त ने अपना स्वर विनम्र ही रखा।

 “अद्भुत संयोग है, क्यों?” मानमोरी उतरकर विष्यन्त के निकट आए, “सात वर्ष पूर्व तुम नागदा के सेनानायक हुए और उसी दौरान नागदा में भेजे मेरे पहले प्रतिनिधि की हत्या हुई, कई मेवाड़ी सैनिक मारे गये, और एक वर्ष के भीतर ही मेरे भेजे दूसरे प्रतिनिधि की भी हत्या हो गयी।

विष्यन्त ने मुस्कुराते हुए कहा, “जैसा आपने कहा, महाराज। अद्भुत संयोग है।”

मानमोरी ने उसके नेत्रों को टटोलने का प्रयास किया, “तुम स्वयं नागदा के राजा बनना चाहते थे, है न? इसीलिए इतने वर्षों से भीलों की सहायता कर रहे थे, क्यों?”

क्षणभर को विष्यन्त सकपका सा गया। उसे विचलित देख मानमोरी ने उसकी पीठ थपथापाई और वापस अपने सिंहासन पर जा बैठे, “वैसे उच्च आकांक्षा रखने में कोई बुराई नहीं है। यदि मनुष्य थोड़े से में संतोष कर ले, तो उसके जीवन का उद्देश्य ही क्या रह जायेगा।”

विष्यन्त के स्वर थोड़े लड़खड़ाए, “मु.. मुझे नहीं पता आप कहना क्या चाहते हैं, महाराज। मैं बस महाराज नागादित्य का प्रस्ताव लेकर आया हूँ, यदि आज्ञा हो तो मैं उसे पढ़ना चाहूँगा।”

मानमोरी ने खीजते हुए कहा, “यही न कि नागदा की प्रजा उतना ही कर देगी, जितना मेवाड़ की आम प्रजा देती है। और उसी अनुसार नागदा से कर आएगा। मैं नागादित्य को भलीभाँति जानता हूँ, ये तो होना ही था। कुछ और बताना चाहोगे?”

“जी महाराज। महाराज नागादित्य ने ये भी आग्रह किया है कि भील समुदाय के सारे अपराध क्षमा कर उन्हें नागदा के सामान्य नागरिक के रूप में अधिकार दिया जाये। और उनके प्रति जितने भी घोषित दण्ड है वो रद्द किये जायें।”

विष्यन्त का कथन सुन मानमोरी ने मुट्ठियाँ भींची। मस्तक थोड़ा नीचे कर अपने नेत्रों में क्रोध को छुपाते अपने निकट के आसान पर बैठे हुए महामंत्री जलसंघ की ओर देखा। जलसंघ ने अपने राजा को धीरज धारण करने का संकेत दिया। मुख पर बनावटी मुस्कान लिए मानमोरी ने विष्यन्त की ओर देखा, “तो भीलों और गुहिलों के सम्बन्धों में कदाचित मधुरता आना आरम्भ हो गयी है, क्यों? अब नागदा नरेश हमारे बहनोई हैं। तो उनका ये अनुरोध हम भला कैसे ठुकरा सकते हैं? स्वीकार है।”

मानमोरी का निर्णय सुन विष्यन्त के मुख पर आश्चर्य का भाव था। फिर भी उसने मानमोरी के समक्ष सर झुकाया, “धन्यवाद महाराज।”

“तुम हमारे इस निर्णय से प्रसन्न नहीं दिख रहे, सेनानायक विष्यन्त। कोई समस्या है ?” मानमोरी के उस प्रश्न को सुन विष्यन्त सकपकाया, “नहीं महाराज, मैं..मैं बहुत प्रसन्न हूँ। आज्ञा चाहूँगा।” “स्मरण रहे, मेरी दृष्टि सदैव तुम पर रहेगी।”

“जी, जी, महाराज।” विष्यन्त पलटकर जाने लगा। तभी मानमोरी ने उसे टोका, “एक सन्देशा मेरा भी है नागदा नरेश के लिए।”

“कहिए महाराज।” विष्यन्त वापस मानमोरी की ओर पलटा।

“नागदा नरेश से कहना कि एक छोटा सा नगर है, शन्धानी। आजकल कुछ अधिक ही विद्रोह उत्पन्न हो रहा है वहाँ। तो हमारी विनती है कि तनिक उस विद्रोह को हमारे लिए दबाने का प्रयास करें।”

“जो, जो आज्ञा, महाराज।” मानमोरी को प्रणाम कर विष्यन्त राजसभा से प्रस्थान कर गया। उसके जाने के उपरान्त महामंत्री जलसंघ ने मेवाड़ नरेश से प्रश्न किया, “आपको विश्वास है कि हमारे पूर्व प्रतिनिधियों की हत्या के पीछे इसी विष्यन्त का हाथ है ?”

“निसंदेह, गुप्तचरों की भी यही सूचना है कि भील इसे अपना मसीहा मानते थे। किन्तु मगरमच्छ को मगरमच्छ को पहचान ही लेता है, और इसके नेत्रों में छिपी लालसा देखकर ही ज्ञात हो गया कि इसने जो कुछ भी किया नागदा के सिंहासन के लिए किया।”

“तो फिर इसे जाने क्यों दिया, महाराज? इसका अपराध तो दण्डनीय है।”

“पहली बात तो ये महामंत्री कि ये नागदा का दूत बनकर आया था। और दूसरी ये कि मुझे भद्राक्ष और मुचुकंद की मृत्यु से कोई लेना देना नहीं। वो अशक्त और अयोग्य थे, इसलिए मारे गये। और तीसरी ये कि अभी तो नागादित्य हमारा मित्र है, किन्तु यदि ऐसा समय आया जब वो गुहिलवंशी हमारे विरुद्ध हो गया, तो ये विष्यन्त ही वो कड़ी है जो नागादित्य की शक्ति क्षीण करेगा।” 

“तो आप उसे अपने पक्ष में करना चाहते हैं?” “प्रतीक्षा कीजिये, महामंत्री जी। मेरे गुप्तचर नागदा में बहुत सजग हो गये हैं, जब जैसा प्रसंग उत्पन्न होगा योजना भी उसी अनुसार बनाई जाएगी। चाहें नागदा हो या चित्तौड़, सम्पूर्ण मेवाड़ को ये ज्ञात होना चाहिए कि उनके नरेश हम हैं।”

******

“पराजय स्वीकार करते हो, दुशल?” अपने अश्व पर सवार नागादित्य ने अपने समक्ष बंदी बने शन्धानी के सामंत दुशल के कण्ठ पर तलवार टिकाते हुए कहा। दुशल ने सर हिलाते हुए समर्पण के लिए सहमति जताई।

अपने अश्व से उतरकर नागादित्य ने बंदी बने दुशल की ओर देखा, जो लज्जा से अपना मस्तक झुकाये खड़ा था। वो उसके निकट गये, “सम्भव है कि महाराज मानमोरी के कारण आपके इस नगर को बहुत पीड़ा झेलनी पड़ी होगी। किन्तु इस समय राष्ट्र की सीमाओं पर जो संकट मंडरा रहा है, वो अत्यंत भयावह है। उचित यही होगा कि इस प्रकार के विद्रोह करके मेवाड़ को दुर्बल न बनायें। क्योंकि यदि सिंध को हराकर अरब आक्रान्ताओं ने इस भारतभूमि में प्रवेश किया, तो आप सबका श्वास लेना भी दूभर हो जाएगा।”

“किन्तु हमारी समस्याओं का क्या, नागदा नरेश?” सामंत दुशल ने भावुक होकर प्रश्न किया, “छह माह से यहाँ शन्धानी में सूखा पड़ा है। बच्चे, बूढ़े भूख से बिलबिलाते रहे। चित्तौड़ में इतने संदेश भेजे किन्तु महाराज मानमोरी ने यहाँ आकर किसी की सुध नहीं ली, ना ही किसी संदेश का उत्तर दिया। तो हमारे पास भी मेवाड़ी सैनिक टुकड़ियों पर आक्रमण कर उन्हें लूटने के अतिरिक्त और कोई मार्ग ही नहीं बचा था। हम विवश थे।”

नागादित्य ने अपने साथ खड़े भीलराज बलेऊ की ओर देखा, “आपका क्या सुझाव है?”

“सूचना शत प्रतिशत सत्य है, महाराज। शन्धानी में पिछले छह माह से सूखा पड़ा है। इसलिए मेरे अनुसार है ये सामंत दण्ड के योग्य तो नहीं है।”

नागादित्य ने तलवार वापस म्यान में रखी और सैनिकों को आदेश दिया, “यहाँ अपनी सैन्य चौकियाँ लगाने का प्रबंध करो। जब सबकुछ व्यवस्थित हो जाये, तो युद्ध बंदियों को मुक्त कर देना।” 

सैनिक अपने राजा के आदेश का पालन करने दौड़ पड़े। वहीं नागादित्य ने दुशल को आश्वस्त किया, “आप चिंतित मत होईये। हम ये सुनिश्चित करेंगे कि जब तक आपके नगर की फसलें और खेती ठीक ना हो जाए, आपको सहायता प्राप्त हो।”

इतना कहकर वो भीलराज को साथ लेकर पीछे की ओर मुड़े, “नागदा की जनता की क्या सूचना है, बलेऊ ? क्या उन्हें अपने नए राजा पर विश्वास होना आरम्भ हुआ?”

“चिंतित न होईये, महाराज। वर्षों से टूटा विश्वास इतनी शीघ्र नहीं जुड़ेगा, किन्तु उनका झुकाव धीरे-धीरे आपकी ओर बढ़ रहा है। वैसे इस समय तो आपके लिए एक महत्वपूर्ण सूचना है।”

“कैसी सूचना?” “महल की दासियों ने सूचना दी है। महारानी मृणालिनी गर्भ से हैं।”

बलेऊ के मुख से इस सुखद सूचना को सुन राजा नागादित्य मन ही मन प्रफुल्लित हो उठे। फिर भी अपनी भावनाओं को नियंत्रित करना ही उचित समझा, “समाचार तो सुखद है। किन्तु पहले यहाँ इस नगर में समस्त चीजें व्यवस्थित हो जायें। शन्धानी में कोई न कोई मदिरा गृह तो होगा ही, आज थोड़ा उत्सव तो बनता है।”

“अवश्य महाराज।” बलेऊ ने हँसते हुए सहमति जताई और पास में ही सैनिकों को निर्देश दे रहे विष्यन्त के पास आया, “सैन्य चौकियाँ स्थापित करने में आज संध्या की व्यवस्था आप देख लेंगे, सेनापति?”

“अवश्य।” विष्यन्त ने सहमति जताते हुए प्रश्न किया, “आप और महाराज कहीं जा रहे हैं?”

“हाँ, वो आज कुछ सुखद सूचनायें मिली हैं। तो हमने सोचा क्यों न महाराज के साथ किसी उत्तम स्थान पर जाकर उत्सव मनायें, इससे महाराज की थकान भी दूर हो जायेगी।” “जी अवश्य भीलराज, क्यों नहीं।” विष्यन्त ने अपने मुख पर बनावटी मुस्कान लाने का प्रयास किया।”

“धन्यवाद।” बलेऊ उसकी पीठ थपथपाते हुए आगे बढ़ गया।

वहीं विष्यन्त अपनी भौहें सिकोड़े और मुट्ठियाँ भींचे उसे जाता देखता रहा, “इतने वर्षों तक इन भीलों की सहायता की, और नए राजा के आते ही इस भीलराज ने उसकी चाटुकारती आरम्भ कर दी।”

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अपने कक्ष में बैठे नागादित्य का भेजा पत्र पढ़कर मानमोरी का मस्तक क्रोध से जल रहा था, “एक और अपराधी को दण्डित करने के स्थान पर वो नागादित्य उसके लिए सहायता माँग रहा है।” मानमोरी ने वो पत्र अग्नि में फेंक दिया।

कक्ष में बैठे महामंत्री जलसंघ ने मानमोरी को ढाँढस बँधाने का प्रयास किया, “किन्तु भूल तो आपसे ही हुई है, महाराज। आपने बार-बार शन्धानी से आए सहायता के संदेश को अनसुना किया।”

“यदि मुझे उसका पत्र देखने को समय नहीं मिला, तो क्या इसका अर्थ ये है कि शन्धानी के सामंत को विद्रोह का अधिकार मिल गया है?”

“किसका क्या अधिकार है ये कहना कठिन है। किन्तु विद्रोह का भाव तो पीड़ा से ही निर्मित होता है, और कोई इस पीड़ा को दूर करने आए तो उसे मनुष्य मसीहा मानने लगता है।”

“आप कहना क्या चाहते हैं, मामाश्री ?”

“कहीं ऐसा ना हो कि मेवाड़ में आपसे ऊँचा नाम और सम्मान नागदा नरेश का हो जाए।”

क्रोध से मानमोरी की भवें तन गयीं, “उसकी चिंता आप न करें, महामंत्री। नागादित्य केवल मेरा शस्त्र है, और उस शस्त्र का कब कैसे उपयोग करना है, ये मैं जानता हूं अब बस इसमें थोड़ी और सावधानी बरतनी होगी।” 

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समय बीतता गया, धीरे-धीरे नागादित्य ने नागदा की प्रजा का विश्वास जीत ही लिया। वहीं सेनानायक विष्यन्त के हृदय में विरह की अग्नि जलती रही। शीघ्र ही वो दिन आया जब नागदा के महल से एक नन्हे शिशु की किलकारियाँ गूँजी। अपने शिशु के जन्मोंत्सव की व्यवस्था नागादित्य ने महल में नहीं अपितु नागदा के गाँव में ही अपने प्रजाजनों के बीचों बीच ही की।

भील समुदाय अपने युवराज के जन्म पर नृत्य में संलग्न था। महारानी मृणालिनी की गोद में नन्हें कालभोज को खेलता देख, निर्धन से निर्धन प्रजाजन भी अपनी ओर से कोई न कोई भेंट महारानी के चरणों में अर्पित करने जा रहे थे। कोई स्वर्ण मुद्रिका हो या केवल फलों का उपहार, महारानी मृणालिनी उन्हें बड़ी प्रसन्नता के साथ स्वीकार कर रहीं थीं। उन उपहारों को व्यवस्थित करने में देवी तारा उनकी सहायता कर रही थीं।

भीलराज राजा नागादित्य के साथ ही बैठे वार्ता कर रहे थे। वहीं विष्यन्त वहाँ की सुरक्षा व्यवस्था का ध्यान रख रहा था। शीघ्र ही सर पर लाल पगड़ी बांधे, मैले कुर्ते में लम्बी घनी मूँछ और दाढ़ी वाला एक मनुष्य महारानी मृणालिनी के निकट आया और प्रेम भाव से नन्हें कालभोज को देखने लगा। शीघ्र ही उसने अपनी झोली में से निकालकर एक स्वर्ण मुद्रिका उसके हाथ में दी। उसे देख नागादित्य को थोड़ा संदेह हुआ, वो उठकर उस व्यक्ति के निकट आया। नागदा नरेश को निकट आता देख वो लाल पगड़ी वाला मनुष्य पीछे हटकर उनसे नजरें चुराने लगा।

नागादित्य ने उस पगड़ी वाले व्यक्ति को टोका, “आप हमें यहाँ आने की सूचना भिजवा सकते थे, ज्येष्ठ। स्वागत ही करते आपका, अपमान नहीं।”

नागादित्य के वचन सुन वो व्यक्ति अपनी पगड़ी उतार अपने अनुज की ओर मुड़ा, “इसका अर्थ ये नहीं कि मैं तुम्हें नागदा नरेश के रूप में स्वीकार कर लूँगा।”

अपने ज्येष्ठ के कटाक्ष के आगे नागादित्य ने मौन धारण करना ही उचित समझा। किन्तु मृणालिनी से रहा नहीं गया। उसने नवजात कालभोज को अपने बगल में बैठी तारा को गोद दिया और उठकर शिवादित्य के निकट आयी और उसके चरण स्पर्श किये, “प्रणाम भ्राताश्री।”

शिवादित्य ने अपने पाँव पीछे किये, “नागदा की महारानी को ये शोभा नहीं देता कि वो चालुक्यों के साधारण से सामंत के चरण स्पर्श करे।”

रानी मृणालिनी ने उठकर विनम्र भाव से कहा, “मन में तो आपके भी भ्रात प्रेम ही उभरा था न। अन्यथा अपने वंश के नए चिराग को देखने के लिए आपका मन लालायित नहीं होता। तो जब अपने महाराज को आप यहाँ भ्राता समझकर आए हैं तो हमें महारानी कहकर लज्जित न कीजिए। हमारा ओहदा आपसे छोटा ही रहेगा, तो कृपा करके हमें और हमारे पुत्र को अपने आशीर्वाद से अनुग्रहित करने की कृपा करें।”

मृणालिनी के इस तर्क का शिवादित्य के पास कोई उत्तर न था। उसने सहमति में सर हिलाया, फिर नवजात कालभोज को शिवादित्य की गोद में दिया गया। उस बालक का मुख देख मानों शिवादित्य के मन में दबा सारा क्रोध ही मिट गया। वो सबकुछ भूल उसके नन्हें हाथ सहलाने लगा, “तो गुहिलों की अगली पीढ़ी का आगमन हो गया।” उसने अपने गले से रुद्राक्ष की एक माला निकाली और कालभोज के गले में डाल दी, “महादेव तुम पर अपनी कृपा बनाए रखें, पुत्र।” कुछ क्षण उसे निहारने के उपरान्त शिवादित्य ने उस शिशु को पुनः उसकी माता की ओर बढ़ाया, “इस उपहार के लिए बहुत-बहुत धन्यवाद देवी।” कालभोज को अपनी माता के हाथ सौंपने के उपरान्त शिवादित्य ने अपने हाथ जोड़ लिये, “किन्तु हमें क्षमा करें, हम अपने परिवार के हत्यारे मानमोरी को क्षमा नहीं कर सकते।”

“मैं समझ सकता हूँ, ज्येष्ठ।” नागादित्य आगे आया, “किन्तु इसका अर्थ ये तो नहीं कि आप अपने परिवार से भी दूर हो जायें।”

“तुम भूल रहे हो नाग, कि तुम अब भी मानमोरी के आधीन हो। तो जिस दिन स्वतंत्र हो जाओ, उस दिन तुम्हें कहने की आवश्यकता नहीं होगी। मैं गर्व से अपने अनुज को छाती से लगाऊँगा।” कहते हुए शिवादित्य पलटकर जाने लगा।

“हमसे बिना मिले ही चले जायेंगे, महामहिम शिवादित्य?”

वो स्वर सुन शिवादित्य बलेऊ की ओर मुड़ा, “बलेऊ ?”

“भीलराज बलेऊ, महामहिम। हमें आशा नहीं थी आप, हमें स्मरण रख पायेंगे।” कहते हुए वो शिवादित्य के निकट आया, “आपको देखे वर्षों बीत गये, कुमार शिवादित्य।”

शिवादित्य ने अपनी नकली दाढ़ी मूँछ निकाली और बलेऊ की पीठ थपथपाई, “हमें भलीभाँति स्मरण है बलेऊ कि बाल्यकाल में हम गुरुकुल में कई बार मिले हैं। तुम्हें लगा हमें स्मरण नहीं होगा?”

“यही तो आप गुहिलों की विशेषता है, महामहिम। आप गुहिल किसी को स्वयं से छोटा नहीं समझते, इसीलिए प्रजा को प्रिय हैं।” कहते हुए वो नागादित्य की ओर मुड़ा, “इसलिए मेरी भी यही आशा है कि नागदा शीघ्र से शीघ्र उस मानमोरी के बंधन से मुक्त हो।”

“सुन रहे हो न, अनुज ? हमारी नहीं तो कम से कम अपनी प्रजा की विनती को अवश्य सुनना।” अपने अनुज पर कटाक्ष कर शिवादित्य पुनः बलेऊ की ओर मुड़ा, “एक राजा की ख्याति जितनी अधिक बढ़ती है, उसके शत्रु भी उतने ही बढ़ते हैं। न जाने कितने षड्यन्त्रकारी बस अवसर की ताक में होंगे।”

इस पर बलेऊ ने आश्वस्त होकर कहा, “आप चिंतित न होईये, महामहिम। मेरे रहते महाराज का कोई बाल भी बाँका नहीं कर सकता।”

शिवादित्य ने बलेऊ की पीठ थपथपाई और प्रस्थान करने ही वाला था कि नागादित्य ने उसे टोका, “माना मैं स्वतंत्र नहीं, किन्तु इसका ये अर्थ तो नहीं कि आप अपने अनुज को ही अपने विवाह में निमंत्रित ना करें।”

शिवादित्य मुस्कुराते हुए उसकी ओर मुड़ा, “तो तुम्हें चालुक्यनगरी की भी हर एक सूचना मिलती रहती है?”

“हाँ, सो तो है। आप एक भव्य नगरी के सामंत बन चुके हैं, आपका विवाह चालुक्यों की नगरी में शरणार्थी बनकर आये पल्लव सेना के सामंत नास्तिदमन की पुत्री शत्रुपा से होने वाला है। वैसे आप नहीं भी बुलाएंगे तो भी मैं छुपतेछुपाते अपने ज्येष्ठ के विवाह में आऊँगा जरूर।”

“छुपने की क्या आवश्यकता है, मैं तुम्हें अपने विवाह में सम्मिलित देखना चाहता हूँ। किन्तु यदि तुम नागदा नरेश बनकर वहाँ आये तो तुम्हारे लिए वहाँ कोई स्थान नहीं होगा।”

“मैं समझ रहा हूँ, ज्येष्ठ।” नागादित्य ने शिवादित्य का हाथ पकड़ उसे आश्वस्त किया, “मैं केवल आपका अनुज बनकर आऊँगा।”

******

तीन वर्ष और बीत गये। इस बीच कई नगरों से विद्रोह उठे और उन्हें दबाने के लिए बार-बार मेवाड़ नरेश ने नागादित्य को ही भेजा। मेवाड़ के अधिकतर नगरों में नागादित्य की ही प्रशंसा के स्वर सुनने को मिलने लगे। नागदा नरेश का ओहदा मेवाड़ की प्रजा में मानमोरी से भी ऊँचा होता जा रहा था। इसी तथ्य से विचलित होकर एक दिन महामंत्री जलसंघ ने मानमोरी से प्रश्न कर ही डाला, “मुझे समझ नहीं आ रहा, महाराज। आप स्वयं देख रहे हैं कि मेवाड़ में नागादित्य का मान आपसे ऊँचा होता जा रहा है। फिर भी आप हर विद्रोह को दबाने के लिए उसे ही भेज देते हैं?”

अपने निजी कक्ष में मदिरा का पात्र उठाए मानमोरी ने मुस्कुराते हुए कहा, “आपने ही तो मुझे सलाह दी थी मामाश्री, कि मैं मृणालिनी का विवाह अपने शत्रु से कराके उसे अपना मित्र बना लूँ।”

“किन्तु उसे मित्र बनाने का अर्थ ये तो नहीं कि अपने ही राज्य में उसका सम्मान इतना बढ़ने दिया जाए, कि एक दिन आपकी अधिकतर प्रजा और सभासद आपके ही विरुद्ध हो जायें।”

“आप कुछ अधिक ही चिंता करते हैं, मामाश्री। क्या मैं आपको इतना मूर्ख दिखता हूँ?”

“तो यदि आपकी कोई योजना है तो उसमें मुझे सम्मिलित क्यों नहीं करते?”

“क्योंकि ऐसी कोई विशेष योजना है ही नहीं जैसा आप समझ रहे हैं। बात समझनी हो तो बहुत सीधी सी है, मामाश्री। पिछले कई वर्षों से मेवाड़ के कई नगरों में विभिन्न कारणों से विद्रोह भड़क रहे थे, जिसका कारण हमारे , ही कुछ भ्रष्ट अधिकारी थे। और साथ में हमसे भी कुछ भूल हुई थी। अधिकतर प्रजा का हम पर से विश्वास उठने लगा था। नागादित्य ने जबसे मेवाड़ के विभिन्न नगरों में विद्रोह दबाना आरम्भ किया है, तबसे हमें आर्थिक लाभ ही हुआ है। क्योंकि वो केवल विद्रोह नहीं दबाता अपितु उस विद्रोही का विश्वास भी जीत लेता है। तो पिछले तीन वर्षों में उसने सत्ताईस नगरों में विद्रोह दबाया है, जिसमें से पंद्रह से अधिक नगरों से हमें रत्ती भर भी कर नहीं मिलता था, जो मिलना आरम्भ हो गया। और साथ में उन सत्ताईस नगरों से मेवाड़ी सेना में भर्ती होने कोई नहीं आता था। किन्तु अब उन सभी नगरों के युवक नागादित्य के जगाए विश्वास के कारण बढ़ चढ़कर सेना में भर्ती होने आ रहे हैं, तो बताईये विजय किसकी हुई?”

“किन्तु ये विश्वास नागादित्य के प्रति है।”

“इसीलिए तो मैंने नागादित्य की हर योजना, हर प्रस्ताव का समर्थन किया ताकि उसका विश्वास जीत सकूँ। और आप स्वयं देख रहे होंगे कि इन दिनों वो नागादित्य मुझपर विश्वास करने लगा है।”

“हाँ, ऐसा प्रतीत तो होता है। तो क्या आप ये कहना चाहते हैं कि ऐसा करने से प्रजा जितना नागादित्य पर विश्वास करती है उतना ही आप पर भी करने लगेगी?”

“आप भी न, मामाश्री?” मानमोरी की हँसी छूट गयी, “मेरा उद्देश्य चालुक्यों को जीतना है, ये आप भूल क्यों जाते हैं? बस इसी उद्देश्य से मैं पिछले चार वर्षों से नागादित्य की सहायता से अपनी सेना ही तो सशक्त कर रहा हूँ।”

“किन्तु आपने तो वचन दिया था कि..।”

“कि जब तक सिंध की समस्या सुलझ नहीं जाती, मैं चालुक्यों पर आक्रमण नहीं करूँगा, यही न? किन्तु अब तो मैंने स्वयं एक लाख का सैन्य दल सिंध में तैनात किया हुआ है, जिसके भय से वर्षों से किसी अरबी आक्रांता ने राजा दाहिर के उस राज्य की ओर दृष्टि उठाकर नहीं देखा।”

“तर्क तो उत्तम है।” जलसंघ ने कुछ क्षण विचार किया, “किन्तु क्या आप कभी नागादित्य को उन चालुक्यों पर आक्रमण के लिए मना पायेंगे जिन्होंने उसे संकट समय में सहारा दिया ?”

“निसंदेह ये कठिन होगा। नागादित्य मेरा कोई दास तो नहीं है। किन्तु यदि स्वयं चालुक्यराज उसके ज्येष्ठ भ्राता शिवादित्य की हत्या कर दें तो?”

“ये..ये भला कैसे सम्भव है?” जलसंघ ने आश्चर्य में भरकर प्रश्न किया।

“हम कुछ ऐसा प्रपंच रचेंगे, कि नागादित्य स्वयं ही चालुक्यों के विरुद्ध शस्त्र उठायेगा। क्योंकि चालुक्यराज ने एक बहुत बड़ी भूल की जो पल्लवों के कई सेनानियों को अपने राज्य में पनाह दी। अब चार वर्ष पूर्व उनमें से कितनों ने ही चालुक्यों और पल्लवों के हुए युद्ध में अपनों को खोया था, तो हमारे गुप्तचरों के लिए उन्हें हमारे पक्ष में करना इतना भी कठिन नहीं था। पल्लवों के सैकड़ों योद्धा और अधिकारी अब हमारे लिए गुप्तचर बनकर कार्य करते हैं, और उनमें से कई विगत वर्षों में चालुक्य भूमि छोड़ हमारे दरबार में भी शामिल हुए हैं। वो भी केवल इसलिए क्योंकि हम भी चालुक्यों के विरोधी हैं।”

“हम्म, योजना तो अद्भुत है। किन्तु चालुक्यों से युद्ध सरल नहीं होगा, और यदि शिवादित्य जीवित बच गया तो क्या वो अपने अनुज के सामने नहीं आ जाएगा?”

“पता है तीन वर्ष पूर्व चालुक्य नगरी में निवास कर रहे शिवादित्य का विवाह किससे हुआ था, शत्रुपा नाम की कन्या से। और ‘नास्तिदमन’ नाम के जिस पल्लव सामंत की वो पुत्री थी, उसे हमने एक वर्ष पूर्व यहाँ मेवाड़ में आमंत्रित किया, और अपने शस्त्रागार का संरक्षक बना दिया।”

मानमोरी की कपट से भरी योजनाओं का अनुमान लगाकर जलसंघ की भी आँखें आश्चर्य से फैलने लगीं, “अर्थात?”

“अर्थात ये कि अब वो शत्रुपा ही हमारी योजना का शस्त्र बनेगी। वैसे उसने भी पल्लवों और चालुक्यों के युद्ध में अपने एकलौते भाई को खोया था, तो शिवादित्य के प्रति उसके मन में कोई विशेष प्रेम नहीं है। बस हमें इसी का लाभ उठाना है।” मुख पर कपट से भरी मुस्कान लिये मानमोरी ने अपने कक्ष में खड़े एक दीपक की लौ बुझाते हुए कहा, “मैं तो अभी बस उसके निष्कासन की प्रतीक्षा कर रहा हूं।

हमारे गुप्तचर पिछले चार वर्षों से कुछ ऐसे ही षड्यंत्रों का जाल बुनने में लगे हैं जिससे शिवादित्य और चालुक्यराज में खटास आ जाए और उसे या तो निष्काषित कर दिया जाए या स्वयं चालुक्यराज ही उसका अंत कर दें। और यदि वो योजना सफल नहीं भी हुई, तो उसके स्थान पर और भी योजनाएँ हैं हमारे पास। उचित समय आने पर आपको भी सबकुछ ज्ञात हो जायेगा।”

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“उस वृक्ष की ओर ध्यान से देख रहे हो, भोज?” तीन वर्षीय कालभोज को अपनी गोद में उठाए देवी तारा ने एक पीपल के वृक्ष की ओर संकेत करते हुए प्रश्न किया।

अबोध कालभोज ने सहमति में सिर हिलाया। तारा ने उसे अपनी गोद से नीचे उतारा, “उस वृक्ष में सत्रह सरकंडे धँसे हुए हैं जो केवल एक अंगुल के बराबर हैं। ढूंढकर ला पाओगे ?”

“अवश्य लाऊँगा।” कालभोज बिना कुछ सोचे मादक वानर की भाँति वृक्ष की ओर सरपट दौड़ गया। वृक्ष के निकट जाकर उसने देखा कि उसमें छोटे-छोटे सैकड़ों क्या सहस्त्रों सरकंडे धँसे हुए हैं। वो पुनः देवी तारा की ओर मुड़ा, “इसमें तो बहुत से हैं।”

“तुम्हें स्मरण नहीं क्या कहा था ?”

“तो अब एक अंगुल के बराबर सरकंडे ढूँढने पड़ेंगे? उसके लिए तो हर एक सरकंडे को निकालकर नापना पड़ेगा। पूरा दिन लग जाएगा।”

“तो तुम्हें रोका किसने है? पर्याप्त समय है, आरम्भ करो। स्मरण है न जब तक तुम्हारे पिता महाराज और महारानी मृणालिनी लौटकर नहीं आते, तुम्हें मेरे हर आदेश का पालन करना है। यदि तुम सफल हुए तो महाराज से उपहार मिलेगा।” 

“हाँ, पिताश्री का ऐसा आदेश तो था।” मन मसोसकर भौहें सिकोड़े कालभोज ने पीपल के उस वृक्ष से एक-एक सरकंडे निकालकर नापना आरम्भ किया।

ये करते-करते एक प्रहर से भी अधिक समय बीत गया। पीपल के उस वृक्ष में अब भी आधे सरकंडे धँसे हुए थे और एक अंगुल बराबर के सत्रह सरकंडों की गिनती अब भी पूरी नहीं हो पायी थी। थोड़ा और समय बीता, भोज ने पंद्रह ऐसे सरकंडे जुटा लिए। किन्तु अंतिम दो सरकंडे ढूँढने में एक और प्रहर बीत गया किन्तु वो मिले नहीं। झल्लाते हुए कालभोज ने एक साथ कई सरकंडे हाथ से ही झाड़कर भूमि पर गिरा दिए।

“इतने में ही धैर्य खो दिया?” उसे पीछे से एक भारी स्वर सुनाई दिया। मुड़कर देखा तो अपने पिता महाराज नागादित्य को अपने समक्ष खड़ा पाया।

“कहा था न यदि आज देवी तारा के दिए लक्ष्य में सफल हुए तो तुम्हें हाथों में तलवार उठाने को मिलेगी? किन्तु अंत समय में आकर तुमने धीरज खो दिया।”

मुंह फुलाकर कालभोज वृक्ष के नीचे ही बैठ गया। उसे मौन बैठा देख नागादित्य ने उसे पुनः टोका, “अब भी दो बचे सरकंडों के लिए प्रयास नहीं करोगे?”

कालभोज ने भौहें सिकोड़ते हुए सरकंडों के ढेर की ओर देखा जो चहुं ओर बिखर गए थे, उनमें से एक अंगुल बराबर सरकंडे ढूँढना तो वास्तव में भूसे में सुई ढूँढने के बराबर था। किन्तु अपने पिता के नेत्रों में छिपी कठोरता देख वो पुनः उठा और उन सरकंडों का ढेर टटोलने लगा।

कालभोज को पुनः श्रम करता देख देवी तारा का मन पसीज गया। उन्होंने नागादित्य से विनती की, “क्षमा करें महाराज, किन्तु ये तो इस बालक के साथ कुछ अधिक ही कठोरता हो रही है। सूरज सर चढ़ आया है और इसने प्रातः काल से अन्न का एक निवाला भी नहीं खाया।”

“आपने और महारानी ने मिलकर इसे अधिक ही सर चढ़ा दिया है, देवी तारा। किन्तु मेरी आपसे विनती है कि आज पिता पुत्र के मध्य न आयें। लक्ष्य के इतने निकट आकर यदि वो पीछे हट गया, तो आने वाले समय में ऐसे कई प्रसंग उत्पन्न हो सकते हैं। इसे बचे हुए दो सरकंडे आज ही ढूँढने होंगे।”

“जो आज्ञा, महाराज।” देवी तारा पीछे हट गयीं। दोपहर से संध्या हो आई और कालभोज के हाथ एक अंगुल बराबर एक और सरकंडा लगा, “ये देखिए, पिताश्री। सोलह।”

“बहुत अच्छे, भोज। अब बस एक और।” महाराज नागादित्य भी दोपहर से अब तक वहीं खड़े थे।

उस एक सफलता ने कालभोज का मनोबल और बढ़ाया, और सरकंडों के अंतिम ढेर को खंगालते हुए उसकी गति और तेज हो गयी। तब तक महारानी मृणालिनी भी वहाँ आ पहुँची, “आप लोग अब तक इस वन में क्या कर रहे हैं? मैं कबसे भोजन पर सबकी प्रतीक्षा कर रही हूँ।”

नागादित्य मृणालिनी की ओर देख मुस्कुराये और बिना कुछ कहे पुनः कालभोज की ओर मुड़े। मृणालिनी ने तारा की ओर देखा। तारा ने अपने हाथ खड़े करते हुए मानों संकेत दिया कि महाराज के आगे किसी की नहीं चल सकती।

मृणालिनी ने झेंपते हुए कालभोज की ओर देखा जो अगली एक घड़ी तक सरकंडों के ढेर को निहारकर नापता रहा और शीघ्र ही एक सरकंडा उठाकर प्रसन्नता से उछल पड़ा, “सत्रह।” 

उसकी सफलता देख नागादित्य ने उत्साह में भरकर तालियाँ बजाई। मृणालिनी ने भी हँसते हुए भोज की ओर देखा, “तो अब भोजन को चलें?”

“नहीं पहले मुझे तलवार चलानी है।” कालभोज हठ पर अड़ गया।

“आप इसे समझाते क्यों नहीं?” महारानी मृणालिनी ने नागदा नरेश की ओर संकेत किया, “इसने सुबह से कुछ नहीं खाया।”

“अब वचन दिया है तो निभाना तो पड़ेगा ही। आपको थोड़ी और प्रतीक्षा करनी होगी, महारानी।” नागादित्य निकट खड़े अपने अश्व के पास गए और वहाँ से एक डेढ़ हाथ लम्बी तलवार निकाल लाये और उसे कालभोज के हाथ में दिया।

उस तलवार को हाथ में थामते ही मानों उस तीन वर्षीय बालक की बाँछें खिल उठीं। उस छोटी सी तलवार को घुमाते हुए नन्हें कालभोज के मुख पर छाया उत्साह देख कोई अनुमान भी न लगा सकता था कि वो कई प्रहरों से भूखा था। उसे तो बस उस फल की प्रतीक्षा थी जिसके लिए वो प्रातः काल से बिना रुके श्रम कर रहा था। तलवार भाँजते हुए अकस्मात ही वो उसके हाथ से छूटी और घूमते हुए वृक्ष की टहनी को काटकर नीचे गिर गयी।

“अद्भुत प्रहार था, युवराज।” एक बालक को गोद में उठाये बलेऊ भी वहाँ आ पहुँचा। लगभग चार वर्ष की दिखने वाली एक कन्या भी उसके साथ चल रही थी। भीलराज ने महाराज के निकट आकर उन्हें प्रणाम किया।

“ये तो भीलों के विश्राम का समय है, यहाँ क्या कर रहे हो?” नागादित्य ने प्रश्न किया।

“क्या करूँ महाराज, जबसे मेरे दोनों बच्चों को ज्ञात हुआ है कि आज युवराज कालभोज वन भ्रमण को आए हैं, हठ पे अड़ गए कि उनसे और देवी तारा से मिले बगैर भोजन ही नहीं करेंगे। हार मानकर इन्हें यहीं लेता आया।”

नागादित्य ने मुस्कुराते हुए नीचे खड़ी कन्या की ओर देखा, “क्यों रसिका, तुम्हें केवल कालभोज प्रिय है? अपने महाराज से मिलने की इच्छा नहीं होती ?”

घबराते हुए रसिका अपने पिता बलेऊ के पीछे छिप गयी। यह देख महारानी मृणालिनी उसके निकट गयीं और उसे अपनी गोद में उठाकर नागादित्य पर कटाक्ष किया, “आप भी बच्चों को डरा देते हैं?”

“अरे किन्तु मैंने तो बस छोटा सा प्रश्न किया था?” नागादित्य भी झेंप गए।

“बालिकाओं को समझना इतना सरल नहीं होता।” रसिका की पीठ सहलाती हुई रानी मृणालिनी ने बलेऊ से कहा, “चलिए भीलराज, हमारा शिविर निकट ही है। चलकर साथ में भोजन करते हैं।”

“अरे नहीं, नहीं, महारानी। हम तो बस कालभोज से...।”

भीलराज अपना वचन पूर्ण करते इससे पूर्व ही नागादित्य ने उसका कंधा पकड़ कठोर स्वर में कहा, “आप नागदा की महारानी का आदेश टाल रहे हैं, भीलराज?”

“अरे, नहीं, नहीं, महाराज। मैं भला ऐसा दुस्साहस कैसे कर सकता हूँ?”

“तो आप महारानी के साथ शिविर की ओर चलिये, हम कालभोज को लेकर आते हैं।”

“जो आज्ञा।” भीलराज महारानी मृणालिनी, देवी तारा और अपने बच्चों के साथ शिविर की ओर बढ़े।

उनके वहाँ से जाने के उपरान्त नागादित्य कालभोज के निकट आए और उसे अपनी गोद में उठाकर उसे उस वृक्ष के निकट लाये, जहाँ उसकी फेंकी हुई तलवार गिरी हुई थी, “तुमने परीक्षा का पहला पड़ाव तो पार कर लिया, किन्तु दूसरी में विफल हो गये।”

“दूसरी कौन सी परीक्षा, पिताश्री ?”

“तुमने दिन भर श्रम करके स्वयं को इस योग्य बनाया कि इस तलवार को धारण कर सको। किन्तु तलवार हाथ में आते ही तुम अतिउत्साहित हुए और यूँ ही उसे वृक्ष की ओर फेंककर व्यर्थ में एक डाली काट दी। उस डाली के स्थान पर कोई मनुष्य या अन्य जीव भी हो सकता था।”

कालभोज ने तलवार की ओर देख क्षणभर विचार किया, “हाँ, भूल तो हो गयी। क्षमा कीजिए, पिताश्री।”

“कोई बात नहीं, पुत्र। किन्तु इससे ये निष्कर्ष निकलता है कि तुम अभी शस्त्रों को स्पर्श करने के योग्य नहीं हुए हो।” नागादित्य का निष्कर्ष सुन नन्हें कालभोज ने भौहें सिकोड़ीं। इस पर नागदा नरेश ने अपने उस पुत्र को कंधे पर बिठाया, “किन्तु जब समय आएगा, तो मैं स्वयं ही तुम्हें शस्त्रों की धार से परिचित करवाऊँगा।” कहते हुए वो उसे लेकर शिविर की ओर बढ़े।

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“आज भोजन में सबको ही अधिक विलंब हो गया।” देवी तारा ने नागादित्य और भीलराज की थाली में व्यंजन परोसते हुए कहा।

“हाँ, सो तो है। बालहठ के आगे भला किसकी चली है आज तक?” निवाला निगलते हुए नागादित्य ने जल का पात्र उठाया, इतने में ही कागज की एक गेंद उनके जल के पात्र की ओर आई, जिसे नागादित्य ने पात्र से टकराने से पहले ही लपक लिया।

वो गेंद बलेऊ की पुत्री रसिका के हाथों से ही छूटी थी जो भूल से नागादित्य के निकट पहुँची। बलेऊ ने अपनी पुत्री को क्रोध में घूरा, वहीं नागादित्य मुस्कुराते हुए उस गेंद को अपने हाथों में उछाल रहे थे। भयभीत रसिका महारानी मृणालिनी के पीठ पीछे जाकर छिप गयी। शेष दोनों बालक भी स्थिर खड़े होकर बड़ों की ओर देख रहे थे, इस भय में कि अब कोई न कोई उन पर अवश्य चीखेगा। किन्तु नागादित्य ने बलेऊ को धैर्य रखने का संकेत दिया और मुस्कुराते हुए भोजन का अंतिम निवाला निगलकर उठे, गेंद उछालते हुए आगे आए और बाकी बच्चों की ओर देखा, “तुम लोगों का मन न भरा हो, तो एक और खेल हो जाए?”

मृणालिनी के पीठ पीछे छिपी रसिका ने बलेऊ की ओर देखा। भीलराज ने भी अपने क्रोध को नियंत्रित किया और उसकी ओर मुस्कुराकर मानों सहमति का संकेत दिया। मुस्कुराते हुए रसिका बाहर आई। नन्हें कालभोज और देवा भी चहक उठे और महाराज नागादित्य के साथ खेलने को चल दिए।

उन्हें क्रीड़ा में लीन देख भीलराज की भी आँखें भर आयीं। उसने महारानी का आभार व्यक्त करते हुए कहा, “आपने और महाराज ने मिलकर नागदा की इस पवित्र भूमि को स्वर्ग से भी सुंदर बना दिया, महारानी। अन्यथा कभी आशा नहीं की थी कि इस जीवन में ऐसे सुखद क्षण देखने को मिलेंगे।”

“संसार में कुछ भी स्थाई नहीं होता, भीलराज। ना दुख, ना ही सुख। इस विषय में तो सबके अपने-अपने अनुभव हैं। आप इन क्षणों का आनंद लीजिए, हम तो दिन भर आपके महाराज और युवराज के पीछे दौड़ दौड़कर थक गये, विश्राम करने जा रहे हैं।” कहकर रानी मृणालिनी अपने शिविर की ओर चल पड़ीं।

उनके जाने के उपरान्त देवी तारा ने दासियों के साथ मिलकर सामाग्री समेटना आरम्भ किया। वहीं नागादित्य बच्चों के साथ खेलते रहे।