21.
भक्ति में क्या करें, क्या न करें
वादौ नावलम्ब्यः ||७४||
बाहुल्यावकाशादनियतत्वाच्च ॥७५||
अर्थ : वाद-विवाद का अवलंब नहीं लेना चाहिए ।।७४।।
क्योंकि बाहुल्यता का अवकाश है तथा वह अनियत है ।।७५।।
भक्ति, प्रेम का पर्याय है और जहाँ प्रेम है वहाँ वाद-विवाद का प्रश्न ही नहीं उठता। क्योंकि प्रेम सब स्वीकार करता है। आज किसी का विरोध नहीं करता। जबकि वाद-विवाद का आधार ही अस्वीकार, विरोध, असहमतियाँ होती हैं। असल में किसी भी बात में वाद-विवाद करना बिलकुल निरर्थक है क्योंकि यह आपकी ऊर्जा और समय दोनों नष्ट करता है। वैसे भी सामने वाले पर अपनी बात सिद्ध करके कभी कुछ हासिल नहीं होता क्योंकि जिसे जो सोचना है वह सोचता ही है। साथ ही वाद-विवाद आपसी वैर-भाव, दुःख, निराशा, अहंकार, कट्टरता जैसे विकारों को बढ़ाता है। अध्यात्म में तो विशेष रूप से इसका कोई अर्थ ही नहीं है क्योंकि ईश्वर को तर्कों से नहीं समझा जा सकता, न ही किसी को समझाया जा सकता है। उसे तो विशुद्ध प्रेम से ही अनुभव किया जा सकता है। इसीलिए नारदजी ७४ और ७५ वें सूत्रों में भक्तों को वाद-विवाद से दूर रहने का परामर्श दे रहे हैं।
वाद-विवाद करना माया में लिप्त व्यक्तियों का कार्य है, भक्तों का नहीं। वाद-विवाद खुद को श्रेष्ठ साबित करने की इच्छा से या दूसरे को छोटा दिखाने की इच्छा से या अपनी बात सिद्ध करने के लिए किया जाता है। यह अपने मतों, विचारधाराओं के प्रति कट्टरता और आसक्ति भी दर्शाता है। अध्यात्म सहिष्णुता का मार्ग है, जहाँ 'मैं सही, तू गलत' की जगह 'मैं भी सही, तू भी सही' का समभाव रखकर, संसार में जीया जाता है क्योंकि हम सभी एक ही ईश्वर का रूप हैं और उसी के द्वारा संचालित हैं। हर मत उसी का है, हर तर्क उसी का है।
जैसे दुनिया के एक हिस्से में जब दिन होता है तो दूसरे किसी हिस्से में रात भी होती है। अब इन दोनों हिस्सों के लोग आपस में इस बात पर वाद-विवाद करने लगे कि 'अभी दिन है या अभी रात है' तो इसमें किसे सही कहा जाएगा, किसे गलत? जो पृथ्वी की भौगोलिक स्थिति जानता है, उसके लिए दोनों ही सही हैं मगर उन लोगों के लिए नहीं क्योंकि उन्हें अपना सत्य आँखों से दिख रहा है। अब यदि आँखों से दिख रहा सत्य भी भ्रम हो सकता है तो फिर उस ईश्वर को जिसे इंद्रियों से अनुभव नहीं किया जा सकता, कैसे किसी तर्क या विश्वास से सिद्ध किया जा सकता है? इसलिए ईश्वर के नाम पर वाद-विवाद करना बेहद मूर्खतापूर्ण कार्य है।
आगे नारद जी ७५वें सूत्र में कहते हैं, वाद-विवाद में बाहुल्य के लिए हमेशा अवकाश रहता है। इसका अर्थ है, वाद-विवाद जीतकर कोई सदा के लिए विजयी नहीं हो जाता। हर शेर को कभी न कभी सवा शेर मिल ही जाता है। अर्थात आप आज किसी वाद-विवाद में विजयी हो भी गए तो कल कोई और आकर आपको हरा सकता है, जो आपसे बुद्धि बल (ज्ञान) में अधिक होगा। फिर कभी न कभी उसे आगे चलकर कोई और ऐसा मिल जाएगा, जो उसे हरा देगा। यानी वाद-विवाद में हार-जीत का सिलसिला चलता जाता है।
वाद-विवाद अनियत यानी अस्थायी होता है क्योंकि आदमी की दृष्टि, उसका ज्ञान सीमित होता है। वह अपने सीमित ज्ञान के आधार पर ही तर्क करता है। उसे भी संपूर्ण सत्य कहाँ पता होता है? विज्ञान में ऐसी कितनी ही खोजें हुईं, जो उस समय तर्कों और प्रमाणों के हिसाब से सही थीं किंतु भविष्य में वे गलत साबित हुईं।
जो भक्त बन जाता है, उससे सारे वाद-विवाद स्वतः छूट जाते हैं। महान कृष्ण भक्त चैतन्य महाप्रभु के बारे में कौन नहीं जानता। वे बचपन से ही कुशाग्र बुद्धि थे और किशोर अवस्था में ही प्रकांड पंडित हो चुके थे। उन्होंने शास्त्रार्थों में ऐसे बड़े-बड़े ख्याती प्राप्त विद्वानों को हराया, जो उन्हें बच्चा समझकर उन पर हँस देते थे। उनके जैसा तार्किक, ज्ञानी पूरे बंगाल में नहीं था इसलिए समूचे बंगाल में उनकी ख्याती फैल गई थी। अन्य पंडित उनका सामना करने से कतराने लगे थे क्योंकि उनसे वाद-विवाद का अर्थ ही होता था, अपनी प्रतिष्ठा धूमिल कर लेना।
इतनी ख्याति के बाद भी चैतन्य महाप्रभु के भीतर का खालीपन भरा नहीं था। वे भीतरी आनंद से महरूम थे और उसी की तलाश में कभी वृंदावन तो कभी काशी जैसे तीर्थों में भटकते फिरे। जब उन्हें कृष्ण भक्ति का प्रसाद मिला तो उन्होंने अपना सारा पांडित्य, सारी ख्याती कृष्ण के चरणों में समर्पित कर दी। उसके बाद न किसी को ज्ञान की बातें पढ़ाई, न शास्त्रार्थों में अपने ज्ञान का मिथ्या प्रदर्शन किया।
एक बार जब वे हरि संकीर्तन में लीन मस्ती में नाच रहे थे तो वहाँ एक ज्ञानी विद्वान उनसे शास्त्रार्थ करने आया और उन्हें चुनौती दी। उसका लक्ष्य प्रकांड विद्वान निमाई (महाप्रभु) को हराकर खुद की प्रतिष्ठा बढ़ाना था। उसके अनुरोध पर महाप्रभु हँसकर बोले, 'मित्र आपने आने में देरी कर दी। पहले आते तो मैं आपका अनुरोध मान लेता मगर अब मेरे भीतर कोई पांडित्य शेष नहीं है इसलिए आपसे शास्त्रार्थ नहीं कर सकता। आप चाहे तो मैं आपकी प्रसन्नता के लिए अपनी हार स्वीकार कर सकता हूँ और आप चाहे तो मेरे साथ हरि बोलकर नाच सकते हैं, झूम सकते हैं... मुझे तो अब बस यही आता है और कुछ नहीं...।' देखा आपने, जब भक्त स्वयं को 'कुछ नहीं' समझने लग जाता है तभी उसकी 'सब कुछ' होने की संभावनाएँ खुलती हैं।
वाद-विवाद, तर्कों में कुछ नहीं रखा, यह जान लेना भक्त का प्रमुख लक्षण है। इसलिए भक्त को वाद-विवाद में पड़ना ही नहीं चाहिए और अगर कोई वादविवाद चल रहा हो तो वहाँ से हाथ जोड़कर चुपचाप हट जाना चाहिए। वाद-विवाद करनेवालों से इस बात पर भी विवाद नहीं करना चाहिए कि वे ईश्वर के नाम पर वाद-विवाद क्यों कर रहे हैं? हर किसी की अपनी सोच है, अपनी यात्रा है। आपको अपनी भक्ति की रक्षा करनी है। दूसरों को समझाने का भार ईश्वर पर ही छोड़ दें।
भक्तिशास्त्राणि मननीयानि तदुद्बोधककर्माण्यपि करणीयानि ||७६||
अर्थ : भक्ति शास्त्रों का मनन, तथा उदबोधक कर्मों को करना चाहिए ।।७६।।
प्रस्तुत सूत्र में नारद जी भक्तों को भक्ति के लिए कुछ उद्बोधक (विचारोत्तेजक) कर्म करने को कह रहे हैं। उद्बोधक कर्म उन्हें कहा जा रहा है, जिनके करने से भक्ति और ज्ञान बढ़ते हैं। सत्य के लिए उद्बोधक कर्म सहजता से होते रहें, इसके लिए भक्त को सेवा, श्रवण, भक्ति के त्रिकोण में रहना चाहिए। उसके कर्म सिर्फ कर्म न होकर, किसी न किसी प्रकार की सेवा हों यानी वह हर कर्म ईश्वर की सेवा मानकर करे। वह सत्य श्रवण करे, सत्य मनन करे, इसके लिए भक्त भक्तिपूर्ण रचनाओं, ग्रंथों, शास्त्रों का सहारा ले सकता है।
हमारे आत्मसाक्षात्कार संतों, पूर्वजो ने बहुत ही सुंदर प्रभावशाली आध्यात्मिक ग्रंथों की रचनाएँ की हुई हैं, जो ज्ञान और भक्ति का भंडार हैं। वेद, पुराण, उपनिषद्, गीता, बाइबल, गुरु ग्रंथ साहब, रामायण आदि न जाने कितने ऐसे ग्रन्थ हैं, पढ़कर इंसान भक्ति और ज्ञान का अमृत पी सकता है। इसके अतिरिक्त ईश्वर के नाम का स्मरण, जाप, भजन आदि करना, ईश्वर के गुणों पर मनन करना, सत्संग में जाना और गुरु के वचन सुनना, जहाँ भी संभव हो निःस्वार्थ सेवा करना, निःस्वार्थ सामाजिक कार्य करना... आदि ऐसे कार्य हैं, जो आपके मन, बुद्धि को शुद्ध कर, भक्ति और ज्ञान को बढ़ाते हैं। इसलिए भक्तों को अवश्य इस प्रकार के कर्मों का अभ्यास करना चाहिए।
हमारी इंद्रियाँ हमारे द्वार हैं, जो बाहर की दुनिया में खुलती हैं। हमें अपनी इंद्रियों को ऐसे अनुशासित करना चाहिए, उन पर समझ के ऐसे फिल्टर लगाने चाहिए कि सिर्फ सत्यावी बातें ही भीतर आ सकें, मायावी नहीं... तब हमसे सहज ही सत्य के उद्बोधक कर्म होने लग जाएँगे।
सुखदुःखेच्छा लाभादित्यक्ते काले प्रतिक्ष्यमाणे क्षणार्द्धमपि व्यर्थं न नेयम् ||७७||
अर्थ : सुख-दुःख, इच्छा, लाभ आदि का त्याग हो जाए, ऐसे समय की प्रतीक्षा करते हुए आधा क्षण भी व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए ।।७७।।
भक्ति आरंभ करने का कोई समय, उम्र, अवस्था या शुभ मुहूर्त नहीं है। जब मन में भक्ति भावना जगे, भक्ति करनी चाहिए। संसार में बहुत से लोग ऐसी बातें करते हैं कि ‘अभी तो हमें बहुत काम है, परिवार पालना है, धन कमाना है, बच्चों की शादी करनी है, उन्हें सेटल करना है, अभी तो यह चिंता है, यह दुःख है, ये इच्छाएँ पूरी करनी हैं... पहले अपनी ज़िम्मेदारियों से, बाकी कामों से निपट लें, फिर भगवान की राह पर चलेंगे, भक्ति-भजन करेंगे।’
ऐसे लोगों को नारद जी कहते हैं, जब तक जीवन है, सुख-दुःख, इच्छा-अनिच्छा, लाभ-हानि आदि सभी सांसारिक द्वंद चलते ही रहेंगे... माया किसी न किसी काम में उलझाकर ही रखेगी।
उनसे निकलकर भक्ति करने की सोचेंगे तो भक्ति की शुरुआत ही नहीं हो पाएगी इसलिए ऐसे समय की प्रतीक्षा न करें। अपने दैनिक कार्यों के बीच ही भक्ति के लिए समय निकालें क्योंकि भक्ति भाव की बात है, कर्म करते हुए भी मन भक्ति में लीन रह सकता है। अतः एक भी क्षण व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए। हाथ को सुकर्म और मन को भक्ति की डोर देकर संसार में चलना चाहिए।
कभी-कभी कुछ लोग भक्ति की राह पर तो चल पड़ते हैं मगर स्वयं को सुख-दुःख, इच्छाओं, कामनाओं के जाल में पहले की तरह ही फँसा हुआ पाते हैं। जिससे उन्हें लगते रहता है, ‘शायद हमारी भक्ति में शक्ति ही नहीं है; शायद हम इस मार्ग के लायक ही नहीं हैं तभी तो दूसरों की तरह इस जाल को तोड़ नहीं पा रहे हैं।’ वे साथी सत्संगियों को देख आत्मग्लानि में आ जाते हैं और भक्ति की राह छोड़ बैठते हैं।
ऐसे भक्तों को यह समझना चाहिए कि वे इस राह में अकेले नहीं हैं, ईश्वर उनके साथ चल रहा है। सोचिए, अगर ईश्वर साथ नहीं होता तो क्या उनमें भक्ति की प्रेरणा जगती? दूसरी बात, ‘मैं फलाँ विकार या कामना का त्याग करूँ....’ यह भी तो एक कामना ही है, जिसके पूरा न होने पर निराशा पैदा होती है। इस कामना को भी ईश्वर को समर्पित कर देना चाहिए।
एक ज्ञानी साधक ज्ञान और संकल्प शक्ति के बल पर विकारों का, कामनाओं का त्याग कर देता है मगर उसका अहंकार बचा रहता है। त्याग करके वह खुद को त्यागी, संन्यासी जैसी पदवी से सुशोभित कर लेता है। उसे लगता है उसने अपने सामर्थ्य से त्याग किया मगर भक्त की तो पहचान ही यही है कि वह खुद को ईश्वर को सौंपकर, उसी ईश्वर के आश्रित हो जाता है। वह स्वयं को सामर्थ्य हीन घोषित कर, ईश्वर को ही अपना सामर्थ्य बनाता है। जिसके पीछे उसकी भावना होती है कि 'जब उसी के आश्रित हैं तो कब क्या छुड़वाना है, इसका ध्यान भी वहीं रख लेगा।'
इसलिए भक्त को सिर्फ प्रार्थना करनी चाहिए कि 'हे ईश्वर मुझमें सामर्थ्य नहीं है कि मैं किसी का त्याग करूँ... तू मुझसे जो छुड़वाना चाहे, अपने सामर्थ्य से छुड़वा ले...।' प्रार्थना करके पूरी तरह निश्चिंत हो जाएँ और जो भी सामने आ रहा है, उसे स्वीकार कर भक्ति में लगे रहें। कुछ समय बाद आप स्वयं ही देखेंगे कि जो बातें कठिन लगती थीं, सहजता से हो रही हैं... छूटने योग्य विकार स्वयं ही छूटते जा रहे हैं और आप बस भक्ति का आनंद ले रहे हैं।
अहिंसा सत्यशौचदयाक्ति क्यादियावित्र्याणि परिपालनीयानि ॥७८॥
अर्थ : अहिंसा, सत्य, शौच, दया, आस्तिकता आदि का परिपालन करना चाहिए ।।७८ ।।
इस सूत्र में नारद जी भक्तों को कुछ अन्य बातों का भी पालन करने को कहते हैं। इनमें पहला है अहिंसा। अहिंसा में दो बातों का समावेश है— पहला मन, वाणी और शरीर से किसी को दुःख ना देना। दूसरा— सबसे आसक्तिरहित प्रेम करना।
सामान्यतः लोग किसी पर शारीरिक रूप से किए गए अत्याचार या वाणी द्वारा बोले गए कटू शब्दों को हिंसा समझते हैं, मानसिक हिंसा पर उनका ध्यान ही नहीं जाता। जबकि किसी के बारे में बुरे विचार करना, उसे मन ही मन कोसना, बद्दुआएँ देना... यह भी हिंसा ही है, जो देर-सवेर अपना असर दिखाती है।
जैसे-जैसे भक्त के अंदर भक्ति बढ़ती है, ज्ञान बढ़ता है, उसे हर किसी में एक ही ईश्वर के दर्शन होते हैं, जिस कारण भक्त का हृदय स्वतः ही अहिंसक हो जाता है। फिर उसके भीतर से सभी के लिए करुणा और मंगल भावना ही बरसती है।
इसके बाद नारद जी भक्तों को सत्य का अनुसरण करने को कहते हैं। सत्य का अर्थ भी सिर्फ सच बोलने से नहीं है बल्कि सच देखने और सच सुनने से भी है मगर सत्य क्या है?
कुछ सत्य ‘अहम् ब्रह्मास्मि’ है अर्थात मैं वही ब्रह्म हूँ, सब वही हैं, उससे अलग है ही नहीं। इस भाव में रहते हुए अकर्ता भाव से, अव्यक्तिगत जीवन जीना ही वास्तव में सत्य का पालन करना है। इस मायावी जगत में हमारी ऐसी दृष्टि हो कि हम हर किसी में उसे ही देखें, उसे ही सुनें, हर वक्त उसी का अनुभव करें...। जो भी सत्य के विरुद्ध हो, वह न करें। हमेशा सत्य को ही अपने अनुभव और आचरण में डालकर जीवन जीएँ।
इसके बाद नारद जी शौच का पालन करने को कहते हैं। शौच का अर्थ है शुद्धि, पवित्रता। भक्त के शरीर, मन, बुद्धि, वाणी, कर्म सभी शुद्ध रहें, पवित्र रहें, नारद जी की उससे ऐसी ही अपेक्षा है। साथ ही नारद जी भक्तों को दया भाव रखने को भी कहते हैं। दया भाव रखने का अर्थ है, दूसरों का हर हाल में भला करना। यहाँ तक कि स्वयं कष्ट झेलकर भी दूसरों को सुख देना दया भाव है।
दया, भक्त का एक स्वाभाविक गुण होता है, जिसमें यह समझ होती है कि यहाँ कोई दूसरा है ही नहीं इसलिए किसी पर दया करना खुद पर ही दया करने जैसा है। इस समझ के कारण भक्त में दयावान होने का अहंकार जाग्रत नहीं होता बल्कि श्रद्धा भाव होता है कि 'यहाँ कोई छोटा, बड़ा नहीं है, सब उसी ईश्वर की संतान हैं। मुझे किसी के लिए कुछ करने का मौका ईश्वर ने ही दिया है और मेरे ऐसा करने से वह प्रसन्न होगा।'
इसके बाद नारद जी आस्तिकता की बात करते हैं। जो आस्तिक है वही सच्चा भक्त है लेकिन जो खुद को भक्त मानता हो, वह आस्तिक भी हो, यह ज़रूरी नहीं है। अब आप कहेंगे भक्त तो वही इंसान हो सकता है, जो आस्तिक हो क्योंकि संसार में उसे ही आस्तिक माना जाता है जो ईश्वर को माने, उसके अस्तित्त्व में विश्वास करे। लेकिन आस्तिकता का अर्थ इतना ही सीमित नहीं है। ईश्वर को मानना और ईश्वर की मानना, दो अलग-अलग बातें हैं। आस्तिक वह है जो ईश्वर की मानता है।
ईश्वर इंसान को जिस हाल में रखे, अगर वह उस हाल में पूर्ण स्वीकार भाव के साथ, खुशी-खुशी रहे तो ही वह आस्तिक है वरना नहीं। ईश्वर की रजा में राज़ी रहना ही सच्चे आस्तिक की पहचान है। वह सदैव 'हाँ' के भाव में रहता है। उसके भीतर कुदरत के खिलाफ किसी तरह का कोई प्रतिरोध नहीं होता। वह अपने जीवन की बागडोर पूरी तरह से ईश्वर के हाथ में सौंपकर उससे कहता है— 'तुम्हें जो लगे अच्छा, वही मेरी इच्छा।'
एक आस्तिक भक्त अपने भीतर के स्त्रोत (ईश्वर) से इस तरह ट्यून रहता है कि उसके संदेशों को तुरंत पकड़ लेता है और उन्हीं के अनुसार कार्य करता है। आपने गुरुनानक का कथन 'जो हुकुम' तो सुना ही होगा। वे अपनी अंतरात्मा यानी ईश्वर से पूरी तरह जुड़े हुए थे। उन्हें वहाँ से जो मार्गदर्शन मिलता, उसे 'जो हुकुम' कहकर बिना कुछ सोचे-विचारे उस अनुसार चल दिया करते। उस कार्य को करने से क्या फल मिलेगा, लाभ होगा या हानि, सुख मिलेगा या दुःख... इसकी उन्हें तनिक भी परवाह नहीं होती थी। ईश्वर ने दिया हुकुम पूरा करना, वे अपना कर्तव्य मानते थे। यही उनकी भक्ति थी।
एक आस्तिक का भजन कुछ ऐसा होता है—
जहाँ ले चलोगे, वहीं मैं चलूँगा....
जहाँ नाथ रख दोगे, वहीं मैं रहूँगा...
ऐसे भजन गाते तो सभी भक्त हैं मगर इसे व्यवहार में ढाल लेना, सच्चे आस्तिक की पहचान होती है। सिर्फ मंदिर जाकर पूजा-पाठ करने से, कर्मकाण्ड करने से कोई आस्तिक नहीं हो जाता। आप कितना भी जप-तप कर लें, अगर ईश्वर की रजा में राज़ी नहीं है, उसके निर्णयों से प्रतिरोध और असंतुष्टि रहती है तो आप तेज आस्तिक नहीं, नास्तिक ही हैं।
सर्वदा सर्वभावेन निश्चिन्तितैर्भगवानेव भजनीयः ।।७९।।
अर्थ : सर्वदा, सर्वभावेन, निश्चिंत होकर भगवान का ही भजन करना चाहिए।।७९।।
नारद जी ने भक्तों को भक्ति के सारे पहलुओं से परिचित करा दिया। उन्हें भक्ति का संपूर्ण रहस्य समझा दिया तो अब बचता ही क्या है? सिर्फ समर्पण!
क्या आपने कभी किसी छोटे बच्चे को अपनी माँ के साथ देखा है? उसे माँ पर कितना विश्वास होता है, वह माँ के साथ हमेशा ही कितना निश्चिंत, कितना समर्पित रहता है। माँ ज़रा सी इधर-उधर हुई नहीं कि वह बेचैन हो जाता है और माँ की गोद में आते ही फिर खिल जाता है। बस! भक्त को ईश्वर के लिए ऐसा ही बच्चा बन जाना चाहिए। हमेशा, हर तरह से ऐसे ही निश्चिंत होकर सारे भाव से बस उसे ही प्रेम करना चाहिए। हर समय उसी की भक्ति में खोया रहे और उसकी तरफ से जरा सा भी ध्यान हटने पर बेचैन हो उठे... नारद जी ७९वें सूत्र में भक्त से ऐसी अपेक्षा कर रहे हैं।
भक्ति कोई घड़ी को देखकर की जानेवाली क्रिया नहीं है कि सुबह आधा घंटा भक्ति करेंगे, फिर अपने दैनिक कार्यों में लग जाएँगे। ये तो साँसों की तरह भीतर निरंतर बहने वाला आनंद प्रवाह है। उसी आनंद में आप आजीविका भी कमाएँगे, परिवार भी पालेंगे, सेवा भी करेंगे और भक्ति भी करेंगे... बिना किसी चिंता के, असुरक्षा के। क्योंकि आप जानते हैं वही आपको सँभालने वाला है... । यह सिर्फ किताबी ज्ञान नहीं है। इस संसार में ऐसे अनेकों भक्त हुए हैं, जिन्होंने आनंदमयी जीवन जीकर, समाज के सामने उदाहरण प्रस्तुत किए हैं। मीरा, कबीर, तुलसी, संत रविदास ऐसे ही निश्चिंत भक्त की सच्ची पहचान हैं।
कीर्त्यमानः शीघ्रमेवाविर्भवति अनुभावयति च भक्तान् ||८०||
अर्थ : वह भगवान कीर्तित होने पर शीघ्र ही प्रकट होते हैं
तथा भक्तों को अपना अनुभव करा देते हैं ।। ८०।।
प्रस्तुत सूत्र पढ़कर कुछ लोग गलत अर्थ भी लगा सकते हैं। सूत्र कहता है भगवान की कीर्ति गाने से, उसकी स्तुति, प्रशंसा करने से वह प्रसन्न हो जाता है और आपको अपने दर्शन दे देता है। ऐसा सोचकर लोग मंदिरों में जाकर खूब पूजा-अर्चना करते हैं, जोर-जोर से संकीर्तन करते ईश्वर को लुभाने की कोशिश करते हैं। जबकि यहाँ समझने वाली बात यह है— ईश्वर कोई ऐसा बॉस नहीं है जो चापलूसी से खुश हो जाएगा कि 'ये भक्त मेरी बड़ी स्तुति कर रहा है, चलो इसे दर्शन देकर कृतार्थ कर देता हूँ।' क्योंकि ईश्वर बाहरी क्रियाओं से प्रभावित नहीं होता, वह आपके आंतरिक परिवर्तन से जागृत होता है। ईश्वरीय तत्त्व आपके भीतर ही है। आपके और उसके बीच आया माया का परदा जब ज्ञान, भक्ति, शुद्धता, समर्पण आदि से परदा हटता है तब ईश्वर भीतर ही प्रकाशित होता है।
ईश्वर की कीर्ति किस भाव से की जा रही है, वही मायने रखती है। सकाम भक्तों के नृत्य से ईश्वर को कुछ फर्क नहीं पड़ता। जब मीरा और चैतन्य महाप्रभु जैसे अनन्य भक्त नृत्य करते हैं तो वह स्वयं उनके साथ आकर नृत्य करता है।
ईश्वर की कीर्ति गाने से ईश्वर पर फर्क नहीं पड़ता बल्कि भक्त पर ही पड़ता है। ईश्वर तो भक्त के लिए आरंभ से ही बाँहें फैलाए खड़ा रहता है, ईश्वर की कीर्ति गाने से भक्त की बाँहें खुलती हैं। वह भक्ति भाव में समर्पित होता है, उसका अहंकार झुकता है। उसकी नकारात्मकता हटती है, दिव्य गुणों का समावेश होना शुरू होता है। उसे आनंद की, शांति की झलक मिलती है, जो उसके भावों को बढ़ाती है। स्तुति, कीर्ति करते-करते भक्त जब व्यक्ति (मैं) से पूरी तरह खाली हो जाता है तो वहाँ ईश्वर प्रकाशित होता है यानी भक्त को स्वअनुभव होता है।